सचमुच वे बेधड़क थे
हरियाणा के श्री स्वामी बेधड़क आर्यसमाज के निष्ठावान् सेवक और अद्भुत प्रचारक थे। वे दलित वर्ग में जन्मे थे। शिक्षा पाने का प्रश्न ही नहीं था। आर्यसमाजी बने तो कुछ शिक्षा भी प्राप्त कर ली। कुछ समय सेना में भी रहे थे। आर्यसमाज सिरसा हरियाणा में सेवक के रूप में कार्य करते थे। ईश्वर ने बड़ा मीठा गला दे रखा था। जवानी के दिन थे। खड़तालें बजानी आती थीं। कुछ भजन कण्ठाग्र कर लिये। एक बार सिरसा में श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज का शुभ आगमन हुआ। बेधड़कजी ने कुछ भजन सुनाये। श्री यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी का भजन-
सुनिये दीनों की पुकार दीनानाथ कहानेवाले तथा है आर्यसमाज केवल सबकी भलाई चाहनेवाला।
बड़ी मस्ती से गाया करते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज गुणियों के पारखी थे। आपने श्री बेधड़क के जोश को देखा, लगन को देखा, धर्मभाव को देखा और संगीत में रुचि तथा योग्यता को देखा। आपने बेधड़कजी को विस्तृत क्षेत्र में आकर धर्मप्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया।
बेधड़कजी उज़रप्रदेश, हरियाणा, पञ्जाब, सिंध, सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान, हिमाचल में प्रचारार्थ दूर-दूर तक गये। हरियाणा प्रान्त में विशेष कार्य किया। वे आठ बार देश के स्वाधीनता संग्राम
में जेल गये। आर्यसमाज के हैदराबाद सत्याग्रह तथा अन्य आन्दोलनों में भी जेल गये। संन्यासी बनकर हैदराबाद दक्षिण तक प्रचारार्थ गये। अपने प्रचार से आपने धूम मचा दी।
बड़े स्वाध्यायशील थे। अपने प्रचार की मुनादी आप ही कर दिया करते थे। किस प्रकार के ऋषिभक्त थे, इसका पता इस बात से लगता है कि एक बार पञ्जाब के मुज़्यमन्त्री प्रतापसिंह कैरों ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर एक सुरक्षित क्षेत्र से हरियाणा में चुनाव लड़ने को कहा। तब हरियाणा राज्य नहीं बना था। काँग्रेस की वह सीट खतरे में थी। बेधड़क ही जीत सकते थे।
स्वामी बेधड़कजी ने विधानसभा का टिकट ठुकरा दिया। आपने कहा ‘‘मैं संन्यासी हूँ। चुनाव तथा दलगत राजनीति मेरे लिए वर्जित है। ऋषि दयानन्द ने तो मुझे दलित से ब्राह्मण तथा संन्यासी तक बना दिया। आर्यसमाज ने मुझे ऊँचा मान देकर पूज्य बनाया है और आप मुझे जातिपाँति के पचड़े में फिर डालना चाहते हैं।’’ पाठकवृन्द! कैसा त्याग है? कैसी पवित्र भावना है? जब वे अपने जीवन के उत्थान की कहानी सुनाया करते थे कि वे कहाँ-से-कहाँ पहुँचे तो वे ऋषि के उपकारों का स्मरण करके भावविभोर होकर पूज्य दादा बस्तीराम का यह गीत गाया करते थे-
‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’।
इन पंक्तियों के लेखक ने उन-जैसा दूसरा मिशनरी नहीं देखा। लगनशील, विद्वान् सेवक तो कई देखे हैं, परन्तु वे अपने ढंग के एक ही व्यक्ति थे। बड़े वीर, स्पष्टवादी वक्ता, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। शरीर टूट गया, परन्तु उन्होंने प्रचार कार्य बन्द नहीं किया। खान-पान और पहरावे में सादा तथा राग-द्वेष से दूर थे। बस, यूँ कहिए कि ऋषि के पक्के और सच्चे शिष्य थे।