पुस्तक परिचय
पुस्तक का नाम – ऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी
लेखक – दयाल मुनि आर्य
समपादक – भावेश मेरजा
प्रकाशक –डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार, सत्यार्थ
प्रकाश न्यास, 14251, सै. 13,
अर्बन एस्टेट, कुरु क्षेत्र, हरि.136118
पृष्ठ – 168 मूल्य – निःशुल्क
महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र के ऊपर अनेक ऋषि भक्तों ने कार्य किया उनमें मुखय रूप से धर्मवीर पं. लेखराम, बाबु श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द जी व उर्दू के जीवनी लेखक पं. लक्ष्मण आर्योपदेशक आदि। इन श्रद्धालु महानुभावों ने अपना अमूल्य समय व धन लगा कर जहाँ-जहाँ ऋषिवर गये वहाँ-वहाँ पहुँचकर ऋषि जीवन की एक-एक घटना को एकत्र करने का पुण्य कार्य किया। जिनके इस पुण्य कार्य के कारण आज हम महर्षि दयानन्द के जीवन से परिचित अपने को अनुभव करते हैं।
महर्षि की मान्यता रही है कि जो भी इतिहास रूप में लिखा जाये वह सत्य के आधार पर ही लिखा जाये। महर्षि ने अपने जीवन के विषय में जो बताया वा लिखा वह तो प्रामाणिक है ही तथा महर्षि के देहपात होने के कुछ काल बाद जो ऋषि के श्रद्धालुओं ने परिश्रम करके ऋषि जीवन को लिखा वह भी प्रामाणिक है। महर्षि दयानन्द जी की स्वयं इस बात के पक्षधर थे कि उनके विषय में जो लिखा जाये वह इतिहास सत्य ही लिखा जाये। यह बात महर्षि के एक ऐतिहासकि पत्र से ज्ञात होती है। इस पत्र को यहाँ ज्यों का त्यों लिखते हैं-
पण्डित गोपालराव हरि जी, आनन्दित रहो।
आज एक साधु का पत्र मेरे पास आया। वह आपके पास भेजता हूँ। साधु का लेख सत्य है, परन्तु आपने चित्तौड़ समबन्घी इतिहास न जाने कहाँ सुन सुना कर लिख दिया। उस काल उस स्थान में मेरा उदयपुराधीश से केवल तीन ही बार समागम हुआ। आपने प्रतिदिन दो बार होता रहा लिखा है। आप जानते हैं कि मुझे ऐसे कामों के परिशोधन का अवकाश नहीं। यद्यपि आप सत्य-प्रिय और शुद्ध भाव-भावित ही हैं और इसी हित-चित्त से उपकारक काम कर रहे हैं, परन्तु जब आपको मेरा इतिहास ठीक-ठीक विदित नहीं तो उसके लिखने में कभी साहस मत करो। क्योंकि थोड़ा-सा भी असत्य हो जाने से समपूर्ण निर्दोष कृत्य बिगड़ जाता है। ऐसा निश्चय रक्खो। और इस पत्र का उत्तर शीघ्र भेजो।
वैशाख शुक्ल 2 सवत् 1939 / स्थान शाहपुरा
दयानन्द सरस्वती
इस पत्र में महर्षि ने विशेष निर्देश किया है कि जो भी उनके विषय में लि जाये वह सत्य से युक्त हो। महर्षि के जीवन काल में ‘दयानन्द दिग्विजपार्क’ नामक जीवनी महाराष्ट्र के एक सज्जन पं. गोपालराव हरि प्रणतांकर जी ने लिखी थी। उनको यह पत्र महर्षि ने लिखा था।
प्रायः महर्षि के प्रारमभीक जीवन के विषय में सभी लेखकों का स्पष्ट मत नहीं आता दिख रहा है, जन्म स्थान माता-पिता का नाम आदि विषयों पर कुछा्रम-सा रहा है। उसा्रम को दूर करने के लिए ऋषि भक्त, चारों वेदों को गुजराती भाषा में अनुवाद करने का श्रेय प्राप्त करने वाले, अनेकों आयुर्वेद के विशाल ग्रन्थों के गुजराती अनुवादक, आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद चूड़ामणि, डी.लिट्. (आयुर्वेद) उपाधियुक्त, सरल स्वभाव के धनी, टंकारा निवासी श्रीमान् दयाल मुनि आर्य जीने श्रीमान् डॉ. रामप्रकाश जी (कुरुक्षेत्र) कुलाधिपति गुरुकुल कांगड़ी के निवेदन पर महर्षि दयानन्द जी के प्रारमभिक जीवन का परिश्रम करके अन्वेषण किया, उस अन्वेषण को ‘‘ऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी’’ नाम से पुस्तकाकार दे दिया है। जिस पुस्तक का समपादन ऋषि इतिहास व आर्य समाज के इतिहास में रूचि रखने वाले श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने किया है।
पुस्तक में पाठकों को ऋषि के आरमभिक जीवन का परिचय कराने के लिए बारह विषय दिये गये हैं। 1. जन्म स्थान विषयक भ्रम निवारण, 2. ऋषि के भ्रातृवंश समबन्धी भ्रम का निराकरण, 3. ऋषि के वंश-वृक्ष की प्राप्ति के प्रयत्न, 4. टंकारा के जीवापुर मुहल्ले से सबन्धित तथ्य, 5.शिवरात्रि का उपासना मन्दिर, 6. ऋषि के स्व वंश समबन्धी तथ्य तथा एतद् विषयक भ्रम का निवारण, 7. ऋषि की माता का नाम क्या था, 8. ऋषि के भाई-बहन व चाचा के नामों के विषय में भ्रम निवारण, 9. ऋषि के महाभिनिष्क्रमण के समबन्ध में भ्रम निवारण, 10. ऋषि के महाभिनिष्क्रमण के बाद दूसरी रात्रि का निवास-स्थान कौन-सा था? 11. लाला भक्त (भगत) योगी नहीं थे, 12. डॉ. जॉर्डन्स की बात का निराकरण। और इस पुस्तक के परिशिष्ट में बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ सात विषयों को लेकर हैं। ऋषि जीवन प्रेमियों के लिए यह पुस्तक अति महत्त्व रखने वाली है।
लेखक ने प्राक्कथन में अपनी पीड़ा रखी-‘‘मैं ऐसा समझता हूँ कि ऋषि जीवनी के शोध कार्य में पण्डित लेखराम और पण्डित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के पश्चात् यदि किसी सुयोग्य व्यक्ति ने इस दिशा में शीघ्र ही शोध कार्य को आगे बढ़ाया होता तो उस समय बहुत कुछ बातें सुलभ होतीं, परन्तु ऐसा हो नहीं पाया और इस कार्य की उपेक्षा के परिणामस्वरूप आज भी हमें ऋषि जीवन विषयक कई छोटे-बड़े भ्रम एवं विवादों का निराकरण करने के लिए प्रवृत्त होना पड़ता है।’’
लेखक के विषय में डॉ. रामप्रकाश जी बड़े विश्वास पूर्वक पुस्तक के निवेदन में लिखते हैं- ‘‘वर्तमान में टंकारा निवासी वयोवृद्ध दयाल मुनि एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें महर्षि के प्रारमभिक जीवनी के विषय में सर्वाधिक सही जानकारी है। उन्होंने यह जानकारी वर्षों की सतत साधना से प्राप्त की है।’’
ऋषि जीवन के प्रारमभीक विषयों के लिए यह पुस्तक समस्त ऋषि प्रेमी, भक्तों को आनन्द देने वाली होगी व जो भी महर्षि जीवनी पर शोध करने वाले हैं उनके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। सुन्दर आवरण,छपाई व कागज से युक्त इस पुस्तक का प्रकाशन आर्य जगत् के युवा विद्वान् डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी ने करवाया है। इस पुस्तक को पाठक प्राप्त कर लेखक के शोध कार्य के दर्शन करेंगे।
– आचार्य सोमदेव