पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे
आर्यसमाज के इतिहास में पण्डित गणपतिजी शर्मा चुरु- (राजस्थान)-वाले एक विलक्षण प्रतिभावाले विद्वान् थे। ऐसा विद्वान् यदि किसी अन्य देश में होता तो उसके नाम नामी पर आज वहाँ विश्वविद्यालय स्थापित होते। पण्डित गणपतिजी को ज्ञान-समुद्र कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं। श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के शज़्दों में उनके पण्डित्य की यह कहानी पढ़िए-
‘‘पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ करने में अत्यन्त पटु थे। मैंने उनके चार-पाँच शास्त्रार्थ सुने हैं। शास्त्रार्थ करते समय उनका यह नियम था कि शास्त्रार्थ के समय उन्हें कोई किसी प्रकार की सज़्मति न दे और न ही कुछ सुझाने की इच्छा करे, ज़्योंकि इससे उनका काम बिगड़ता था। लुधियाना में एक बार शास्त्रार्थ था। पण्डितजी ने सनातनधर्मी पण्डित से कहा था-पण्डितजी! मेरा और आपका शास्त्रार्थ पहले भी हुआ है। आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ, यदि आप सहमत हों, तो वैसा किया जाए। पण्डित के पूछने पर आपने कहा-महर्षि दयानन्दजी से लेकर आर्यसमाजी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, मैं उनमें से कोई प्रमाण न दूँगा और
इस विषय पर सनातनधर्मी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, उनमें जो प्रमाण दिये हैं, आप उनमें से कोई प्रमाण न दें।
इसी प्रकार यदि आप चाहें तो जो प्रमाण आप कभी शास्त्रार्थ में दे चुके हैं और जो प्रमाण मैं दे चुका हूँ, वे भी छोड़ दें। आज सब प्रमाण नये हों। सनातनी पण्डित ने यह नियम स्वीकार नहीं किया। इससे पण्डितजी की योग्यता और स्मरणशक्ति का पूरा-पूरा परिचय मिलता है।’’