रचकर नया इतिहास कुछ
जब तक है तन में प्राण तू
कुछ काम कर कुछ काम कर।
जीवन का दर्शन है यही
मत बैठकर विश्राम कर॥
मन मानियाँ सब छोड़ दे,
इतिहास से कुछ सीख ले।
पायेगा अपना लक्ष्य तू,
मन को तनिक कुछ थाम ले॥
जीना जो चाहे शान से,
मन में तू अपने ठान ले।
ये वेद का आदेश है,
अविराम तू संग्राम कर॥
रे जान ले तू मान ले,
कर्•ाव्य सब पहचान ले।
रचकर नया इतिहास कुछ,
तू पूर्वजों का नाम कर॥
भोगों में सब कुछ मानना,
जीवन यह मरण समान है।
इस उलटी-पुलटी चाल से,
न देश को बदनाम कर॥
रचयिता—राजेन्द्र ‘जिज्ञासु
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बड़ों ने सिखायाःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु
बड़ों ने सिखायाः– मेरे प्रेमी पाठक जानते हैं कि मैं यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उन अनेक आर्य महापुरुषों व विद्वानों के प्रति कृतज्ञता व आभार प्रकट करता रहता हूँ जिन्होंने मुझे कुछ सिखाया, बनाया अथवा जिनसे मैंने कुछ सीखा। मैंने प्रामाणिक लेखन के लिये नई पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए ‘दयानन्द संदेश’ में पं. लेखराम जी तथा पूजनीय स्वामी वेदानन्द जी की एक-एक घटना दी थी। कुछ युवकों को ये दोनों प्रसंग अत्यन्त प्रेरक लगे। तब कुछ ऐसे और प्रसंग देने की मांग आई।
आज लिखने के लिये कई विषय व कई प्रश्न दिये गये हैं परन्तु दो मित्रों के चलभाष पाकर प्रामाणिक लेखन के लिए अपने दो संस्मरण देना उपयुक्त व आवश्यक जाना। श्री वीरेन्द्र ने सन् १९५७ में अपनी जेल यात्रा पर एक लेखमाला में लिखा था कि उनके साथ वहीं उनके पिता श्री महाशय कृष्ण जी व आनन्द स्वामी जी को बन्दी बनाया गया। महाशय जी की आयु अधिक थी, शरीर निर्बल व कुछ रोगी भी था। उन्हें रात्रि समय शरीर में बहुत दर्द होने से नींद नहीं आती थी । एक रात्रि शरीर दुखने से वे हाय-हाय कर रहे थे। वीरेन्द्र जी को गहरी नींद में पिता के कष्ट का पता ही न चला। आनन्द स्वामी जी वैसे ही दो-तीन बजे के बीच उठने के अभ्यासी थे। आप उठे और महाशय जी के शरीर को दबाने लगे।
महाशय जी समझे के वीरेन्द्र मेरा शरीर दबा रहा है फिर पता चला कि श्री आनन्द स्वामी जी उनकी टांगें बाहें दबा रहे हैं। आपने महात्मा जी को रोका। आप संन्यासी हैं, ऐसा मत करें। श्री स्वामी ने कहा, आप मुझ से बड़े हैं। हमारे नेता हैं। सेवा करने का मेरा अधिकार मत छीनिये।
इस घटना की जाँच व पुष्टि के लिए मैं आनन्द स्वामी जी के पास गया। आपने भी वही कुछ बताया और कहा कि महाशय जी का ध्यान बदलने के लिये मैं उन्हें हँसाता रहता, चुटकले सुनाता इत्यादि। मेरे ऐसा करने से इतिहास की पुष्टि हो गई। प्रामाणिकता को बल मिला। प्रसंग से पाठकों को अधिक ऊर्जा मिली।
स्वामी सत्यप्रकाश जी के संन्यास के पश्चात् श्री आनन्द स्वामी पहली बार तब प्रयाग गये तो आर्यों से कहा, ‘‘मैं स्वामी सत्यप्रकाश जी के दर्शन करना चाहता हूँ। उनसे मिलवा दें।’’
उन्होंने कहा, ‘‘वे आपसे मिलने आयेंगे ही।’’
श्री आनन्द स्वामी जी ने कहा, ‘‘नहीं मैं वहीं जाऊँगा।’’ उनका आग्रह देखकर समाज वाले उन्हें कटरा समाज में ले गये। महात्मा जी को देखते ही स्वामी सत्यप्रकाश उनके चरण स्पर्श करने उठे। उधर से आनन्द स्वामी उनके चरण स्पर्श करने को बढ़े। देखने वालों को इस चरण स्पर्श प्रतियोगिता का बड़ा आनन्द आया। वे दंग भी हुये।
इस घटना की जानकारी पाकर मैं महात्मा जी से मिला और कहा, ‘‘प्रयाग में स्वामी सत्यप्रकाश जी के चरण स्पर्श की अपनी घटना, आप सुनायें।’’ आपने कहा, ‘‘हमारे महान् नेता और विद्वान् पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के सपूत ने धर्मप्रचार के लिए संन्यास लिया है। मैं उनके दर्शन करने को उत्सुक था। सारी घटना सुना दी। फिर स्वामी सत्यप्रकाश जी के पास गया उनसे भी वही निवेदन किया। आपने भी घटना सुनाते हुए कहा, आनन्द स्वामी बड़े हैं, उनके शरीर में फुर्ति है। वे जीत गये। मैं हार गया।’’
पता चला कि उस समय श्री गौरी शंकर जी श्रीवास्तव वहीं थे। मैं उनके पास गया। दर्शक की प्रतिक्रिया जानी। इसी प्रकार इतिहास की सामग्री की खोज में मैंने सदा इसी ढंग से जाँच पड़ताल के लिए भाग दौड़ की। समय दिया। धन फूँका।
उतावलापना इतिहास रौंद देता हैः– किसी योग्य युवक ने अब्दुलगफूर पाजी जो धर्मपाल बनकर छलिया निकला उसके बारे में चलभाष पर कई प्रश्न पूछे। मैंने उन्हें कुछ बताया और कहा, उस पर कुछ मत लिखें। मेरे से मिलकर बात करें। आपकी जानकारी भ्रामक है। अधकचरे लेखकों ने इतिहास को पहले ही प्रदूषित कर रखा है। एक ने उसे महाशय धर्मपाल लिखा है। वह कभी महाशय धर्मपाल के रूप में नहीं जाना गया। सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने का उसने भी छेड़ा था। इतिहास रौंदने वालों ने यह तो कभी नहीं बताया।
लोखण्डे जी का चलभाषः– माननीय लोखण्डे जी ने इस्लाम छोड़कर आर्य समाज में प्रविष्ट होने वालों पर ग्रन्थ लिखने का मन बनाया। मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, ‘‘आप मौलाना हैदर शरीफ पर कुछ खोज करें।’’
उन्होंने पुनः सूफी ज्ञानेन्द्र व पं. देवप्रकाश जी पर कुछ जानकारी चाही। तब मुझे विवश होकर यह बताना पड़ा कि श्री लाजपतराय अग्रवाल से मिलें। वह बतायेंगे कि सन् १९७७ में इसी व्यक्ति ने हनुमानगढ़ समाज के उत्सव में घुसकर समय लेकर आर्यसमाज की भरपेट निन्दा की। किसी अन्य संगठन का गुणगान कर वातावरण बिगाड़ा । श्री लाजपतराय ने मुझे उसका उत्तर देने के लिए अनुरोध किया । मैंने अपने व्याख्यान में सूफी के विषैले कथन का निराकरण कर दिया। तब उसके प्रेमी संगठन के लोग मुझे पीटने को…….. मुझे कहा गया , आप भीतर कमरे मे चलिये। ये लोग आपको मारेंगे।
मैंने कहा, ‘‘जो कैरों के मारे न मरा वह इनके मारने से भी नहीं मरेगा। आये जिसका जी चाहे।’’
इसी व्यक्ति ने गंगानगर समाज में आर्यसमाज की निन्दा में कमी न छोड़ी। तब ला. खरायतीराम जी ने व मैंने उत्तर दिया।
कोटा से भी किसी ने परोपकारी में इसकी प्रशंसा में ………मैं चुप रहा। इसी सूफी ने कभी एक अत्यन्त निराधार चटपटी कहानी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के बारे गढ़कर भ्रामक प्रचार किया। स्वामी जी महाराज का तो यह कुछ न बिगाड़ सका, यह आप ही आर्यसमाज में किनारे लग गया। व्यसनी भी था। इस पर लिखने के लिए उत्सुक जन वैदिक धर्म पर इसके दस बीस लेख तो कहीं खोजकर लायें।
मैं किसी को निरुत्साहित करने का पाप तो नहीं कर सकता, परन्तु दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि जो लिखो वह प्रामाणिक, प्रेरणाप्रद, खोजपूर्ण व मौलिक हो। विरोधियों के उत्तर तो देते नहीं। जिससे न्यूज बने, कुछ भाई ऐेसे विषय ही चुनते हैं। पूज्य पं. देवप्रकाश जी के शिष्यों की खोज करके कुछ लिखो।
वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६