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परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

परोपकारिणी की स्थापना पर हर्ष बधाई

स्वामी जी को विष दिये जाने के पश्चात् जोधपुर में मृत्यु से जूझ रहे स्वामी दयानन्द की इस स्थिति की जानकारी उस राज्य से बाहर नहीं आई थी। आर्य समाज अजमेर के सदस्य और महर्षि दयानन्द के अनन्याक्त श्री ज्येष्ठमल सोढ़ा पहले व्यक्ति थे, जो जोधपुर में रुग्ण हो गये स्वामी जी महाराज से मिले थे और उनकी भयंकर अस्वस्थता की सूचना आर्य जनता को दी थी। प्रस्तुत काव्यमय बधाई उन्हीं की रचना है।                          – सपादक

अहो आज आनन्द बधाई।

विद्वज्जन एकत्र होइ कर, परोपकारिणी सभा बनाई।।1।।

श्रीमत् परमहंस परिव्राजक, स्वामी दयानन्द कृत हित आई।।2।।

कोउ स्वयं धरि परिश्रम आपए कोउ देते प्रतिनिधि पहुँचाई।।3।।

तन मन धन अपनो सरवस तेहि, स्वामि दियो तिनको संभलाई।।4।।

वे हि प्रण नियम निवाहन के हित, निज-निज समति देत जनाई।।5।।

समझि महान् लाा या जग में, विद्या वृद्धि करें एकताई।। 6।।

श्रीमद्दयानन्द आश्रम कहि, पढ़न काज चटशाल खुलाई।।7।।

बालक पढ़ें चतुर वर्णों के, प्रबन्धयुत प्रारभ पढ़ाई।।8।।

आर्यसमाजें और भद्रजन, परोपकारिणी करत सहाई।।10।।

सुनहु मित्र अजमेर नगर के, डगर द्वार लिख-लिख चिपकाई।।11।।

श्रोताओं को देत निमंत्रण, आर्य्यसमाज हृदय हुलसाई।।12।।

विज्ञापन छपवाइ मनोहर, देइं भद्र प्रतिदिवस बँटाई।।13।।

सत उपदेशन के जो ग्राहक, सुनउ आइ इत नित चितलाई।।14।।

कोऊ तो भाषत देशोन्नति को, कोउ कह आप्त धर्म दरसाई।।15।।

काहू के मन देश का दुखड़ा, कह पुकार दोउ भुजा उठाई।।16।।

कोउ विद्या इतिहास बड़न के, पुरुषारथ को दे जताई।।17।।

कोउ योग, कोउ तत्त्व व्याकरण, ब्रह्मदेश की करत बड़ाई।।18।।

क ोउ ज्योतिष, कोउ शिल्पकृषि, कोउ गोरक्षा हित देत दुहाई।।19।।

अहो भ्रातृगण सुनउ श्रवण कर, बार-बार मनु-तन नहीं पाई।।20।।

विद्यारसिको ओ धनाढयो, अजहू किमि सोवत अलसाई।।21।।

बनो सहाई दीर्घ दृष्टि दे, तुमरि सन्तति हेतु भलाई।।22।।

यामें जो कुछ संशय होवे, शंका किमि नहीं लेउ मिटाई।।23।।

तुम हित वेद भाष्य किय स्वामी, धन-धन दयानन्द ऋषिराई।।24।।

सार गहो जे आर्य्य ग्रन्थ हैं, तजहू परस्पर कलह लड़ाई।।25।।

सुफल जन्म कसि करहू न अपनो धृक वे जन नहीं तजत ढिठाई।।26।।

उत्तम पुरुष वही जग मांही, परमारथ हित सुमति उपाई।।27।।

कहत जेठमल दास सबन को, बना भजन यह दियो सुनाई।।28।।

तृतीय परोपकारिणी सभा

लखि कर करुणा भारत भू की, मिलि सज्जन सुमति प्रचार करें।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी, धन विद्या हेतु हुलास करें।।

 

कोउ आवत पूरब परिचम से, उत्तर दक्षिण से विद्वज्जन।

प्रतिनिधि बन पर उपकारिणी के, जु सभा जुर सय करें स्थापन।

सतधर्म सनातन परिपाटी, जो सब मनुजन की सुधवर्धन।

पुनि पाठन पठन प्रचारे षोडश, संस्कार को संशोधन।।

जगदीश्वर अब सबके मन की, बेगहि पूरण अभिलाष करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 1।।

 

श्री स्वामी दयानन्द स्वर्ग गए, जिनको है व्यतीत चतुर्थ बरस।

स्वीकार कियो निज तन मन धन, महद्राजसभा सन्मुख सरवस।।

मुद्रांकित कर गए इह विधि हो, पर स्वारथ हित व्यय रात दिवस।

विद्यालय हो दीनालय हो, वेदादि पढ़ायं प्रचार सुयश।।

तईस पुरुष दस द्वै मासों, में नियम प्रत्येक विकाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन घड़ी धन विद्या.।। 2।।

उत्साह बढ़ाय सदा आवत, श्रद्धायुत द्रव्य प्रदान करें।

कोउ भूमि देई अति हर्ष-हर्ष, उत्तेजित कार्य्य महान् करें।।

जित देखो उत वेदध्वनि है, नव-नव व्यायान बखान करें।

प्रफुलित सब आरज पुरुष हिये, देशोन्नति के गुनगान करें।।

आनन्द दयानन्द आश्रम की, यह नीव थपी कैलाश करें।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी विद्या.।। 3।।

सिरमौर उदयपुर महाराणा भेजे कवि श्यामल, मोहन को।

यह भार लियो मुसदाधिपति अपने पर कार्य्य विलोकन को।।

शाहपुरेश बाग किये अर्पन धन-धन उनके उत्साहन को।

मोहन निज हाथन अस्थि धरी, स्वामी के कौल निबाहन को।।

उनतीस दिसबर (1887) चढ़तो दिन उपमा ये जेठू दास करे।।

धन-धन यह दिवस धन-धन यह घड़ी धन विद्या.।। 4।।

 

दयानन्द-आश्रम

अब तो कछु या भारत कीदशा जगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।।

इक भये महात्मा सरस्वती प्रणधारी।

सारी आयू-पर्य्यन्त रहे ब्रह्मचारी।।

पढ़ वेद चर्तुदिशि विद्या-बेल पसारी।

लह धर्म सनातन देशाटन अनुहारी।।

लखि भारत को अति हीन मलीन भिखारी।

उपदेश यथावत दियो बेग विस्तारी।।

सुन लाखन जन तन मन धन बुद्धि संवारी।

दौड़ महाराज, आर्य्यकुल-कमल-दिवाकर,

मेदपाट, सिरमौर सज्जनसिंह, महाराणा निज निकट बुलाय।

मनुस्मृति, पढ़ी सब बिदुर प्रजागर ध्यान लगाय।।

वायोगी को कछु दरस्यो योग मंझारी।

महाराज, कह्यो मम जीतेजी जिमि संरक्षण हो,

मृत्यु व्यतीते है सर्वस तुमको अधिकार।

यही दक्षिणा, वेद विद्या का जहं तहं होय प्रचार।।

दोहा त्रयोविंशति भद्रजन हैं मुझको स्वीकार।

संस्कार मम देह को कीजो विधि अनुसार।।

चौपाईअगर तगर कर्पूर मंगइयो, वेदी रच कर यज्ञ करैयो।

गाड़ियो न जल मांहि बहइयो, ना कहुं कानन में फिकवैयो।।

छंदचार मन घृत मँगाकर पुनि तपा स्वच्छ छनाइयो,

चिता चन्दन पूरियो दो मन अवश्य हि लाइयो।

काष्ठ दश मन चुन जुगत से दग्ध तन करवाइयो,

वेदमन्त्रों की ऋचा उच्चारते मुख जाइयो।।

वा कर्म-क्रिया को सबकी रूचि उमगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 1।।

 

सुनियो अब भारतवर्ष दयानन्द को है,

जो परोपकारिणी सभा रची वह यह है।

महिमहेन्द्र फतेहसिंह उदय-सूर्य चमको है,

संरक्षण पद निज धीर वीर धारो है।।

उपसभापति पद मूलराज थरप्यो है,

कविराज मंत्री श्यामलदास बन्यो है।

इक द्वितीय मन्त्री को पद शेष रह्यो है,

दौड़- महाराज, पंडिया मोहनलालजी, विष्णुलालजी, मथुरावासी,

उपमन्त्री पद हृदय लगाय।

धारण कीन्हों, कार्य्यवाही करते नित प्रेम बढ़ाय।

अष्टादश मुय सभासद सुन्दर सोहें,

महाराजाधिराजा नाहरसिंह शाहपुराधीश,

अजमेर बगीचो, दियो आश्रम हेत चढ़ाय।

ताम्रपत्रिका सुघड़ बनवाय, करी अर्पण लिखवाय।।

दोहाअजयमेरु उत्तर दिशा अन्नासागर पाल।

या सम बड़ी न भूमिका घाट-भूमि को थाल।।

चौपाई–  धन्य धरनि सरबर बड़भागी,

धन्य क्षेत्र पुष्कर अनुरागी।।

काय दयानन्द स्वामी त्यागी,

पुनः नींव आश्रम की लागी।।

छंद मध्य भू खुदवा गढ़ा अनुमान ले इक ताल को,

कर दियो प्रारभ कछु दरसा पुरातन चाल को।

अस्थि लेकर मसूदापति सौंप मोहनलाल को,

इक रुदन दूजो हर्ष है वरनूं कहा या हाल को।।

उस महर्षि की मानसी अग्नि सुलगी है,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 2।।

प्रतिवर्ष सभा जुड़ आ इत सुमति उपावे,

कोइ प्रतिनिधि युत अपनो सन्देश भिजावे।

रावत अंसीद अर्जुनसिंह वर्मा आव,

वेदला ततसिंह राव राय पहुँचावे।।

महाराजा श्री गजसिंह विचार प्रगटावे,

श्रीमान् राव श्री बहादुरसिंह हरखावे।

स्वामी हित पूर्ण प्रेम प्रीति दरसावे,

दौड़ महाराज नृपति महाराणाजी श्री फतेहसिंह जी देलवाड़ा,

लिखो नाम मैं देऊं गिनाय,

सुपरिन्टेन्डेट, सु पंडित सुन्दरलाल विचार जनाय।

जयकृष्णदास जी.सी.एस.आई. बतलावे,

महाराज, कलेक्टर डिप्टी जो बिजनौर,

और लाहौर के सांईदास कहाय।

जगन्नाथजी फर्रुखाबादी दुर्गासहाय आय।।

दोहाकमसरियेट गुमाश्ता छेदीलाल मुरार,

सेठ जु निर्भयरामजी कालीचरण उचार।

चौपाई राव गुपाल देशमुख मेबर,

महादेव गोविन्द जज्जवर।

दाना माधवदास अकलवर,

पण्डित श्यामकृष्ण प्रोफेसर।।

छंद सभासद ऊपर कहे है, सभा  परउपकारिणी।

वैदिक सुशिक्षा दे बनी है, अवश्य देश सुधारणी,

आर्यवर्त अनाथ दीनों के जो कष्ट निवारिणी।।

दयानन्द की भक्त बन स्वीकार प्रति विस्तारिणी,

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 3।।

स्वीकार पत्र के वचन सभा बरतावे

यदि उचित होय तो नियम घटाय बढ़ावे।।

समतिसब आर्य्यसमाजों से मँगवावे

सभव हो सो कर पृथक् और ठहरावे।।

वैदिक-यंत्रालय को हिसाब अजमावे

श्रद्धायुत चन्दा निज-निज करन चढ़ावे।।

त्रय सभासदों से अधिक न घटने पावे।

दौड़ महाराज जहाँ लगि उनके पद पर सय भद्रजन,

धर्मध्वजी वा आर्यपुरुष कोई नियत न थाय।

पक्षपात तज अधिक पक्षानुसार बहु रचें उपाय।।

श्री सभापति की समति द्विगुण मिलावे।

महाराज त्याग सब विरोध जो कुछ झगड़ा,

टंटा उपजे बाको आपस में लेवें निबटाय।

न्यायालय की हो सके तहाँ तलक नहीं गहें सहाय।।

दोहा स्वामी दयानन्द लिख गये अन्त समय यह पत्र।

तेहि प्रण पूरण करन हित सभा होइ एकत्र।।

चौपाईधन्य दयानन्द श्रुति पथ चीन्हो,

भारत हित तन मन धन दीन्हो।

धन दृष्टान्त कह्यो सो कीनो,

मन वच काय सुयश जग लीन्हो।।

छन्दअजमेर केसरगंज में चटसाल यह बनवायगी,

राज-भाषा संस्कृत जिसमें पढ़ाई जायगी।

करहु चंदा सकल जन मिलि लाभ यह पहुँचायेगी,

विदेशन विद्या गई जो बहुरि घर क ो आयगी।।

इक धर्म वृद्धि कहे जेठू सदा सगी है।

श्री दयानन्द-आश्रम की नींव लगी है।। 4।।

चेतावनी

बिन कारण वैर अरु निंदा को, मत कीजिये सज्जन आपस में,

अभिमान तजो सन्मान लहो, कछु ज्ञान विचारो अंतस में,

जंह-तंह रहो प्रीति बढ़ा करके, मन धरिये धीरज अरु जस में,

यह अर्ज करे सोढा जेठू, मद लोभ, क्रोध रखिये बस में।।

सद्गुरु की महिमा

सद्गुरु की वाणी, अमृत रस का प्याला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।

पहचान उसे जो तुझ को चेताता है।

जैसा जो कुछ तूं करे वो भुगताता है।।

लखि रचना क्यों कर्ता को विसराता है।

अज्ञान नास्तिक कैसे कहलाता है।।

वह अन्तर्यामी घट-घट का रखवाला। पी प्रेम.।।1।।

गुरु ऐसा कर जो सदा रहे ब्रह्मचारी।

उपदेश करे जैसा वो बर्त्ते सारी।।

विद्या वृद्धि हित करे तपस्या भारी।

दे सत्या-सत्य जताय भक्त हितकारी।।

कण्ठित हो चतुरवेद मन्त्रों की माला। पी प्रेम.।।2।।

गुरु प्रथम निरंजन, प्रणाम बारबारा।

प्रणवूं पुनि ब्रह्म ऋषिन वच सुपथ संवारा।।

वेदानुकूल आचरण सभी को प्यारा।

जो यथायुक्त धारे वह गुरु हमारा।।

दे खोल हृदय के अन्धकार का ताला। पी प्रेम.।।3।।

गुरु मात पिता, आचार्य्य अतिथि कहलावे।

गुरु परोपकार हित अपनी देह तपावे।।

गुरु दयानन्द सा बीड़ा कौन उठावे।

को वेद भाष्य की घर-घर कथा सुनावे।।

यों कहें नमस्ते जेठू भोला भाला।

पी प्रेम ध्यान से रहे न गड़बड़ झाला।।4।।