पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः-
पं. दीनदयाल उपाध्याय एक त्यागी, तपस्वी व सरल नेता थे। उन जैसा राजनेता अब किसी दल में नहीं दिखता। वह जनसंघ के मन्त्री के रूप में जगन्नाथपुरी गये। वहाँ के मन्दिर में दर्शन करने पहुँचे तो पुजारियों ने चप्पे-चप्पे पर यहाँ पैसे चढ़ाओ, यहाँ भेंट धरो, इसका यह फल और बड़ा पुण्य मिलेगा आदि कहना शुरू किया। जब दीनदयाल जी से बाहर आने पर पत्रकारों ने मन्दिर की इस यात्रा व भव्यता के बारे में प्रश्न पूछे तो आपका उत्तर था, ‘‘जब मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ तब पक्का सनातन धर्मी था, अब बाहर निकलने पर मैं कट्टर आर्यसमाजी हूँ।’’ उनका यह वक्तव्य तब पत्रों में छपा था, जिसे उनके नाम लेवा अब छिपा चुके हैं, पचा चुके हैं। हिन्दू समाज के महारोगों की औषधि केवल दीनदयाल जी की यह स्वस्थ सोच है। दुर्भाग्य से हिन्दू अपने रोगों को रोग ही नहीं मानता।