ओ३म्
मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !
जिस प्रकार प्राणों के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म (नैतिक आचरण) के बिना मनुष्य का भी कोई महत्त्व नहीं।
धर्म आचरण की वस्तु है।धर्म केवल प्रवचन और वाद-विवाद का विषय नहीं।केवल तर्क-वितर्क में उलझे रहना धार्मिक होने का लक्षण नहीं है।धार्मिक होने का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का धर्म पर कितना आचरण है। व्यक्ति जितना-जितना धर्म पर आचरण करता है उतना-उतना ही वह धार्मिक बनता है।’धृ धारणे’ से धर्म शब्द बनता है, जिसका अर्थ है धारण करना।
तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि के अनुसार ―
*धर्मं चर !*―(तै० प्रथमा वल्ली, ११ अनुवाक)
अर्थात् तू धर्म का आचरण कर !
इसमें धर्म का आचरण करने की बात कही गई है, धर्म पर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद करने की बात नहीं कही गई ।
निर्व्यसनता नैतिकता को चमकाती है।आध्यात्मिकता सोने पर सुहागे का काम करती है।नैतिकता+निर्व्यसनता+आध्यात्मिकता का समन्वय ही वास्तव में मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
धर्म मनुष्य में शिवत्व की स्थापना करना चाहता है।वह मनुष्य को पशुता के धरातल से ऊपर उठाकर मानवता की और ले जाता है और मानवता के ऊपर उठाकर उसे देवत्व की और ले-जाता है।यदि कोई व्यक्ति धार्मिक होने का दावा करता है और मनुष्यता और देवत्व उसके जीवन में नहीं आ पाते, तो समझिए कि वह धर्म का आचरण न करके धर्म का आडम्बर कर रहा है।
*मनु महाराज के अनुसार धर्म की महिमा*
वैदिक साहित्य में धर्म की बहुत महिमा बताई गई है।मनु महाराज ने लिखा है―
*नामुत्र हि सहायार्थं पितामाता च तिष्ठतः ।*
*न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।*
―(मनु० ४/२३९)
*अर्थात्―*परलोक में माता, पिता, पुत्र, पत्नि और गोती (एक ही वंश का) मनुष्य की कोई सहायता नहीं करते।वहाँ पर केवल धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है।
*एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।*
*एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।*
―(मनु० ४/२४०)
*अर्थ―*जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है।अकेला ही पुण्य भोगता है और अकेला ही पाप भोगता है।
*एक एव सुह्रद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।*
*शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।*
―(मनु० ८/१७)
*अर्थ―*धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी आत्मा के साथ जाता है; अन्य सब पदार्थ शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।
*मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।*
*विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।।*
―(मनु० ४/२४१)
*अर्थ―*सम्बन्धी मृतक के शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर फेंककर विमुख होकर चले जाते हैं, केवल धर्म ही आत्मा के साथ जाता है।
*धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम् ।*
*परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।।*
―(मनु० ४/२४३)
*अर्थ―*जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है, जिसका धर्म के अनुष्ठान से पाप दूर हो गया है, उसे प्रकाशस्वरुप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।
धर्म के आचरण पर मनु महाराज ने बहुत बल दिया है―
*अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।*
*हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।*
―(मनु० ४/१७०)
*अर्थ―*जो अधर्मी, अनृतभाषी, अपवित्र व अनुचित रीत्योपार्जक तथा हिंसक है, वह इस लोक में सुख नहीं पाता।
*न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।*
*अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ।।*
―(मनु० ४/१७१)
*अर्थ―*धर्माचरण में कष्ट झेलकर भी अधर्म की इच्छा न करे, क्योंकि अधार्मिकों की धन-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट होती देखी जाती है।
*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।*
*शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।*
―(मनु० ४/१७२)
*अर्थ―*संसार में अधर्म शीघ्र ही फल नहीं देता, जैसे पृथिवी बीज बोने पर तुरन्त फल नहीं देती।वह अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता की जड़ों तक को काट देता है।
*अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।*
*ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।*
―(मनु० ४/१७४)
*अर्थ―*अधर्मी प्रथम तो अधर्म के कारण उन्नत होता है और कल्याण-ही-कल्याण पाता है, तदन्नतर शत्रु-विजयी होता है और समूल नष्ट हो जाता है।
*धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।*
*तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।*
―(मनु० ८/१५)
*अर्थ―*मारा हुआ धर्म मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया हुआ धर्म मनुष्य की रक्षा करता है।इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ऐसा न हो कि कहीं मारा हुआ धर्म हमें ही मार दे !
*वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।*
*वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ।।*
―(मनु० ८/१६)
*अर्थ―*ऐश्वर्यवान् धर्म सुखों की वर्षा करने वाला होता है।जो कोई उसका लोप करता है, देव उसे नीच कहते हैं, इसलिए मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।
*चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।*
*चलाचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।*
*अर्थ―*धन, प्राण, जीवन और यौवन―ये सब चलायमान हैं। इस चलायमान संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल है।
प्रश्न उठता है कि जिस धर्म की इतनी महिमा कही गई है, वह धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ में मनु महाराज का श्लोक ध्यान देने योग्य है―
*धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।*
*धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।*
―(मनु० ६/९२)
*अर्थ―*धीरज, हानि पहुँचाने वाले से प्रतिकार न लेना, मन को विषयों से रोकना, चोरी न करना, मन को राग-द्वेष से परे रखना, इन्द्रियों को बुरे कामों से बचाना, मादक द्रव्य का सेवन न करके बुद्धि को पवित्र रखना, ज्ञान की प्राप्ति, सत्य बोलना और क्रोध न करना―ये धर्म के दस लक्षण हैं।
भूपेश आर्य