कृतज्ञता तथा अकृतज्ञता
कृतज्ञता के भाव से विभूषित मनुष्य जीवन में उन्नति करता है और आगे बढ़ता है। इसके विपरीत आचरण करने से जीवन में हानि ही होती है। आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान् आचार्य श्री भद्रसेनजी अजमेरवाले अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में बड़े रुग्ण रहे। वे इस दृष्टि से बड़े भाग्यशाली थे कि उनके सुपुत्रों ने वृद्धावस्था में उनकी बहुत सेवा की।
आचार्यजी को कज़्पन का रोग हो गया था। एक दिन उनके सुपुत्र कैह्रश्वटन देवरत्नजी ने हँसी-विनोद में उनसे प्रश्न किया-‘‘पिताजी आपने इतनी योगविद्या सीखी, जीवनभर उसका अज़्यास करते रहे, सैकड़ों लोगों के रोगों का निदान किया फिर आपका शारीरिक स्वास्थ्य ऐसा ज़्यों हो गया?’’
आचार्यजी ने कहा-‘‘पहले भी कई व्यक्तियों ने यह प्रश्न पूछा है।’’ आचार्यजी ने गज़्भीर मुद्रा में बताया कि उन्होंने चार वर्ष तक स्वामी कुवलयानन्दजी से योगविद्या सीखी। आश्रम भी आचार्यजी ही सँभालते थे। जब गुरु से विदा होने लगे तो गुरुजी ने कहा कि वे तो आचार्यजी को ही आश्रम सौंपना चाहते हैं, परन्तु शिष्य ने कहा कि वह तो जीवन का लक्ष्य वेद-प्रचार, ऋषि मिशन की सेवा बना चुके हैं। गुरुजी ने बड़ा आग्रह किया, परन्तु आचार्य भद्रसेनजी का एक ही उज़र था कि उनके जीवन का लक्ष्य ऋषि दयानन्द के मिशन की सेवा है और कोई कार्य नहीं।
आचार्यजी का कथन था कि चार वर्ष जिससे योगविद्या सीखी, जिसे गुरु माना, उसकी बात न मानकर, मैंने उनके मन को कितना दुःख दिया, यह रोग तथा मेरी यह अवस्था उसका ही परिणाम है।
यह तो है इस घटना का एक पक्ष। यह है एक पूज्य विद्वान् के मन में अपने योग-गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव।
अब इसके आगे की कहानी सुनिए। आचार्यजी ने कहा- ‘‘इन पाँच वर्षों में किसी आर्यसमाजी ने आकर मेरी सुध नहीं ली। यदि आप लोग (सन्तान) सुयोग्य, शिष्ट व सुपात्र न होते, तुम लोग
मेरी सेवा न करते तो मैं किसी एक मकान के एक कमरे में पड़ापड़ा सड़-सड़ कर मर जाता।’’
ये शज़्द प्रत्येक सहृदय व्यक्ति को झकझोर देनेवाले हैं।
आर्यसमाज के लोगों को अपनी इस कमी को दूर करना चाहिए। जो संस्था, जो देश, जो समाज अपने सेवकों के दुःख का भागीदार नहीं बनता, वृद्धावस्था में उनकी सुध नहीं लेता, उसे अच्छे सेवकों व सपूतों से वञ्चित होना पड़ता है। पूज्य पुरुषों की सुध न लेना कृतज्ञता के अभाव को प्रकट करना है।