कार्य करने का निराला ढंग
ऋषि दयानन्द जी महाराज के पश्चात् वैदिक धर्म की वेदी पर सर्वप्रथम अपना बलिदान देनेवाले वीर चिरञ्जीलालजी एक बार कहीं प्रचार करने गये। वहाँ आर्यसमाज की बात सुनने को भी कोई
तैयार न था। आर्यसमाज के आरज़्भिक काल के इस प्राणवीर ने प्रचार की एक युक्ति निकाली।
गाँव के कुछ बच्चे वहाँ खेल रहे थे। उन्हें आपने कहा-देखो आप यह मत कहना-‘‘अहो! चिरञ्जी मर गया’’। बच्चों को जिस बात से रोका जाए वे वही कुछ करते हैं। वे ऊँचा-ऊँचा यही शोर मचाने लगे। वीर चिरञ्जीलाल कहते ऐसा मत कहो। वे और ज़ोर से यही वाज़्य कहते। तमाशा-सा था और बच्चे साथ जुड़ते गये। फिर कहा अच्छा मुझे ‘नमस्ते’ मत कहो। तब नमस्ते का
प्रचार भी बलिदान माँगता था। बच्चों ने सारा ग्राम ‘नमस्ते’ से गुँजा दिया।
थोड़ी देर बालक चुप करते तो चिरञ्जीलाल अपनी ओजस्वी व मधुरवाणी से अपने गीत गाते। उनका कण्ठ बड़ा मधुर था। वे एक उच्चकोटि के गायक थे। उनकी सुरीली आवाज लोगों को
खींच लेती। भजन गाते, भाषण देते। इस प्रकार अपनी सूझ से वीर चिरञ्जीलालजी ने वहाँ वैदिक धर्म के प्रचार का निराला ढंग निकाला।
स्मरण रहे कि यही चिरञ्जीलाल आर्यसमाज का पहला योद्धा था जिसको अपनी धार्मिक मान्यताओं के लिए कारावास का कठोर दण्ड भोगना पड़ा। तब मुंशीरामजी (स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज) ने इनका केस बड़े साहस से लड़ा था।