झट क्षमा माँग-ली
जब दयानन्द मठ की स्थापना का विचार स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के मन में आया तो आपने आर्य-पत्रों में अपनी योजना रखी।
इस पर अनेक आर्य नेताओं व विद्वानों ने जहाँ आपके विचारों का समर्थन किया, वहाँ कुछ एक ने विरोध में भी लेख दिये। ऐसे लोगों में एक थे स्वर्गीय श्री पण्डित भीमसेनजी विद्यालंकार। आप तब पंजाब सभा के मन्त्री थे। सभा के पत्र में आपका एक लेख दयानन्द मठ के विषय पर छपा।
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तब सार्वदेशिक सभा के कार्यकर्ज़ा प्रधान थे। आपने पण्डित भीमसेनजी के लेख का उज़र देते हुए एक लेख में लिखा-सभा मन्त्रीजी ऐसा लिखते हैं आदि आदि। इस
पर पण्डित भीमसेनजी का लेख छपा कि ये मेरे निजी विचार थे।
मैंने सभामन्त्री के रूप में ऐसा नहीं लिखा। ज़्या स्वामीजी के लेख को मैं सार्वदेशिक के कार्यकर्ज़ा प्रधान का लेख जानूँ? पण्डितजी ने स्वामीजी के लेख पर इस आधार पर बड़ी आपज़ि की।
श्रीस्वामी ने इस पर एक और लेख दिया। उसमें आपने लिखा कि चूँकि लेख सज़्पादकीय के पृष्ठ पर छपा था-जिस पृष्ठ पर सभामन्त्री के नाते वे यदा-कदा लिखा करते थे, अतः मैंने इसे
सभामन्त्री का लेख जाना। मेरा जो भी लेख सार्वदेशिक के अधिकारी के रूप में होगा, उसके नीचे मैं कार्यकर्ज़ा प्रधान लिखूँगा।
मैंने पण्डितजी के लेख को सभामन्त्री का लेख समझा, यह मेरी भूल थी। इसलिए मैं पण्डितजी से क्षमा माँगता हूँ।
कितने विशाल हृदय के थे हमारे महापुरुष। उनके बड़ह्रश्वपन का परिचय उनके पद न थे अपितु उनका व्यवहार था। वे पदों के कारण ऊँचे नहीं उठे, उनके कारण उनके पदों की शोभा थी।