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‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामैं परोपकारी का आजीवन सदस्य वर्षों से हूँ। पत्रिका पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। बहुत कुछ अच्छी जानकारी मिलती है। धन्यवाद वसन्त

(क) महर्षि दयानन्द के अनुसार- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– संसार में, एक व्यक्ति किसी के प्रति अपराध करता है, किन्तु क्षमा माँगने पर, पश्चात्ताप करने पर प्रथम व्यक्ति उसको क्षमा कर देता है, क्या ईश्वर को इसी प्रकार क्षमा नहीं कर देना चाहिए? कहते हैं- वह बड़ा दयालु है, तो उसको दया क्यों नहीं आती?

समाधान– (क) महर्षि दयानन्द की वैदिक मान्यतानुसार कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किये हुए पाप कर्मों को ईश्वर क्षमा नहीं करता, वह तो न्यायपूर्वक उन कर्मों का फल यथावत् देता है। परमेश्वर के द्वारा पाप कर्म क्षमा न करने पर आपकी जिज्ञासा है कि फिर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना क्यों करें? इस विषय में हम यहाँ पहले महर्षि दयानन्द के विचार लिखते हैं-

‘प्रश्न- परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए वा नहीं?      उत्तर- करनी चाहिए।

प्रश्न क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़, स्तुति प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर नहीं।

प्रश्न तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर उसके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न क्या है?

उत्तर स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण कर्म स्वभाव का सुधरना। प्रार्थना से निराभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’’ स.प्र. 7।

यहाँ महर्षि के मतानुसार स्तुति प्रार्थना से पाप क्षमा तो नहीं होंगे, किन्तु स्तुति-प्रार्थना करने के अन्य अनेक लाभ बताए हैं। इन अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना आवश्य करें, करनी चाहिए। हम मनुष्य जो लौकिक कार्य करते हैं, वह भी लाभ ही के लिए करते हैं। किसी कार्य को हमने पाँच लाभ प्राप्त करने के लिए प्रारभ करने का विचार किया। विचार करने पर पता लगा कि इस कार्य से पाँच लाभ न होकर, चार ही लाभ होंगे और जो लाभ होंगे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। ऐसी स्थिति में विचारशील व्यक्ति को क्या पाँच लाभों में से एक लाभ न मिलता देखकर, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए या करना चाहिए? बुद्धिमान् व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य को छोड़ेगा नहीं, अपितु चार लाभ के लिए अवश्य करेगा। ऐसे ही ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से पाप छूटने वाला लाभ तो नहीं हो रहा, किन्तु अन्य बहुत से सद्गुण रूप सदाचार प्राप्त हो रहे हैं, जिनके प्राप्त होने पर पाप कर्म करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है। क्या ऐसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, रूप, कर्म को छोड़ना चाहिए? तो इसका प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही उत्तर देगा कि ऐसे कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए गुणों में प्रीति, अपने गुण कर्म स्वभाव को सुधारने, निरभिमानता, उत्साह और ईश्वर का सहाय प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए।

– संसार में किसी व्यक्ति के प्रति किये गये अपराध को व्यक्ति सहन कर, उस अपराध को करने वाले अपराधी को क्षमा कर देता है। यदि क्षमा करता है तो वह धर्म का पालन कर रहा है। जब हम व्यक्तिगत हानि, अपराध, अपमान आदि के होने पर किसी को क्षमा करते हैं, तो यह उचित है, यह धर्म कहलायेगा, जो महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ कहा है। यदि व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय अपराधी को क्षमा करता है, तब वह धर्म न होकर अधर्म हो जायेगा, अन्याय हो जायेगा।

ऐसे ही न्यायकारी परमेश्वर स्वअपराधियों को सहन करने वाला है, क्षमा करने वाला है, जो कोई परमेश्वर को गाली देता है, उसको छोटा मानता है, उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को अपने प्रति किये इस दुर्व्यवहार को सहन करता है, क्षमा करता हैं, किन्तु जब व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन न कर, पाप कर्म करता है अर्थात् शरीर, मन, वाणी से दूसरे की हानि करता है, तब न्यायकारी परमात्मा उसको क्षमा न कर दण्डित करता है। यह उसकी दया है, दयालुपना है। यदि परमेश्वर ऐसा न करे तो व्यक्ति अधिक-अधिक पाप कर्म कर अधिक-अधिक अधोगति को प्राप्त हो जावे। जब परमात्मा उसके पाप कर्म का फल देता है, तो फल भोगने से पाप क्षीण होते हैं, यह परमेश्वर की दया नहीं तो क्या है। उसको पाप कर्मों को भुगा कर फिर से मनुष्य शरीर देकर उन्नति का अवसर देना- इसमें परमात्मा की दया ही तो द्योतित हो रही है। परमात्मा तो दया का भण्डार है, हम अज्ञानी लोग उसकी दया को समझ नहीं पाते, यह हमारा दोष है।