ओ३म्
‘सूक्ष्म ईश्वर स्थूल न होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
संसार के अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और बहुत से ऐसे भी है जो ईश्ष्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। आंखों से दिखाई न देने के कारण वह ईश्वर की सत्ता से इनकार कर देते हैं। इन भाइयों को यह नहीं पता की सूक्ष्म पदार्थ आंखों से देखे नहीं जा सकते। क्या हम वायु और जल के एक अणु वा इसके दो तत्वों हाइड्रोजन व आक्सीजन के परमाणुओं को देख पाते हैं? कोई भी वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले परमाणुओं सहित वायु व अन्य सूक्ष्म पदार्थों के अस्तित्व से इनकार नहीं करता। यदि वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले अनेक पदार्थों को मान सकते हैं तो फिर ईश्वर पर ही यह शर्त लगाना हमें अल्प बुद्धि वालों का ही कार्य प्रतीत होता है। हमने किसी अज्ञात व्यक्ति को एक पत्र लिखा और डाक से भेज दिया। पत्र पाने वाला हमें देख नहीं रहा है। हमें जानता भी नहीं है। परन्तु वह पत्र को पढ़कर हमें हमारे पते पर उसका उत्तर भेज देता है। उसे पत्र देखकर ही हमारी सत्ता का विश्वास हो जाता है। हमने पत्र भेजने वाले को नहीं देखा और न उसने हमें देखा परन्तु एक दूसरे की सत्ता को दोनों स्वीकार करते हुए आपस में पत्रव्यवहार करते हैं। यहां हमारा पत्र व उसमें लिखी बातें ही हमारे अस्तित्व के होने का प्रमाण है। इसे लक्षण प्रमाण कह सकते हैं। पत्र लक्षण है हमारे विद्यमान होने का। यदि हम न होते तो पत्र भेजा ही नहीं जा सकता था। इसी प्रकार संसार में भिन्न–भिन्न पदार्थों की रचना को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान व प्रत्यक्ष होता है। सूर्य को देखकर इसको बनाने व धारण करने वाले का, इसी प्रकार से पृथिवी, पृथिवी पर विद्यमान सभी पदार्थ और समस्त जड़ व जंगम जगत एक ईश्वर के होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्वार्थी, अज्ञानी, मूर्ख, हठी, दुराग्रही व अविद्या से ग्रस्त लोग दूसरे मनुष्य के सत्य को भी असत्य ही ठहराते हैं और अपने असत्य को सत्य मान कर व्यवहार करते व दूसरों को भ्रमित कर उसमें फंसाने का काम करते हैं। यही स्थिति हमें ईश्वर को न मानने वालों में से अधिकांश शिक्षित लोगों की लगती है। उनके पास विवेक की कमी है और वह सब मिथ्या प्रचार के शिकार हैं।
आईये, विचार करते हैं कि यदि ईश्वर न होता तो क्या हमारे इस दृश्य संसार का अस्तित्व होता? हम व वैज्ञानिक जानते हैं कि यह संसार जड़ पदार्थों के परमाणुओं से मिलकर बना है। भिन्न-भिन्न तत्वों के सूक्ष्म परमाणु मिलकर सूक्ष्म अणु बनाते हैं और उन अणुओं की घनीभूत अवस्था यह दृश्य पदार्थ होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सृष्टि के उपादान कारण इन परमाणुओं और उन परमाणुओं से अणुओं को किसने बनाया? किसको पता था कि इस सृष्टि में मनुष्य व अन्य प्राणी जन्म लेंगे, वह जल, वायु, अन्न, दूध, फल, मेवे आदि का सेवन कर जीवित रहेंगे, इसलिये उनके लिए आवश्यक सभी पदार्थ बनाने होंगे। यह सोचने व योजना बनाने का काम जड़ पदार्थ कदापि नहीं कर सकते। यह कार्य केवल चेतन पदार्थ वा सत्ता द्वारा ही सम्भव होता है। ‘‘ज्ञान” जड़ पदार्थों का गुण नहीं है। जड़ता और चेतन गुण परस्पर विरोधी होते हैं। दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ है। यह एक दूसरे से नहीं बनते अपितु जड़ पदार्थों का कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति है। चेतन पदार्थों में आने वाले जीवात्मा और ईश्वर अनादि, अजन्मा व नित्य पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा चेतन पदार्थ होने के कारण ही इनमें ज्ञान होता है। ईश्वर अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशतक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक और सच्चिदानन्दस्वरूप है। अनादि होने से उसने एक बार नहीं, सौ व हजार बार नहीं अपितु अनन्त बार इसी प्रकार की सृष्टि को बनाया व धारण कर संचालन किया है। यदि वह न बनाता तो यह हमारी सृष्टि न बनती। प्रलय अवस्था अर्थात् ब्रह्म रात्रि में में ईश्वर इस सम्पूर्ण सृष्टि को 4.32 अरब वर्षों तक नहीं बनाता है तो यह नहीं बनती। परमाणुओं की पूर्व अवस्था सत्व, रज व तम अवस्था में यह प्रकृति सूर्य न होने के कारण घोर अन्धकार में रहती है। उसके बाद ईश्वर इस सृष्टि को बनाता है तो बन जाती है। अब बनाई है तो इसकी आयु 4.32 अरब वर्ष पूर्ण होने पर यह प्रलय को प्राप्त होगी। प्रलयवस्था का समय पूरा होने पर ईश्वर इसे अपनी शाश्वत व सनातन सन्तान वा प्रजा जीवात्माओं के लिए पुनः बनायेगा। इसी प्रकार उसने इससे पूर्व भी ऐसी ही सृष्टि को अनन्त बार बनाया है। यह सृष्टि चक्र इसी प्रकार से चलता आ रहा है। इसमें शंका व भ्रान्ति अज्ञानियों व अविद्या से ग्रस्त लोगों को होती है। इस दृष्टि से हमारे जो वैज्ञानिक इस वैदिक सत्य सिद्धान्त को नहीं मानते उनके बार में भी यह मानना पड़ता है कि वह इस विषय में, अन्य विषयों में नहीं, अविद्या अर्थात् मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। अतः यह विज्ञान का सिद्धान्त है कि कोई भी रचना तभी होती है जब कोई चेतन सत्ता ईश्वर व मनुष्य उसकी रचना करे। यदि वह नहीं करेंगे तो प्रयोजनवान रचना का अस्तित्व सम्भव नहीं है। अपने आप बिना कर्ता व रचयिता के कोई पदार्थ कदापि नहीं बनता है। इसको अधिक विस्तार से जानने के लिए वेद व दर्शन ग्रन्थों मुख्यतः सांख्य, वैशेषिक, योग, न्याय आदि को देखना व पढ़ना चाहिये। इससे सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं।
वेद और वैदिक धर्म को छोड़कर सभी मत-मतान्तर-सम्प्रदाय-धर्म विज्ञान से प्रायः शून्य हैं। यूरोप के जिन देशों में हमारे सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक उत्पन्न हुए, वहां के धर्म व मतों में विज्ञान के विपरीत अन्य सिद्धान्त पाये जाते थे। इस कारण उन्होंने धर्म को विज्ञानहीन व विज्ञान का विरोधी मान लिया और आज तक मानते आ रहे हैं जबकि वेदों में यह बात नहीं है। वेद कहते ही ज्ञान को हैं और वेद पूर्ण ज्ञान व विज्ञान सम्मत हैं। हमारा अनुमान और विश्वास है कि यदि यूरोप के सभी विद्वान भारत में उत्पन्न होते, वेद और वेदिक साहित्य को पढ़ते तो वह एक स्वर से ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को अवश्य स्वीकार करते। यदि आज भी संसार के सभी वैज्ञानिक वेदों व वैदिक साहित्य का सत्य स्वरूप जान लें तो वह अवश्य ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक भ्रान्तियों से मुक्त हो सकते हैं।
ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसका एक कारण यह भी है कि ईश्वर हमसे बहुत दूर, अतिदूर है और निकट से निरटतम भी है। सूर्य पृथिवी से 13 लाख गुणा बड़ा बताया जाता है परन्तु आकाश में यह एक गेद या फुटबाल के समान दिखाई देता है। इसका कारण पृथिवी और सूर्य के बीच की दूरी संबंधी विज्ञान के नियम हैं। ईश्वर सूर्य में व्यापक होने से विद्यमान है व उससे भी कहीं अधिक दूर होने से भी आंखों से दिखाई नहीं देता। हमारी आंख में यदि कोई तिनका पड़ जाये तो भी वह अति निकट होने के कारण दिखाई नहीं देता। उसे आंख से निकाल कर हाथ पर रखकर देख सकते हैं। अतः आंखों में भी समाये होने के कारण ईश्वर हमें दिखाई नहीं देता। आंखों के अन्धे हमारे भाईयों को भी संसार की सभी वस्तुयें होने पर भी दिखाई नहीं देती। दिखाई देने के लिए आंखों का निर्विकार होना भी आवश्यक है। अतः यदि अन्धा व्यक्ति यह कहे कि मुझे संसार दिखाई नहीं देता, अतः यह है ही नहीं, ऐसा ही तर्क उन लोगों का है जो कहते हैं कि ईश्वर दिखाई न देने से नहीं है। फिर ईश्वर का अनुभव व ज्ञान कैसे हो? ईश्वर का ज्ञान किस प्रकार हो इसके लिए हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि अनेक भारतीय व विदेशी भाषाओं में उपलब्ध सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर जाना व अनुभव किया जा सकता है। योगदर्शन जीवात्मा को परमात्मा वा ईश्वर के साथ जोड़ने की विद्या का ग्रन्थ है। इसे पढ़कर, समझ कर व अभ्यास कर ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। वेदों का अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसे आंखे बन्द कर अपनी आत्मा में खोजने पर वह ईश्वर की कृपा होने पर यथासमय साक्षात् जाना जा सकता है। इसे ईश्वर-साक्षात्कार कहा जाता है। महर्षि दयानन्द व अनेक योगियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। आज भी देश में ईश्वर साक्षात्कार किये हुए योगी हो सकते हैं। ईश्वर साक्षात्कार के साधक तो हजारों व लाखों में है जिनके अपने-अपने आश्चर्यजनक अनुभव होते हैं। प्राचीनकाल में हमारे सभी ऋषि-मुनि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए होते थे जिन्हें आप्त पुरूष कहा जाता था। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि लिखी है। इसे पढ़कर व समझकर साधनाभ्यास करने से भी ईश्वर को जाना व प्रत्यक्ष किया जा सकता है। ईश्वर का वेद वर्णित संक्षिप्त स्वरूप लिखकर हम इस लेख को विराम देते हैं। वेदों के अनुसार ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर कहते हैं। ईश्वर के इसी स्वरूप को सभी धार्मिक बन्धुओं को मानना चाहिये। इससे भिन्न स्वरूप को मानने वाले लोग वस्तुत मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। सत्य को ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना मनुष्य का मुख्य धर्म है। जो ऐसा नहीं करता वह धार्मिक नहीं पाखण्डी ही कहा जा सकता है।
–मनमोहन कुमार आर्य
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