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इन्हें सोने दें

इन्हें सोने दें

आर्यसमाज धारूर महाराष्ट्र का उत्सव था। श्री पण्डित नरेन्द्रजी हैदराबाद से पधारे। रात्रि में सब विद्वान् आर्यसमाज के प्रधान पण्डित आर्यभानुजी के विशाल आंगन में सो गये। इनमें से एक

अतिथि ऐसा था जिसे रात्रि को अधिक ठण्डी अनुभव होती थी, परन्तु संकोचवश ऊपर के लिए मोटा कपड़ा न माँगा।

प्रातःकाल सब लोग बाहर शौच के लिए चलने लगे तो उस अतिथि का नाम लेकर एक ने दूसरे से कहा-इन्हें भी जगा लो सब इकट्ठे चलें। इसपर पण्डित नरेन्द्रजी ने कहा-ऊँचा मत बोलो,

जाग जाएँगे। जगाओ मत, सोने दो। इन्हें रात को बड़ी ठण्डी लगी। सिकुड़े पड़े थे। मैंने ऊपर शाल ओढ़ा दिया। ये शज़्द सुनकर वह सोया हुआ व्यक्ति जाग गया। वह व्यक्ति इन्हीं पंक्तियों का लेखक था। पण्डित नरेन्द्रजी रात्रि में कहीं लघुशङ्का के लिए उठे। मुझे सिकुड़े हुए देखकर ऊपर शाल डाल दिया। इस प्रकार रात्रि के पिछले समय में अच्छी निद्रा आ गई, परन्तु सोये हुए

यह पता न लगा कि किसने ऊपर शाल डाल दिया है।

पण्डित नरेन्द्रजी ने आर्यसमाज लातूर के उत्सव पर भी एक बार मेरे ऊपर रात्रि में उठकर कपड़ा डाला था, जिसका पता प्रातः जागने पर ही लगा। ऐसी थी वे विभूतियाँ जिनके कारण आर्यसमाज

चमका, फूला और फला। इन्हें दूसरों का कितना ध्यान था!