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हदीस : नैतिक निष्ठाएं

नैतिक निष्ठाएं

मुहम्मद का मजहब प्रधानतः मीमांसात्मक है। तथापि उसमें नैतिक निष्ठाओं की पूरी तरह उपेक्षा नहीं की गई है। इस्लाम-पूर्व काल में अरब लोग उन अनेक नैतिक निष्ठाओं में आस्था रखते थे, जो समस्त मानव-जात में समान रूप से मान्य रही है। मुहम्मद ने इन निष्ठाओं को कायम रहने दिया, परन्तु उन्हें एक साम्प्रदायिक मोड़ दे दिया। मुसलमान सभी मामलों में स्वयं को मिल्लत का ऋणी मानता है, दूसरों के प्रति आभार-भाव उसमें नगण्य होता है। मानव जाति के अंगभूत गैर-मुसलमानों के प्रति वह किसी भी नैतिक या आध्यात्मिक दायित्व की भावना नहीं रखता। उनके प्रति तो उसका भाव यही रहता है कि तलवार से, तथा लूट कर और जजिया लगाकर उनका मतान्तरण किया जाए। मसलन, सद्भाव एक सार्वभौम मानवीय निष्ठा है और हमें इसका व्यवहार करना ही चाहिए-सम्बन्धित व्यक्ति की राष्ट्रीयता अथवा उसके उपासना-पंथ का विचार किए बिना। किन्तु इस्लाम में, सद्भाव केवल मुसलमानों तक सीमित रहता है। एक जगह मुहम्मद ’अल-दीन‘ (’मजहब‘ यानी इस्लाम) की व्याख्या ”सद्भाव एवं शुभेच्छा“ के रूप में करते हैं जोकि किसी भी मजहब की एक सम्यक् परिभाषा होनी चाहिए। पर जब उनसे पूछा गया कि ”किसके प्रति सद्भाव एवं शुभेच्छा ?“ तब उन्होंने उत्तर दिया-”अल्लाह के प्रति, आस्मानी किताब के प्रति, अल्लाह के रसूल के प्रति, इस्लामी नेताओं-नायकों तथा सर्वसाधारण मुसलमान के प्रति“ (98)। जरीर बिन अब्दुल्ला बतलाते हैं कि उन्होंने ”प्रत्येक मुसलमान के प्रति सद्भाव एवं शुभेच्छा पर ही अल्लाह के पैगम्बर के प्रति निष्ठा प्रतिष्ठित की है“ (122)।

 

इसी तरह का मोड़ अन्य नैतिक निष्ठाओं में भी उभारा गया है और सार्वभौम को साम्प्रदायिक बना डाला गया है। मुहम्मद अपने अनुयायियों से कहते हैं-”किसी मुसलमान को अपशब्द कहना अपराध है और किसी मुसलमान से लड़ना कुफ्र है“ (122)।

लेखक : रामस्वरूप

hadees: ABLUTION (WuzU)

ABLUTION (WuzU)

Muhammad emphasizes the need for bodily cleanliness.  He tells his followers that �cleanliness is half of faith� (432) and that their prayer will not be accepted in a state of impurity till they �perform ablution� (435).  But impurity here has a strictly ritualistic meaning.

Muhammad was a Unitarian in his theology but a Trinitarian in his ablution.  He performed his ablution like this: �He washed his hands thrice.  He then rinsed his mouth and cleaned his nose three times.  He then washed his face three times, then washed his right arm up to the elbow three times, then washed his left arm like that, then wiped his head, then washed his right foot up to the ankle three times, then washed his left foot,� and so on.  Muhammad said that �he who performs ablution like this ablution of mine . . . and offered two rak�ahs [sections] of prayer . . . all his previous sins are expiated� (436).  This became the standard ablution.  According to Muslim canon scholars, this is the most complete of the ablutions performed for prayer.  There are twenty-one ahAdIs repeating Muhammad�s practice and thought on the subject as given above (436-457).

author : ram swarup

हदीस : सत्कर्म और दुष्कर्म

सत्कर्म और दुष्कर्म

सत्कर्म क्या है ? और दुष्कर्म क्या ? विभिन्न धर्मपंथों, विभिन्न दर्शनधाराओं तथा विभिन्न गुरूओं ने इन प्रश्नों पर मनन किया है। इस्लाम ने भी इनके विशिष्ट उत्तर प्रस्तुत किये हैं। वह बतलाता है कि सत्कर्मों को स्वतन्त्र रूप में नहीं देखना चाहिए, उनके साथ सही मजहब का चुनाव भी जरूरी है। सही मुस्लिम के अनुवादक अब्दुल हमीद सिद्दीकी इस्लामी दृष्टि को यूं रखते हैं-”अज्ञान की दशा में (इस्लाम के दायरे से बाहर रहने पर) किये गये अच्छे काम इस तथ्य के सूचक हैं कि व्यक्ति सदाचार की ओर उन्मुख है। किन्तु सच्चे अर्थों में सदाचारी तथा धर्मात्मा होने के लिए अल्लाह की इच्छा की सही-सही समझ अतयावश्यक है। ऐसी समझ इस्लाम में मूर्त है और सिर्फ पैगम्बर के माध्यम से ही विश्वस्त रूप में जानी जा सकती है। इस तरह, इस्लाम पर ईमान लाये बिना हम अपने स्वामी और प्रभु की सेवा इसकी इच्छानुसार नहीं कर सकते……….. सत्कर्म अपने-आप में अच्छे हो सकते हैं, पर इस्लाम कबूत करने पर ही ये सत्कर्म अल्लाताला की नजर में महत्वपूर्ण और सार्थक हो पाते हैं।“ (टी0 218)।

 

मुहम्मद की नजर में, गलत मजहब अनैतिक कर्मों से भी अधिक बदतर है। जब उनसे पूछा गया-”अल्लाह की नजर में कौन सा पाप विकटतम है ?“ तो उन्होंने उत्तर दिया-”यह कि तुम अल्लाह की जात में किसी और को शरीक करो।“ अपने बच्चे का कत्ल और पड़ौसी की बीबी से व्यभिचार मुहम्मद के अनुसार दूसरे और तीसरे नंबर के पाप हैं (156)।

 

दरअसल सिर्फ गलत मजहब ही किसी मुसलमान को जन्नत के बाहर रख सकता है। अन्यथा कोई भी अनैतिक दुष्कृत्य जन्नत में उनके प्रवेश में बाधक नहीं बनता-व्यभिचार और चोरी तक नहीं। मुहम्मद हमें बतलाते हैं-”जिब्रैल मेरे पास आये और संवाद किया कि वस्तुतः तुम्हारी उम्मा (संप्रदाय, कौम, समुदाय) में जो लोग अल्लाह को किसी और के साथ जोड़े बिना जिन्दगी पूरी कर गये, वे जन्नत में दाखिल होंगे।“ इस स्पष्ट करने के लिए इस हदीस का वर्णन करने वाला अबू जर्र मुहम्मद से पूछता है कि क्या यह उस शख्स के वास्ते भी सच है जिसने व्यभिचार व चोरी की हो। मुहम्मद उत्तर देते हैं-”हाँ, उसके वास्ते भी, जिसने व्यभिचार व चोरी की हो“ (171)। अनुवादक इस मुद्दे को आगे स्पष्ट करते हैं-”व्यभिचार और चोरी, दोनों इस्लाम में संगीन जुर्म करार दिए गए हैं, किन्तु ये जुर्म मुजरिम को अनन्त नरक की सजा नहीं देते।“ किन्तु बहुदेववाद अथवा किसी और देवता को ”अल्लाह के साथ जोड़ने की कोशिश एक अक्षम्य अपराध है, और अपराधकत्र्ता को अनन्त नरकवास करना पड़ेगा“ (टी0 168 एवं 170)।

 

जिस परिमाण में बहुदेववाद विकटतम अपराध है, उसी में ममेश्वरवाद सर्वोत्तम सत्कर्म है। जब मुहम्मद से ”सर्वोत्तम कर्मों“ के बारे में सवाल होता है तो वे जवाब देते हैं-”अल्लाह पर विश्वास ही सर्वोत्तम कर्म है।“ उनसे पूछा जाता है-”उसके बाद बाद ?“ वे बतलाते हैं-”जिहाद (148)। मुस्लिम पंथमीमांसा में निश्चय ही ”अल्लाह पर विश्वास“ का मतलब है ”अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास“ जब एक बार कोई अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास कर लेता है, तब उसके अतीत के सब अपराध धुल जाते हैं और भविष्य का भय नहीं रह जाता है। यह आश्वासन मुहम्मद ने उन बहुदेववादियों को दिया ”जिन्होंने बड़ी संख्या में हत्याएँ की थीं और जो व्यापक व्यभिचार में लिप्त रहे थे“ किन्तु जो मुहम्मद के साथ आने को तैयार थे। एक अन्य व्यक्ति से भी अपने अतीत के पापों के प्रति अपराध-भावना का अनुभव कर रहा था, मुहम्मद ने कहा-”क्या तुम्हें यह असलियत मालूम नहीं है कि इस्लाम पहले के सब बुरे कर्मों को धो-पोंछ डालता है ?“ (220)।

लेखक : रामस्वरूप

HADEES : Purification (TahArah)

Purification (TahArah)

The next book is the �Book of Purification.� It deals with such matters as ablution, defecation, and abstersion.  It relates not to inner purity but to certain acts of cleanliness, physical and ritualistic, that must be performed before reciting the statutory daily prayers.  The main topics discussed in Muslim fiqh (canon law) under this heading are: (1) wuzU, minor ablution of the limbs of the body, prescribed before each of the five daily prayers and omitted only if the worshipper is sure that he has not been polluted in any way since the last ablution; (2) ghusl, the major, total ablution of the whole body after the following acts which make a person junub, or impure: coitus (jimA), nocturnal pollution (ihtilAm), menses (hayz), and childbirth (nifAs); (3) tayammum, the minor purification with dust in the place of water; (4) fitra, literally �nature,� but interpreted as customs of the previous prophets, including acts like the use of the toothpick (miswAk), cleansing the nose and mouth with water (istinshAq), and abstersion (istinjA) with water or dry earth or a piece of stone after evacuation and urination; (5) tathIr, the purification of objects which have become ritualistically unclean.

Some broad injunctions on the subject of purification are given in the QurAn (e.g., verses 4:43 and 5:6), but they acquire fullness from the practice of the Prophet.

author:  ram swaroop

हदीस : केवल अल्लाह काफी नहीं

केवल अल्लाह को मान लेना ही काफी नहीं। साथ ही मुहम्मद को अल्लाह का रसूल मानना भी जरूरी है। रबिया कबीले का एक प्रतिनिधि-मण्डल मुहम्मद के पास आता है। मुहम्मद उस मण्डल से कहते हैं-”मैं आदेश देता हूँ कि तुम लोग केवल अल्लाह पर आस्था जमाओ।“ फिर मुहम्मद उन लोगों से पूछते हैं-”क्या तुम जानते हो कि अल्लाह पर आस्था रखने का सही अर्थ क्या है ?“ और मुहम्मद अपने-आप ही प्रश्न का उत्तर देते हैं-”इसका अर्थ है इस सत्य की गवाही देना कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।“ नमाज, जकात, रमजान इत्यादि के साथ वे यह भी बतलाते हैं कि ”तुम लोग लूट के माल का पंचमांश अदा करो“ (23)। लूट के माल के विषय में हम यथा प्रसंग और भी बहुत कुछ मुहम्मद के मुख से सुनेंगे।

 

  1. सही की सारी हदीसों का संख्याक्रम है। अनुवादक की टिप्पणियों का भी। उदाहरण देते समय कोष्टक में उनका उल्लेख है।

 

इसी प्रकार की बातें, मुआज को यमन का शासक बनाकर भेजते हुए, मुहम्मद कहते हैं-”अव्वल उन्हें गवाही देने के लिए कहो कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं है और मैं (मुहम्मद) अल्लाह का रसूल हूँ। यदि वे इसे मंजूर कर लेते हैं तो उनसे कहो कि अल्लाह ने उनके लिए ज़कात की अदायगी का एक जरूरी फर्ज़ तय किया है“ (27)।

 

मुहम्मद के मिशन का एक और भी स्पष्टतर विवरण इन पंक्तियों में मिलता है-”मुझे लोगों के खिलाफ तब तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, जब तक वे यह गवाही न दें कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और जब तक वे नमाज न अपनाएं तथा जकात न अदा करें यदि वे यह सब करते हैं, तो उनके जान और माल की हिफाजल की मेरी ओर से गारंटी है“ (33)।

 

मुहम्मद ”अल्लाह“ शब्द का प्रयोग प्रचुरता से करते हैं। पर कई बार अल्लाह भी पीछे पड़ जाता है। अपने ऊपर आस्था रखने वालों से मुहम्मद कहते हैं-”तुममे से कोई तब तक मुसलमान नहीं है, जब तक कि मैं उसे अपने बच्चे, अपने पिता और सारी मानव-जाति से अधिक प्यारा नहीं हूँ“ (71)।

 

अल्लाह और उनके रसूल-सच कहें तो मुहम्मद और उनके -नमाज, जकात, रमजान और हज, इन पांचों को कई बार इस्लाम के पांच स्तम्भ कहा जाता है। किन्तु हदीस में ऐसी कुछ अन्य आस्थाओं और अनुशासनों का जिक्र भी जगह-जगह मिलता है, जो इन पांचों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं। इनमें से कुछ खास-खास ये हैं-जन्नत, जहन्नुम, कयामत का दिन, जिहाद (बहुदेववादियों के खिलाफ लड़ी जाने के कारण पवित्र मानी जाने वाली जंग), जजिया (बहुदेववादियों से वसूला जाने वाला व्यक्ति-कर), गनीमा (युद्ध में लूटा गया माल) और खम्स (पवित्र पंचमांश)। मुहम्मद-प्रणीत मज़हब के ये मुख्य अंग हैं। अल्लाह जब जहन्नुम में मिलने वाली सजाओं की धमकियां देता है और जन्नत में मिलने वाली नेमतों के वायदे करता है, तब वह साकार हो उठता है। इसी तरह, इस्लाम के इतिहास में, जिहाद और युद्ध में लूटे गये माल ने हज और जकात से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रस्तुत अध्ययन में इन समस्त अवधारणाओं की यथाक्रम यथास्थान समीक्षा होगी।

लेखक : रामस्वरूप

HADEES : JESUS

JESUS

Muhammad had a belief of a sort in Jesus.  In fact, this belief, along with his belief in the apostleship of Moses and Abraham, is often cited as a proof of Muhammad�s liberal and catholic outlook.  But if we look at the matter closely, we find it was more a motivated belief, meant partly to prove his own apostolic pedigree, and partly to win converts from among the Jews and the Christians.  In any case, his opinion of Jesus does not amount to much.  He turned Jesus into a mujAhid (crusader) of his entourage.  When Jesus returns in the Second Coming, no more than a pale copy of Muhammad, he will be waging war against the Christians as well as others: �The son of Mary will soon descend among you as a just judge.  He will break crosses, kill swine, and abolish Jizya,� Muhammad proclaims (287).  How?  The translator explains: �Cross is a symbol of Christianity.  Jesus will break this symbol after the advent of Muhammad.  Islam is the dIn(religion) of Allah and no other religion is acceptable to him.  Similarly, the flesh of the swine is a favorite dish of the Christians.  Jesus will sweep out of existence this dirty and loathsome animal.  The whole of the human race would accept Islam and there would be no zimmIs left, and thus Jizya would be automatically abolished� (notes 289-290).  Jesus is regarded as a just Judge, but this only means that he will judge according to the sharI�ah of Muhammad.  For, as the translator explains, �the SharI�ah of all the earlier prophets stands abrogated with the advent of Muhammad�s Apostleship.  Jesus will, therefore, judge according to the law of Islam� (note 288).

author:  ram swarup

हदीस : आस्था (ईमान)

आस्था (ईमान)

सही मुस्लिम की पहली किताब है ’अल-ईमान‘। इसमें कुल 431 हदीस हैं, जिनको 92 पर्वो में बांटा गया है। पुस्तक में ईमान के प्रसंगों पर चर्चा की गई है।

 

एक आदमी बहुत दूर से चलकर मुहम्मद के पास आता है। फिर भी थकावट का कोई आभास दिए बिना मुहम्मद से पूछता है-”मुहम्मद ! मुझे अल-इस्लाम के बारे में बतलाइए।“

 

अल्लाह के पैगम्बर फरमाते हैं-”इस्लाम की मांग है कि तुम यह गवाही दो कि अल्लाह के सिवाय कोई अन्य आराध्य नहीं है, और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है, और तुम नमाज़ अपनाओ, जकात अदा करो, रमज़ान में रोज़ा रखो और हज़ पर जाओ।“

 

पूछताछ करने वाला जब चला जाता है तो मुहम्मद उमर से कहते हैं-”वह जिब्रैल था। तुम लोगों को मजहब की शिक्षा देने के लिए तुम लोगों के पास आया था“ (1)1।

 

यह सबसे पहली हदीस है जो उमर के द्वारा कही गई। उमर बाद में खलीफा बने। उनकी यह हदीस कथाकारों की कई श्रंखलाओं के माध्यम से मिलती है।

 

यही बात सैकड़ों हदीसों में कही गई है। अल-इस्लाम अल्लाह पर आस्था है, अल्लाह के रसूल मुहम्मद पर आस्था है, और आस्था है अल्लाह की किताब पर, अल्लाह के फरिश्तों पर, कयामत के दिन मुर्दों के उठ खड़े होने पर, महशर पर, जकात अदा करने पर, रोजा (रमजान) रखने पर और हज करने पर।

 

लेखक :  रामस्वरूप

HADEES : Understanding Islam through HADISH (hindi)

इस्लाम केवल एक पंथमीमांसा अथवा अल्लाह के बन्दों के साथ उसके रिश्तों का एक बयान भर नहीं है। उसमें सिद्धान्त-संबंधी और पंथ-संबंधी सामग्री के अलावा सामाजिक, दण्डनीति-विषयक, व्यावसायिक, आनुष्ठानिक और उत्सवसमारोह-संबंधी मामलों पर विचार किया गया है। वह हर विषय पर विचार करता है। यहां तक कि व्यक्ति की वेशभूषा, उसके विवाह और सहवास जैसे निजी क्षेत्रों में भी उसका दखल है। मुस्लिम पंथमीमांसकों की भाषा में, इस्लाम एक ’सम्पूर्ण‘ और ’समापित‘ मज़हब है।

 

यह मज़हब समान रूप से राजनैतिक एवं सामरिक है। शासनतंत्र से इसका बहुत ताल्लुक है और काफिरों से भरे हुए संसार के बारे में इसका एक बहुत खास नजरिया है। क्योंकि अधिकांश विश्व अभी भी काफिर है, इसलिए जो लोग मुसलमान नहीं हैं, उनके लिए इस्लाम को समझना बहुत जरूरी है।

 

इस्लाम के दो आधार हैं-कुरान और हदीस (’कथन‘ या ’परम्परा‘) जिन्हें सामान्यतः सुन्ना (रिवाज) कहा जाता है। दोनों का केन्द्र है मुहम्मद। कुरान में पैगम्बर के ’इलहाम‘ (वही) हैं और हदीस में वह सब है जो उन्होंने किया या कहा, जिसका आदेश दिया, जिसके बारे में मना किया या नहीं मना किया, जिसकी मंजूरी दी या जो नामंजूर किया। एकवचन ’हदीस‘ शब्द (बहुवचन अहादीस) पंथ की समस्त परम्परा प्राप्त प्रथाओं के लिए इकट्इे तौर पर भी इस्तेमाल होता है। यह शब्द सम्पूर्ण पवित्र पंथपरम्परा का द्योतक है।

 

मुस्लिम पंथमीमांसक कुरान और हदीस के बीच कोई भेद नहीं करते। उनके लिए ये दोनों ही इलहाम या दिव्य प्रेरणा की कृतियां हैं। इलहाम की कोटि और मात्रा दोनों कृतियों में एक समान है। सिर्फ अभिव्यक्ति का ढंग अलग है। उनके लिए ’हदीस‘ व्यवहार रूप में कुरान है। वह पैगम्बर की जीवनचर्या में उतरे इलहाम का मूर्त रूप है। ’कुरान‘ में अल्लाह मुहम्मद के मुख से बोलता है, ’सुन्ना‘ में वह मुहम्मद के माध्यम से काम करता है। इस तरह मुहम्मद की जीवनचर्या कुरान में कहे गए अल्लाह के वचनों की साक्षात अभिव्यक्ति है। अल्लाह दिव्य सिद्धांत प्रस्तुत करता है, मुहम्मद उसकी मूर्त बानगी प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए यह अचरज की बात नहीं कि मुस्लिम पंथमीमांसक कुरान और हदीस को परस्पर पूरक अथवा एक को दूसरे की जगह रखे जा सकने लायक भी मानते हैं। उनके लिए हदीस ’वही गैर मतलू‘ अर्थात् ’बिना पढ़ी गई बही‘ है। वह कुरान की तरह आसमानी किताब से नहीं पढ़ी गई, पर उसी तरह दिव्य प्रेरणा से प्राप्त है। और कुरान ”हदीस मुतवातिर“ है अर्थात् वह पंथपरम्परा जो सभी मुसलमानों द्वारा शुरू से ही प्रामाणिक और पक्की मानी गई है।

 

इस प्रकार, कुरान और हदीस, एक समान पथ-प्रदर्शन करती है। अल्लाह ने अपने पैगम्बर की मदद से हर स्थिति के लिए मार्गदर्शन प्रस्तुत किया है। मस्जिद में जा रहा हो या शय्याकक्ष में या शौचालय में, वह मैथुन कर रहा हो या युद्ध-सभी स्थितियों के लिए एक आदेश है और एक अनुकरीय बानगी दी गई है। और कुरान के मुताबिक, जब अल्लाह और उसका रसूल कोई मार्ग मुकर्रर कर दें, तो मोमिन के लिए उस मामले में अपनी किसी निजी पसंद का हक नहीं रह जाता। (33: 36)

 

इस पर भी ऐसी स्थितयां सामने आ जाती हैं जिनके बारे में मार्गदर्शन का अभाव है। इमाम इब्न हंबल (जन्म हिजरी सन् 164, मृत्यु हिजरी सन् 241/- ईस्वी सन् 780-855) के बारे में यह कहा गया है कि उन्होंने कभी भी तरबूज नहीं खाये, यद्यपि वे जानते थे कि पैगम्बर तरबूज खाते थे। कारण यह था कि इमाम तरबूजों को खाने का पैगम्बर का तरीका नहीं जानते थे। यही किस्सा उन महान सूफी बायजीद बिस्ताम के बारे में सुना जाता है, जिनकी रहस्यवादी शिक्षाएं कुरान की कट्टर मीमांसा के विरुद्ध जाती हैं।

 

यद्यपि गैर-मुस्लिम संसार सुन्ना या हदीस से उतना परिचित नहीं है, जितना कि कुरान से, तथापि इस्लामी कानूनों, निर्देशों, एवं व्यवहारों के लिए सुन्ना या हदीस कुरान से भी कहीं ज्यादा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार है। पैगम्बर के जीवनकाल से ही, करोड़ों मुसलमानों ने पोशाक और पहनावे में, खान-पान और बालों की साज-संवार में, शौच की रीति तथा यौन और वैवाहिक व्यवहार में, पैगम्बर जैसा होने की कोशिश की है। अरब में देखें या मध्य एशिया में, भारत में या मलेशिया में, मुसलमानों में कतिपय समानुरूपताएं दिखेंगी जैसे कि बुरका, बहुविवाह-प्रथा, वुजू और इस्तिंजा (गोपनीय अंगों का मार्जन)। ये सब सुन्ना से व्युत्पन्न तथा कुरान द्वारा समर्थित है। ये सभी, परिवर्तनशील सामाजिक दस्तूर के रूप में नहीं, बल्कि दिव्य विधान द्वारा विहित सुनिश्चित नैतिक आदेशों के नाते स्वीकार किये जाते हैं।

 

हदीस में विवेचित विषय बहुत से और बहुत प्रकार के हैं। उसमें अल्लाह के बारे में पैगम्बर की सूझबूझ, इहलोक और परलोक, स्वर्ग और नरक, फैसले का आखिरी दिन, ईमान, सलात, जकात, साम तथा हज जैसे मजहबी मामलों के रूप में प्रसिद्ध विषय शामिल है। फिर उसमें जिहाद, अल-अनफाल (युद्ध में लूटा गया माल) और खम्स (पवित्र पंचमांश) के बारे में पैगम्बर की घोषणाएं भी शामिल हैं। साथ ही अपराध और दंड पर, खाने, पीने, पहनावे और व्यक्तिगत साज-सज्जा पर, शिकार और कुराबानी पर, शायरों और सगुनियों पर, औरतों और गुलामों पर, भेंट-नजराना, विरासत और दहेज पर, शौच, वजू और गुस्ल पर, स्वप्न, नामकरण और दवाओं पर, मन्नतों, कसमों और वसीयतनामों पर, प्रतिमाओं और तस्वीरों पर, कुत्तों, छिपकलियों, गिरगिटों और चींटियों पर, पैगम्बर के फैसले और घोषणाएं वहां हैं।

 

हदीस का साहित्य विपुल है। उसमें पैगम्बर के जीवन के मामूली ब्यौरे तक है। उनके होंठों से निकला हर शब्द, सहमति या असहमति में उनके सिर के हिलने का हर स्पन्दन, उनकी प्रत्येक चेष्टा और व्यवहार-विधि, उनके अनुयाइयों के लिए महत्वपूर्ण था। पैगम्बर के बारे में उन्होंने सब कुछ याद रखा और पुश्त-दर-पुश्त उन यादों को संजोते गये। स्वभावतः, जो लोग पैगम्बर के अधिक सम्पर्क में आये, उनके पास उनके बारे में कहने के लिए सबसे ज्यादा था। उनकी पत्नी आयशा, उनके कुलीन अनुयायी अबू बकर और उमर, दस साल तक उनका नौकर रहा अनस बिन मालिक जो हिजरी सन 93 में 103 वर्ष की बड़ी उम्र में मरा, और पैगम्बर का भतीजा अब्दुल्ला बिन अब्बास, अनेक हदीसों के उर्वर स्रोत थे। किन्तु सर्वाधिक उर्वर स्रोत थे। अबू हुरैरा जोकि 3,500 हदीसों के अधिकारी ज्ञाता थे। वे पैगम्बर के रिश्तेदार नहीं थे। पर उन्होंने पैगम्बर के दूसरे साथियों से सुन कर हदीसों का संग्रह करने में विशेषता हासिल कर ली थी। इसी तरह, 1540 हदीस जाबिर के प्रमाण से व्युत्पन्न हैं। जाबिर तो कुरैश भी नहीं थे, वरन् मदीना के खजरज कबीले के थे जोकि मुहम्मद से सहबद्ध था।

 

हर एक हदीस का एक मूलपाठ (मत्न) है और एक संचरण-श्रंखला (इस्नाद) है। एक ही पाठ की अनेक श्रंखलाएं हो सकती हैं। मगर हर एक पाठ का स्रोत मूलतः कोई साथी (अस-हाब) होना चाहिए-कोई वह शख्स जो पैगम्बर के निजी सम्पर्क में आया हो। इन साथियों ने ये कथाएं अपने अनुयाइयों (ताबिऊन) को बतलाई, जो उन्हें अगली पीढ़ी को सौंप गये।

 

शुरू में हदीस मौखिक रूप में संचारित हुई। शुरू के वर्णन-कर्ताओं में से कुछ ने जरूर किसी तरह के लिखित विवरण रखे होंगे। फिर, जब असहाब और ताबिऊन और उनके वंशज नहीं रहे, तब लिखित रूप देने की जरूरत महसूस की गई। इसके दो अन्य कारण थे। कुरान के आदेश-निर्देश शुरू के अरब लोगों के सरल जीवन के लिए सम्भवतः पर्याप्त थे। पर जैसे-जैसे मुसलमानों की ताकत बढ़ी और वे एक विस्तृत साम्राज्य के स्वामी बने, वैसे-वैसे उन्हें नई स्थितियों और नये रीति-रिवाजों के अनुरूप प्रमाण का एक पूरक आधार खोजना पड़ा। यह आधार पैगम्बर के व्यवहार में अर्थात् सुन्ना में पाया गया, जोकि शुरू के मुसलमानों की जनर में पहले से ही बहुत ऊँचा सम्मान पा चुका था।

 

एक और भी अधिक अनिवार्य कारण था। अप्रामाणिक हदीस उभर रही थीं, जो प्रामाणिक हदीसों को अभिभूत कर रही थीं। इसके पीछे अनेक तरह के इरादे और प्रेरणाएं थीं। इन नई हदीसों में से कुछ सिर्फ पाखण्ड-पूर्ण थीं, जिनका उद्देश्य उन बातों को प्रोत्साहन देना था जो इनके गढ़ने वालों के विचार में मजहबी जीवन का मर्म थीं या फिर जो उनके विचार से सही पंथमीमांसा प्रस्तुत करती थीं।

 

साथ ही कुछ व्यक्तिगत मनसूबे भी इनके पीछे थे। हदीस अब सिर्फ शिक्षाप्रद कहानियां नहीं रह गई थीं। वे प्रतिष्ठा और लाभ का स्रोत भी बन गई थीं। अपने पुरखों का मुजाहिर या अन्सार में शुमार किया जाना, अल-अकाबा की प्रतिज्ञा के समय उनकी मौजूदगी, बद्र और उहुद की लड़ाइयों के योद्धाओं में उनका शामिल होना-संक्षेप में, पैगम्बर के प्रति वफादारी और उपयोगिता के किसी भी सन्दर्भ में उनका उल्लेख होना-बहुत बड़ी बात हो गई थी। इसलिए ऐसे मुहद्दिसों की मांग बढ़ गई थी, जो यथायोग्य हदीस प्रस्तुत कर सकें। शूरहबील बिन साद जैसे हदीस के संग्रहकर्ताओं ने अपनी क्षमता का असरदार इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने स्वार्थानुसार किसी की पीठ सहलाई, किसी को डरा-धमका कर धन हड़प लिया।

 

गुट-स्वार्थी की पूर्ति के लिए भी जाती हदीस गढ़ी गई। मुहम्मद की मौत के फौरन बाद विभिन्न गुटों में सत्ता के लिए जानलेवा भिडंतें हुईं। विशेषकर अलीवंशियों, उमैया-वंशियों और बाद में अब्बासियों के बीच। इस संघर्ष में प्रबल भावावेग उमड़ा और उसके प्रभाव में नई-नई हदीस गढ़ी गई तथा पुरानी हदीसों को उपयोगी दृष्टि से तोड़ा-मरोड़ा गया।

 

मजहबी और वीर-पूजक बुद्धि ने मुहम्मद के जीवनवृत्त के चतुर्दिक अनेक चमत्कार जोड़ दिए, जिससे मुहम्मद का मानव व्यक्तित्व पुराकथाओं के पीछे छुपने लगा।

 

इन परिस्थितियों में यह प्रयास गम्भीरतापूर्वक किया गया कि मौजूदा सभी हदीस संग्रहीत की जाएं, उनकी छान-बीन हो, अप्रामाणिक हदीस रद्द कर दी जायें और सही हदीसों को लिखित रूप दिया जाये। मुहम्मद के एक-सौ वर्ष बाद खलीफा उमर द्वितीय के शासन में ऐसे आदेश दिये गये कि सभी मौजूदा हदीसों का बकर इब्न मुहम्मद की देख-रेख में संग्रह हो। पर इसके लिए मुस्लिम संसार को और सौ साल इन्तजार करना पड़ा। मुहम्मद इस्माइल अलबुखारी (हिजरी सन् 194-256 = ईसवी सन् 810-870), मुस्लिम इब्तुल हज्जाज (हिजरी सन् 204-261 = ईसवी सन् 819-875), अबू ईसा मुहम्मद अत-तिरमिजी (हिजरी सन् 209-279 = ईसवी सन् 824-892), अबू दाउद अस-साजिस्तानी (हिजरी सन् 202-275 = ईसवी सन् 817-888), तथा अन्य हदीसकारों की विशिष्ट मंडली ने इन हदीसों की छानबीन का काम हाथ में लिया था।

 

बुखारी ने प्रामाणिकता के सिद्धान्तों का सविस्तार प्रतिपादन किया और उनको दृढ़ता से लागू किया। कहा जाता है कि उन्होंने 6 लाख हदीस संग्रहीत कीं, उन उनमें से सिर्फ सात हजार को प्रामाणिक माना। अबू दाउद ने 5 लाख संग्रहीत हदीसों में से केवल 4800 को मान्य किया। यह भी कहा जाता है कि संचरण की विभिन्न श्रंखलाओं में 40 हजार नामों का उल्लेख किया गया था, पर बुखारी ने उनमें से सिर्फ 2 हजार को प्रामाणिक माना।

 

इन हदीसकारों के श्रमसाध्य कार्य के फलस्वरूप, हदीसों के अस्तव्यस्त ढेर को काटा-छांटा जा सका और उनमें कुछ सिलसिला तथा सामंजस्य लाया जा सका। 1000 से अधिक संग्रह जो प्रचलन में थे, कालक्रम में विलुप्त हो गये और सिर्फ 6 संग्रह, जो ”सिहा सित्ता“ कहे जाते हैं, प्रामाणिक “सही“ यानी संग्रह मान्य हुए। इनमें से दो को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है, ये ”दो प्रामाणिक“ कहे जाते हैं-एक इमाम बुखारी वाला और दूसरा इमाम मुस्लिम वाला। उनमें अभी भी चमत्कारिक एवं असम्भाव्य सामग्री खासी मात्रा में है, पर तब भी उनका अधिकांश तथ्यात्मक और ऐतिहासिक है। मुहम्मद की मौत के बाद तीन-सौ साल के अंदर हदीस को बहुत हद तक वह शक्ल प्राप्त हो गई थी जिसमें वह आज पाई जाती है।

 

उस काफिर को जिस की बुद्धि सही-सलामत है, हदीस किंचित् अशोभन-सी कथा-वार्ताओं का संग्रह लगती है-एक ऐसे व्यक्ति की कथा जो कुछ ज्यादा ही मानव-सुलभ स्वभाव वाला है। किन्तु मुस्लिम मानस को उसे एक अलग ही ढंग से देखना सिखाया गया है। मुसलमानों ने श्रद्धायुक्त विस्मय एवं पूजा की भावना से ही हदीस के विषय में लिखा-बोला है, उसका वाचन और अध्ययन किया है। मुहम्मद के एक सहचर और एक महान हदीसकार (जो 305 हदीसों के अधिकारी वक्ता हैं और जिनका हिजरी सन् 32 में 72 बरस की उम्र में देहावसान हुआ) अब्दुल्ला इब्न मसूद के बारे में कहा जाता है कि हदीस बांचते समय वे थरथराने लगते थे, और अक्सर उनके पूरे माथे पर पसीना छलछला उठता था। मोमिन मुसलमानों से अपेक्षा की जाती है कि वे हदीस को उसी भाव और उसी बुद्धि से पढ़ें। समय का अंतराल इस प्रक्रिया में सहायक बनता है। समय बीतने के साथ-साथ नायक उत्तरोत्तर महान दिखने लगता है।

 

अपनी इस पुस्तक के लिए हमने भी सही मुस्लिम को मुख्य मूलपाठ के रूप में चुना है। वह हमारा आधार है, यद्यपि अपने विचार-विमर्श के क्रम में हमने बहुधा कुरान से उद्धरण दिये हैं। कुरान और हदीस परस्परावलंबी एवं एक दूसरे पर प्रकाश डालने वाले हैं कुरान में मूलपाठ मिलता है, हदीस में उसका सन्दर्भ। वस्तुतः हदीस की मदद के बिना कुरान समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि कुरान की प्रत्येक आयत का एक सन्दर्भ है, जोकि हदीस से ही जाना जा सकता है। कुरान के इलहामों को हदीस साकार-सगुण रूप देती है, उनका लौकिक अभिप्राय व्यक्त करती है और उन के ठेठ घटना-प्रसंग बतलाती है।

 

कुछ मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए हमने यहां-वहां पर पैगम्बर की परम्परागत जीवनियों से भी उद्धरण दिये हैं। ये जीवनियाँ पैगम्बर के जीवन की घटनाओं के इर्द-गिर्द कालानुक्रम में व्यवस्थित हदीसों से अधिक कुछ नहीं। उसके पूर्व कई मगाजी किताबें (पैगम्बर के अभियानों संबंधी किताबें) मिलती हैं। पैगम्बर की प्रायः पहली प्रौढ़ जीवनी है इब्न-इसहाक की, जो मदीना में हिजरी सन् 85 में जन्में और जिनकी मृत्यु हिजरी सन् 151 (ईस्वी 768) में बगदाद में हुई। उनके बाद कई अन्य उल्लेखनीय जीवनीकार हुए जिन्होंने उनके श्रम का प्रचुर उपयोग किया। वे थे-अल-वाकिदी, इब्न हिशाम, और अत-तवरी। इसहाक की ’सीरत रसूल अल्लाह‘ का ए0 गिलौम कृत अंग्रजी अनुवाद ”द लाइफ आॅफ मुहम्मद“ (आॅक्सफोर्ड 1958) शीर्षक से उपलब्ध है।

 

इसके पहले कतिपय हदीस-संग्रहों के आंशिक अंग्रेजी अनुवाद ही उपलब्ध थे। इस कमी को पूरा करने और ”सही मुस्लिम“ का परिपूर्ण अनुवाद (लाहौर: मुहम्मद अशरफ) प्रदान करने के लिए डा0 अब्दुल हमीद सिद्दीकी को धन्यवाद मिलना चाहिए। एक प्राच्य ग्रंथ के एक प्राच्य बुद्धि द्वारा किये गये अनुवाद का एक लाभ है-उसमें मूल का आस्वाद सुरक्षित रहता है। उनकी अंग्रेजी क्वीन्स इंग्लिश भले ही न हो और जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है उन्हें यह अंग्रेजी भले ही कुछ-कुछ परदेशी सी लगे, पर यह अनुवाद अविकल है और मूल के मुहावरे को दोहराता है।

 

डा0 सिद्दीकी का काम मूल कृति के अनुवाद से कहीं ज्यादा है। उन्होंने प्रचुर मात्रा में व्याख्यात्मक टिप्पणियां दी हैं। 7190 अहादीस वाली “सही“ में उन्होंने 3081 पाद-टिप्पणियां दी हैं। अस्पष्ट मुदों और सन्दर्भों को स्पष्ट करने के अतिरिक्त, ये टिप्पणियां हमें पारम्परिक मुस्लिम विद्वत्ता का प्रामाणिक आस्वाद प्रदान करती हैं। वस्तुतः एक सुप्रतिष्ठित और विद्वज्जनोचित रीति से व्यवस्थित ये टिप्पणियां अपने-आप में विचार का एक महत्वपूर्ण विषय बन सकती हैं। इनसे यह प्रकट होता है कि इस्लाम में विद्वता की भूमिका गौण है-वह कुरान और हदीस की अनुचर हैं। उसकी स्वयं की कोई जिज्ञासा या गवेषणा नहीं है। तथापि स्पष्टीकरण और पक्ष-मंडन की जो भूमिका उसने अपने लिए चुनी है, उसकी परिधि में प्रवीणता, और यहां तक कि प्रतिभा, की सामथ्र्य भी उस विद्वता में विद्यमान है। इसलिए हमने इन टिप्पणियों से भी उदाहरण दिये हैं। लगभग 45 बार, ताकि पाठक को इस्लामी विद्वत्ता की बानगी मिल जाय।

 

अब कुछ शब्द इसके बारे में कि प्रस्तुत पुस्तक लिखी कैसे गई। जब हमने डा0 सिद्दीकी का अनुवाद पढ़ा, तो हमें लगा कि इसमें इस्लाम-विषयक महत्वपूर्ण सामग्री है, जो बहुत लोगों के लिए जानने योग्य है। कई शताब्दियों तक प्रसुप्त रहने के बाद, इस्लाम पुनः गतिशील है। योरोपीय जातियों के उत्थान से पहले दुनिया को सभ्य बनाने का भार इस्लाम ने सम्हाल रखा था। उसका यह भार ”श्वेत मानव के भार“ का ही रूपान्तर था। उसका मिशन तो और भी अधिक आडम्बर-युक्त था, क्योंकि वह खुद अल्लाह की ओर से मिला था। मुसलमानों ने बहुदेववाद को निर्मूल करने, अपने पड़ोसियों के उपास्य देवताओं को सिंहासन से हटाने और उनकी जगह अपने देवता, अल्लाह, को स्थापित करने के लिए तलवार चलाई। यह और बात है कि इस सिलसिले में उन्होंने लूट भी की और साम्राज्य भी स्थापित किये। ये तो दिव्य परलोक की साधना में तल्लीन लोगों द्वारा अनचाहे लौकिक पुरस्कार मात्र थे।

 

अरबों की नई तेल-संपदा की कृपा से पुराना मिशन पुनजीर्वित हो उठा है। जिद्दा में एक तरह का ”मुस्लिम काॅमिन्फाॅर्म“ रूपायित हो रहा है। तेल-धनिक अरब लोग हर जगह के मुसलमानों का भार अपने ऊपर ले रहे हैं, उनकी आध्यात्मिक और साथ ही दुनियावी जरूरतों की देखभाल कर रहे हैं। अरब धन मुस्लिम जगत में सर्वत्र सक्रिय है-पाकिस्तान में, बांग्लादेश में, मलेशिया में, हिन्देशिया में, और बड़ी मुस्लिम आबादी वाले भारत देश में भी ।

 

सैनिक दृष्टि से अरब अभी भी दुर्बल है और पश्चिम पर निर्भर है। लेकिन उनकी दस्तंदाजी का पूरा प्रकोप एशिया और अफ्रीका के उन देशों में दिखाई दे रहा है, जो आर्थिक रूप से गरीब और वैचारिक रूप से कमजोर हैं। इन देशों में वे निम्नतल पर भी काम करते हैं और शिखर पर भी। वे स्थानीय राजनीतिज्ञों को खरीद लेते हैं। उन्होंने गेबन एवं मध्य अफ्रीकी साम्राज्य के राष्ट्रपतियों का मतान्तरण मोल-तोल से किया है। उन्होंने ”दारूल हरब“ यानि उन देशों के मुसलमानों को गोद ले रखा है, जो अभी भी काफिर हैं और मुसलमानों द्वारा पूरी तरह अधीन नहीं किये जा सके हैं। वे इन अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल इन देशों को ”दारूल इस्लाम“ यानि “शांति के स्थान“ में रूपांतरित करने के लिए कर रहे हैं। अर्थात् इन को ऐसे देश बना डालने के लिए जहां इस्लाम का आधिपत्य हो।

 

सर्वोत्तम परिस्थितियों में भी, मुसलमान अल्पसंख्यकों को किसी देश की मुख्य राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित कर पाना मुश्किल है। अरब हस्तक्षेप ने इस काम को और ज्यादा मुश्किल बना डाला है। फिलिपीन्स में मोरो मुसलमानों के विद्रोह के पीछे यही हस्तक्षेप था। भारत में लगातार एक मुसलमान-समस्या बनी हुई है, जिसका समाधान देश-विभाजन के बावजूद सम्भव नहीं हो पा रहा। अरब दस्तंदाजी ने मामले को और ज्यादा उलझा दिया है।

 

मुस्लिम जगत में एक नया कठमुल्लावाद पनप रहा है जिससे खुमैनी और मुअम्मर कद्दाफी जैसे नेता उभर रहे हैं। जहां भी वह विजयी होता है, वहीं उसके परिणामस्वरूप तानाशाही आ जाती है। कठमुल्लावाद और अधिनायकवाद जुड़वां संतानें हैं।

 

कतिपय विचारकों के अनुसार, यह कठमुल्लावाद मुसलमानों द्वारा की जाने वाली अपने ऐतिह्म तथा अपनी आत्मनिष्ठा की तलाश के सिवाय और कुछ नहीं है, पश्चिम की पदार्थवादी एवं पूंजीवादी आस्थाओं के खिलाफ अपनी संस्कृति में उपलब्ध प्रतीकों के सहारे आत्मरक्षा का एक अस्त्र है। किन्तु ध्यानपूर्वक देखें तो यह कुछ और भी है। यह पुराने साम्राज्यवादी दिनों के वैभव को फिर से पाने का सपना भी है। इस्लाम स्वभाव से ही कठमुल्लावादी है और यह कठमुल्लापन आक्रामक प्रकृति वाला है। इस्लाम का दावा है कि उसने हमेशा-हमेशा के लिए मनुष्य के विचार एवं आचार को निर्धारित-निरूपित कर दिया है। वह किसी भी परिवर्तन का विरोध करता है और वह अपनी आस्थाओं और आचरण-प्रणालियों को दूसरों पर थोपना उचित मानता है।

 

यह तो अपने-अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है कि इस कठमुल्लावाद को पुनरुत्थान माना जाए या प्रतिगामिता एवं एक पुराने साम्राज्यवाद के फिर से उभर आने का खतरा। किन्तु समस्या के किसी भी पहलू पर प्रकाश डालने वाली कोई भी बात बहुत सहायक समझी जायेगी।

 

हम हदीस साहित्य को इस विषय में सर्वथा उपयुक्त पाते हैं। वहां हमें इस्लाम के उद्गम-स्रोतों का और इस्लाम के निर्माणकाल का अन्तरंग चित्र मिलता है जिससे कि उन तत्त्वों के साथ घनिष्ट परिचय हो जाता है, जो प्रारम्भ से ही इस्लाम के अवयव रहे हैं। दरअस्ल, इस्लाम के ये तत्त्व ही मुसलमानों को सर्वाधिक सम्मोहक लगते हैं और इस प्रकार, अपने पूर्वजों जैसा बनने को बाध्य कर देने वाली प्रचंड प्रेरणा से भरकर, बारम्बार उन तत्त्वों का आह्वान करते हैं और उधर ही लौटते रहते हैं।

 

इसीलिए हमने सही मुस्लिम को मार्गदर्शक के रूप में चुना है। उसका अंग्रेजी अनुवाद भी सुलभ है। क्योंकि ज्यादातर हदीस संग्रहों की सार-सामग्री एक ही है, इसलिए हमारा यह चुनाव भ्रान्तिकारक नहीं है। दूसरी ओर, यह चुनाव हमारे अध्ययन एवं हमारी जिज्ञासा के क्षेत्र का सार्थक सीमांकन कर देता है।

 

इस चुनाव में एक कमी है जिसके लाभ भी हैं, और हानियां भी। इस रीति से यद्यपि हमने बहुत से मुद्दों पर चर्चा की है, किन्तु विस्तृत वर्णन एक का भी नहीं हो सका है। कुछ महत्वपूर्ण मसले इसीलिए अधिक विवेचन किये बिना छोड़ दिये गये और कुछेक का तो इस लिए विचार ही नहीं बन पड़ा कि वे मसले सही मुस्लिम में उठाये ही नहीं गये हैं। हमने सही मुस्लिम को ही सामने रखते हुए विवेचना की है। इसलिए यह स्थिति अपरिहार्य थी। तब भी हमने यत्र-तत्र इस सही की सीमाओं से परे जाकर स्थिति से पार पाने की कुछ कोशिश की है।

 

हमारे द्वारा अपनायी गई विवेचना-पद्धति की सीमाओं के बावजूद, सही मुस्लिम इस्लामी विश्वासों एवं व्यवहारों पर एक अत्यधिक व्यापक जानकारी देने वाला स्रोत तो है ही। और हमने उसमें से यथातथ और बड़े पैमाने पर उद्धरण दिये हैं। उसमें 7,190 अहादीस हैं, जो 1243 पर्वों में विभक्त हैं। कई बार एक ही पाठ अनेक पर्वो में थोड़े रूप-भेद से किन्तु भिन्न संरचरण-श्रंखलाओं के माध्यम से आया है। इसीलिए, कई मामलों में, एक हदीस अनके अहादीस की प्रतिनिधि जैसी है और ऐसी एक हदीस को उद्धृत करना यथार्थतः एक पूरे पर्वकों उद्धृत करने के समान है। इस पुस्तक में हमने ऐसे प्रतिनिधि रूप वाली लगभग 675 अलग-अलग हदीसों को उद्धृत किया है। हमारे द्वारा उद्धृत अन्य 700 अहादीस समूह-अहादीस या उनका सार-संक्षेप है। वे अंश जो सिर्फ रस्मों और अनुष्ठानों से सम्बद्ध हैं तथा गैर-मुसलमानों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं रखते, हमने पूरी तरह छोड़ दिये हैं। पर हमने ऐसी हर हदीस जिसका साथ ही कोई गहरा तात्पर्य हो, सहर्ष शामिल की है। यद्यपि ऐसे उदाहरण विरले ही हैं। उदाहरणार्थ, तीर्थयात्रा से सम्बद्ध ”किताब अलहज्ज“ एक लंबी किताब है। उसमें 583 हदीस हैं। पर उनमें एक भी ऐसी नहीं, जो उस ”आंतरिक तीर्थयात्रा“ की ओर किसी भी तरह इंगित करती हो, जिसके बारे में रहस्यवादियों ने इतना अधिक कहा है। इसी तरह ”जिहाद और सैनिक अभियानों की किताब“ में 180 हदीस हैं। पर वहां भी बमुश्किल कोई बात मिलेगी, जो ”जिहाद-अल-अकबर“ अर्थात् अपनी खुद की अधोगामी प्रवृत्तियों (नफ्स) के विरुद्ध ”महान संग्राम“ की भावना का संकेत करती हो। अधिकांश विचार-विमर्श अन्र्तमुखी भाव से रहित है।

 

अन्य हदीस-संग्रहों की ही भांति, सही-मुस्लिम भी पैगम्बर की जिन्दगी की अत्यन्त अन्तरंग झलकें प्रस्तुत करती हैं। पैगम्बर की जो छवि यहां उभरती है वह उन की विधिवत् लिखी गई जीविनयों में चित्रित उन के रूप की अपेक्षा अधिक मूर्त और मानवीय है। उसमें उनको दम्भपूर्ण विचारों और व्यवहारों के माध्यम से नहीं बल्कि उनकी सहज-साधारण जीवनचर्या के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। कोई साज-सज्जा नहीं, कोई कांतिवर्धक अवलेप नहीं, भावी पीढ़ियों के लिए कोई विशेष दिखावा नहीं। उसमें पैगम्बर के जीवन की साधारण चर्या की यथार्थ प्रस्तुति है। वहां वे हमें सोते हुए, खाना खाते हुए, मैथुन करते हुए, इबादत करते हुए, नफरत करते हुए, फैसले करते हुए, दुश्मनों के खिलाफ सैनिक अभियानों की और बदला लेने की योजनाएं बनाते हुए, मिलते हैं। इस प्रकार जो तस्वीर बनती है, उस को मनोहर तो नहीं माना जा सकता। हम विस्मय से भर कर अव्वल तो यह सोचने लगते हैं कि ये बातें आखिर लिखी-बताई ही क्यों गई और फिर यह कि ये बातें उनके प्रशंसकों ने लिखी हैं या विरोधियों ने। यह भी विस्मय का ही विषय रह जाता है कि मोमिनों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कथा इतनी प्रेरणापूर्ण क्यों लगती आई है ?

 

इसका उत्तर यही है कि मोमिनों को इन सारी बातों को श्रद्धा की दृष्टि से देखना सिखाया गया है। एक काफिर अपनी आधारभूत अन्धता के कारण पैगम्बर को इन्द्रियासक्त तथा क्रूर समझ सकता है-और निश्चित ही उनके बहुत-से कार्य नैतिकता के साधारण सूत्रों से सुसंगत नहीं हैं-पर ईमान वाले तो सारे वाकयात को अलग ही नजरिये से देखते हैं। उनके लिए नैतिकता का उद्गम ही पैगम्बर की चर्या से होता। पैगम्बर ने जो किया, वही नैतिक है। पैगम्बर के आचरण का नियमन नैतिकता द्वारा नहीं होता, वरन् उनके आचरण से ही नैतिकता निर्धारित और परिभाषित होती है।

 

इस रीति एवं इस तर्क से ही मुहम्मद के मतामत इस्लाम के धर्म-सिद्धान्त बन गये तथा उनकी निजी आदतें और स्वभावगत विलक्षणताएं नैतिक आदेश मान ली गई। वे सभी ईमानवालों के लिए सभी समय और सभी देशों में अल्लाह का आदेश मान्य हुई।

 

इस पुस्तक के शीर्षक के सम्बन्ध में भी कुछ कहना है। यह हदीस पैगम्बर का ऐसा सहज और यथार्थ चित्रण करती है कि इसे ”हदीस (सही मुस्लिम) के शब्दों में मुहम्मद“ कहना सर्वथा सम्यक् होता। पर क्योंकि इस्लाम का अधिकांश मोहम्मदवाद है, इसलिए उतने ही न्यायोचित रूप में इसे ”हदीस के शब्दों में इस्लाम“ भी कहा जा सकता है।

 

श्रद्धापरायण इस्लामी साहित्य में जब भी पैगम्बर के नाम या उनकी उपाधि का उल्लेख होता है, तो बार-बार दोहराए गए इस आर्शीवचन के साथ होता है कि ”उन्हें शांति प्राप्त हो“। इसी तरह उनके अधिक महत्वपूर्ण साथियों के उल्लेख के साथ यह दोहराया जाता है कि ”अल्लाह उन पर प्रसन्न हों।“ हमने निर्बाध पाठ की सुविधा के लिए, हदीस साहित्य से उद्धरण देते समय इन वचनों को छोड़ दिया है।

 

श्री लक्ष्मीचन्द जैन, डा0 शिशिरकुमार घोष, श्री ए.सी. गुप्त, श्री केदारनाथ साहनी और श्रीमती फ्रैन्सीन एलिसन कृष्ण ने क्रमशः पाण्डुलिपि पढ़ी और कई सुझाव दिये। श्री एच. पी. लोहिया एवं श्री सीताराम गोयल इस रचना के प्रत्येक चरण से जुड़े रहे हैं। अंग्रेजी संस्करण का सारा श्रेय दो भारतीय मित्रों को जाता है-एक बंगाल के हैं, दूसरे आन्ध्र के। दोनों अब अमेरिकावासी हैं। वे अनाम रहना चाहते हैं। श्री पी. राजप्पन आचार्य ने अंग्रेजी की पाण्डुलिपि टंकित की। श्री पंकज ने प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद किया है।

 

मैं इन सब के प्रति कृतज्ञ एवं आभारी हूँ।

रामस्वरूप

HADEES : THE PROPHET�S FATHER AND UNCLES

THE PROPHET�S FATHER AND UNCLES

We must admit, however, that Muhammad was consistent.  He reserved his power for saving his ummah, those who believed in Allah to the exclusion of AllAt and �UzzA, and in his own apostleship.  He did not use it to save even his dearest and nearest ones like his father and uncle.  Regarding his father, he told a questioner: �Verily, my father and your father are in the Fire� (398).  But he was somewhat more kind to his uncle, AbU TAlib, who brought him up and protected him but who did not accept his religion.  About him, Muhammad tells us: �I found him in the lowest part of the Fire and I brought him to the shallow part� (409).  But even this shallowest part must have been roasting the poor uncle.  Muhammad assures us that �among the inhabitants of the Fire AbU TAlib would have the least suffering, and he would be wearing two shoes of Fire which would boil his brain� (413).  Would you call that much of a relief?

Though Muhammad took pride in �establishing ties of relationship,� he himself repudiated all ties with the generations of his forefathers and their posterity.  �Behold! the posterity of my fathers . . . are not my friends,� declares Muhammad (417).  On the Day of Resurrection, their good works will not avail them.  �Aisha, the Prophet�s young wife, reports: �I said: Messenger of Allah, the son of Jud�An [a relation of hers and one of the leaders of the Quraish] established ties of relationship, fed the poor.  Would that be of any avail to him?  He said: it would be of no avail to him� (416).

God�s mind is made up with regard to the polytheists; therefore, a true believer should not even seek blessing on their behalf. As the QurAn says: �It is not meet for the Prophet and for those who believe, that they should beg pardon for the polytheists, even though they were their kith and kin, after it had been known to them that they were the denizens of Hell� (9:113).

author: ram sawrup

HADEES : THE DAY OF JUDGMENT

THE DAY OF JUDGMENT

The Day of Judgment (qiyAmat), the Last Day (yaumu�l-Akhir), is an indispensable prop of Muslim theology.  In the QurAn, the word qiyAmat appears seventy times and in addition has seventy-five synonyms, as shown by Mirza Hairat in his Mukaddma TafsIru�l Furqan. Along with its attendant concepts, Paradise and Hell, it pops up from practically every page of the HadIs too.  The dreaded day (yaum), colorfully described as the day of �reckoning� (hisAb), or of �separation� (fasl), or of �standing up� (qiyAmah), is mentioned over three hundred times in the QurAn.

The arrival of the Last Day will be announced by many signs.  �When you see a slave woman giving birth to her master-that is one sign; when you see barefooted, naked, deaf and dumb as the rulers of the earth-that is one of the signs of Doom.  And when you see the shepherds of the black camels exult in buildings-that is one of the signs of Doom� (6).  In short, when the poor and the deprived inherit the earth, that is the end of it according to Muhammad.

There is a vivid account of the Day of Resurrection in eighty-two ahAdIs at the end of the �Book of Faith.� Muhammad tells us that on this day, Allah �will gather people,� a �bridge would be set over the hell,� and �I [Muhammad] and my Ummah would be the first to pass over it� (349).

Unbelievers, of course, will be thoroughly miserable on this day but even the Jews and the Christians-the Peoples of the Book-will fare no better.  For example, Christians will be summoned and asked, �What did you worship?� When they reply, �Jesus, the son of Allah,� Allah will tell them, �You tell a lie; Allah did not take for Himself either a spouse or a son.� Then they will be asked what they want.  They will say: �Thirsty we are, O our Lord!  Quench our thirst.� They will be given a certain direction, and Allah will ask: �Why don�t you go there to drink water?� When they go there, they will find that they have been misguided; the water is no more than a mirage, and it is really hell.  Then they will �fall into the Fire� and perish (352).

On this day, no other prophet or savior will avail except Muhammad.  People will come to Adam and say: �Intercede for your progeny.� He will reply: �I am not fit to do this, but go to IbrAhIm, for he is the friend of Allah.� They will go to IbrAhIm, but he will reply: �I am not fit to do this, but go to Moses, for he is Allah�s Interlocutor.� They will go to Moses, but he will reply: �I am not fit to do this, but you go to Jesus, for he is the Spirit of Allah and His Word.� They will go to Jesus, and he will reply: �I am not fit to do this; you better go to Muhammad.� Then they will come to Muhammad, and he will say: �I am in a position to do that.� He will appeal to Allah, and his intercession will be granted (377).

In many ahAdIs (381-396), Muhammad tells us that among the apostles he has a special intercessory power, for �no Apostle amongst the Apostles has been testified as I have been testified� (383).  If this is true, it gives substance to his claim that among the apostles he �would have the largest following on the Day of Resurrection� (382).  Thanks to his special role, �seventy thousand persons of [my] Ummah would enter Paradise without rendering an account� (418), and Muslims �would constitute half the inhabitants of Paradise� (427).  Considering that unbelievers, infidels, and polytheists are strictly kept out, and that the entry of Jews and Christians also is prohibited, one wonders who will be the other half of the population of Paradise.

How did Muhammad acquire this special intercessory power?  Muhammad himself answers this question: �There is for every Apostle a prayer which is granted, but every prophet showed haste in his prayer.  I have, however, reserved my prayer for the intercession of my Ummah on the Day of Resurrection� (389).  The translator makes this statement clearer for us.  He says: �The Apostles are dear to Allah and their prayers are often granted.  But with every Apostle there is one request which may be called decisive with regard to his Ummah, and with it is decided their fate; for example, Noah in a state of distress uttered: �My Lord! leave not any one of the disbelievers in the land� (al-QurAn 71.26). Muhammad reserved his prayer for the Day of Resurrection and he would use it for the salvation of the believers� (note 412).

We have no means of knowing about the curse of Noah, but this kind of cursing is quite in Muhammad�s line.  For example, look at his curse against several tribes: �O Allah! trample severely Muzar and cause them a famine . . . O Allah! curse LihyAn, Ri�l ZakwAn, Usayya, for they disobeyed Allah and His Messenger� (1428).

In any case, when the disbelievers are being hurled into the Fire, Muhammad will not intercede even when he knows that no other intercession would avail: �Thou shalt not damn thy enemies, but needst not go out of your way to save them.�

author: ram sawrup