हदीस : नैतिक निष्ठाएं

नैतिक निष्ठाएं

मुहम्मद का मजहब प्रधानतः मीमांसात्मक है। तथापि उसमें नैतिक निष्ठाओं की पूरी तरह उपेक्षा नहीं की गई है। इस्लाम-पूर्व काल में अरब लोग उन अनेक नैतिक निष्ठाओं में आस्था रखते थे, जो समस्त मानव-जात में समान रूप से मान्य रही है। मुहम्मद ने इन निष्ठाओं को कायम रहने दिया, परन्तु उन्हें एक साम्प्रदायिक मोड़ दे दिया। मुसलमान सभी मामलों में स्वयं को मिल्लत का ऋणी मानता है, दूसरों के प्रति आभार-भाव उसमें नगण्य होता है। मानव जाति के अंगभूत गैर-मुसलमानों के प्रति वह किसी भी नैतिक या आध्यात्मिक दायित्व की भावना नहीं रखता। उनके प्रति तो उसका भाव यही रहता है कि तलवार से, तथा लूट कर और जजिया लगाकर उनका मतान्तरण किया जाए। मसलन, सद्भाव एक सार्वभौम मानवीय निष्ठा है और हमें इसका व्यवहार करना ही चाहिए-सम्बन्धित व्यक्ति की राष्ट्रीयता अथवा उसके उपासना-पंथ का विचार किए बिना। किन्तु इस्लाम में, सद्भाव केवल मुसलमानों तक सीमित रहता है। एक जगह मुहम्मद ’अल-दीन‘ (’मजहब‘ यानी इस्लाम) की व्याख्या ”सद्भाव एवं शुभेच्छा“ के रूप में करते हैं जोकि किसी भी मजहब की एक सम्यक् परिभाषा होनी चाहिए। पर जब उनसे पूछा गया कि ”किसके प्रति सद्भाव एवं शुभेच्छा ?“ तब उन्होंने उत्तर दिया-”अल्लाह के प्रति, आस्मानी किताब के प्रति, अल्लाह के रसूल के प्रति, इस्लामी नेताओं-नायकों तथा सर्वसाधारण मुसलमान के प्रति“ (98)। जरीर बिन अब्दुल्ला बतलाते हैं कि उन्होंने ”प्रत्येक मुसलमान के प्रति सद्भाव एवं शुभेच्छा पर ही अल्लाह के पैगम्बर के प्रति निष्ठा प्रतिष्ठित की है“ (122)।

 

इसी तरह का मोड़ अन्य नैतिक निष्ठाओं में भी उभारा गया है और सार्वभौम को साम्प्रदायिक बना डाला गया है। मुहम्मद अपने अनुयायियों से कहते हैं-”किसी मुसलमान को अपशब्द कहना अपराध है और किसी मुसलमान से लड़ना कुफ्र है“ (122)।

लेखक : रामस्वरूप

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