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गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

ओ३म्

गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द सिद्ध योगी और बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने समस्त वेदों एवं वैदिक साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अपनी ऊहापोह व तर्कणा शक्ति से उसका मन्थन कर सत्य व असत्य विचारों व मान्यताओं को पृथक-पृथक किया था। देश हित में उन्होंने वेदों का उद्धार व समाज सुधार के अनेकानेक कार्य किये जिससे देश व समाज को अभूतपूर्व लाभ हुआ और वह अनेक भावी कठिन व जटिल विपदाओं से बच गया। उनके बाद उनके अनुयायियों से इतर लोगों में उन जैसा ज्ञान, सामर्थ्य, सोच, योजना, त्याग व समर्पण न होने के कारण उनका वह स्वप्न आज भी अधूरा है। आज देश के जो हालात हैं, वह भारत के इतिहास का एक कठिनतम दौर है और भविष्य क्या होगा? यह अनुमान लगाना कठिन है जिसके प्रति अनेक आशंकायें हैं। आज इतना ही कहना समीचीन है कि सभी राष्ट्रवादियों को एक जुट होना होगा और छद्म राष्ट्रवादियों को बेनकाब कर उन्हें वैचारिक आधार पर परास्त करना होगा।

 

वैदिक आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियां प्रचलित रही हैं जिनका निराकरण नहीं हो पा रहा था। महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में अपने अपूर्व ज्ञान से सभी भ्रान्तियों का निराकारण किया। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थाश्रम पर आपने अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये हैं जिन पर इस लेख में दृष्टि डाल रहे हैं। महर्षि दयानन्द प्रश्न करते हैं कि गृहस्थाश्रम अन्य तीन ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में सब से छोटा है वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब आश्रम बड़े् हैं। परन्तु–

 

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।।

 

यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।

तथा गृहस्थमाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वं आश्रमाः।।2।। 

 

उपर्युक्त दोनों श्लोक मनुस्मृति के हैं। महर्षि दयानन्द ने इस प्रसंग में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अन्य दो श्लोक भी दिये हैं। इन चारों श्लोकों का अर्थ करते हुए वह कहते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमण करते व बहते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते है।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को गृहस्थाश्रमी दान और अन्नादि देके प्रतिदिन ही धारण करते हैं इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। इसलिये जो मनुष्य वा स्त्री-पुरुष अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे। यह गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने से अयोग्य है। इसको (ब्रह्मचारीगण) अच्छे प्रकार से वरण कर धारण करें। यह मनुजी के विचार व आदेश हैं। मनु जी के इन विचारों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि इस कारण से जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु गृहाश्रम में तभी सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और स्वयंवर (वरवधु द्वारा विवेकपूर्वक स्वयं निश्चित) विवाह है।

 

वैवाहिक जीवन में संयम रखने और ब्रह्मचर्य का पालन करने की ओर भी महर्षि दयानन्द गृहस्थियों का ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं कि गृहस्थ के स्त्री व पुरुषों को यह ध्यान रखना चाहिये कि उनके शरीर में सन्तान उत्पन्न करने के ईश्वर ने जो पदार्थ रज व वीर्य बनाये हैं उनको वह अमूल्य समझे। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं। किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते। जब साधारण बीज और मूर्ख किसान वा माली का ऐसा वर्तमान है तो जो सर्वोत्तम मनुष्य-शरीर रूप के बीज को कुक्षेत्र में खोता है वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उस का उत्तम फल उस मानव बीज की महत्ता न समझने वाले को नहीं मिलता। आत्मा वै जायते पुत्रः यह ब्राह्मण ग्रन्थ और निम्न श्लोक सामवेद के ब्राह्मण ग्रन्थ का है।

 

अंगादंगात् सम्भवसि हृदयादधि जायसे।

            आत्मासि पुत्र मा मृथाः जीव शरदः शतम्।।

 

इस श्लोक में पिता कहता है कि हे पुत्र ! तू अंग -अंग से उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है। इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरना किन्तु सौ वर्ष तक जीवत रहना। जिस पौरूष शक्ति वीर्य से ऐसे-ऐसे महात्मा और महाशयों के शरीर उत्पन्न होते हैं उस को वैश्यादि दुष्ट क्षेत्र में बोना वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना महापाप का काम है। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में जो बात कही है वह चिकित्साशास्त्र और वैदिक ज्ञान का निष्कर्ष है और सदाचार का आधार है।

 

एक समय था जब यूरोप में लोग बिना विवाह किये स्वेच्छाचार करते थे। तब वहां के एक सदाचारी पुरूष वैलेण्टाइन ने आन्दोलन किया और लोगों को विवाह के लिए सहमत किया था। वैलेण्टाइन अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बन गये थे अन्यथा वह इस दिशा और बहुत कार्य करते। उनके नाम पर ही वैलेण्टाइन दिवस मनाया जाता है परन्तु उनकी भावनाओं को भुला दिया गया है। भारत में विवाह का प्रचलन सृष्टि के आदि काल में ही वेदों की शिक्षाओं के आधार पर अस्तित्व में आ गया था। अनेक दुर्मति लोग भी विवाह के विषय में समय-समय पर प्रश्न उठाते रहते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी इन प्रश्नों को उठाया और उनके उत्तर दिये हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि विवाह क्यों करना चाहिये? क्योंकि इस से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है इसलिये जिस के साथ जिस की प्रीति हो तब तक वह मिले रहें, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह पशु पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम रहे तो गृहाश्रम के अच्छेअच्छे व्यवहार सब नष्ट भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी करे। और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्रशीघ्र मर जायें। कोई किसी से भय लज्जा करे। वृद्धाश्रम में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर कुलों के कुल नष्ट हो जायें। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी वा दायभागी भी हो सके और किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकालपर्यन्त स्वत्व वा अधिकार रहे, इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है। महर्षि दयानन्द ने विवाह के पक्ष में इन तर्कों को देकर विवाह विषयक कुतर्क करने वालों के मुंह पर ताला लागा दिया है। आज के समाज में लिवइनरिलेशन व होमोसेक्सुअलिटी के अमर्यादित, ईश्वर व सृष्टि के नियमों के विरुद्ध, व्यवहार व मांगों के परिप्रेक्ष्य में भी महर्षि दयानन्द का विवाह के समर्थन में दिया गया उत्तर विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गृहस्थाश्रम के विषय में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास सहित संस्कारविधि व अपने वेदभाष्य में बहुत ही महत्वूपर्ण विचारों व वैदिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक एवं उपादेय हैं। अनेक वैदिक विद्वानों ने भी इस विषय में कुछ लाभकारी ग्रन्थों की रचना की है जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द स्त्री जाति के सर्वाधिक हितैषी महापुरूष हुए हैं। विवाह की व्यवस्था का आरम्भ वेदों से संसार में हुआ है जिसको इस पृथिवी के सभी भूभागों के लोगों द्वारा अपनाया गया। कालान्तर में विवाह विषयक कुछ नियमों व व्यवहारों को लोग भूल बैठे थे जिससे अनेक समस्यायें उत्पन्न हुईं। आज महर्षि दयानन्द ने विवाह विषयक सभी समस्याओं एवं गृहस्वामी व गृहसम्राज्ञी अर्थात् पति व धर्मपत्नी के विषय में विवाह की अर्हतायें, गुणकर्मस्वभाव की समानता, आयुभेद, गृहस्थ आश्रम में पति व पत्नी के कर्तव्य वा दायित्व आदि विषयों पर पड़े अज्ञानता व रूढि़वाद के आवरण को हटा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचार सभी मतों व धर्मों के लोगों के लिए उपादेय व प्रगतिसूचक हैं। सभी को इनका अध्ययन कर इनसे लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘गृहस्थ जीवन की उन्नति के 16 स्वर्णिम सूत्र’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के वैदिक जीवन के चार सोपान है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास  आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम का काल आरम्भ के 25 वर्षों का होता है जिसमें 8 वर्ष की आयु तक गुरूकुल में जाकर वर्णोच्चारण शिक्षा से आरम्भ कर सम्पूर्ण वेद वा सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन करना होता है। अध्ययन पूरा करने पर गृहस्थ जीवन धारण करने का विधान है जो विवाह संस्कार से आरम्भ होता हे। गृहस्थ जीवन के अपने कर्तव्य हैं जिनमें पंचमहायज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये पंच महायज्ञ प्रातः व सायं वैदिक योग विधि से ईश्वरोपासना जिसमें सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सम्मिलित है, प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ का अनुष्ठान, पितृ यज्ञ जिसमें माता-पिता की सेवा श्रुशुषा कर उन्हें सन्तुष्ट व प्रसन्न करना होता है, चैथे कर्तव्य अतिथि यज्ञ में आचार्य, गुरूओं व आप्त संन्यासियों विद्वानों का सेवा सत्कार कर उन्हें प्रसन्न व सन्तुष्ट करना होता है। अन्तिम गृहस्थ का कर्तव्य पालतू पशुओं, कीट-पंतग व पक्षियों आदि के लिए होता है जिसमें अपने आहार के पदार्थों में से कुछ भाग उनके पोषण के लिए दिया जाता है। 50 से 75 वर्ष की आयु के बीच वानप्रस्थ तथा 75 वर्ष व उससे आगे संन्यास लेकर वेद व वैदिक शिक्षाओं व मान्यताओं का समाज व गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है जिससे समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां आदि जन्म न ले सकें व यदि यह बुराईयां समाज में आ गई हों तो वह दूर हो जाएँ। गृहस्थ आश्रम अन्य तीन आश्रमों का मुख्य आधार है। यदि यह सुधर जाये तो सभी आश्रम अपनी उन्नत अवस्था में रहते हैं। इसके लिए वेद एवं वैदिक साहित्य में आवश्यक ज्ञान भरा हुआ है। उसका स्वाध्याय करने से मनुष्य अज्ञान तिमिर से दूर होकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल हो सकता है।

 

आर्य समाज में स्वामी विद्यानन्द सरस्वती नाम से एक विद्वान संन्यासी हुए हैं जिन्होंने तत्वमसि, वेद  मीमांसा, अनादि तत्व दर्शन, मैं ब्रह्म हूं, सृष्टि विज्ञान और विकासवाद, आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता, आर्ष दृष्टि, आर्य सिद्धान्त विमर्श, अद्वैतमत-खण्डन, सत्यार्थ भास्कर, भूमिका भास्कर, संस्कार भाष्कर, स्वराज्य दर्शन आदि बड़ी संख्या में अनेक महत्वपूर्ण व विद्वतापूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन व रचना की है। उनका समस्त जीवन वेदों की शिक्षाओं पर आधारित था। वह आदर्श शिक्षक, आदर्श गृहस्थी, आदर्श विद्वान और आदर्श संन्यासी रहे और उन्होंने समाज को श्रेयस्कर मार्गदर्शन एवं नेतृत्व प्रदान किया। हमारा यह सौभाग्य था कि हमें उनके दर्शन, वार्ता एवं संक्षिप्त संगति का अवसर मिला। सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में उनका अभिनन्दन कर 31 लाख रूपये की धनराशि समर्पित करने के अवसर पर उनका अभिनन्दन-पत्र तैयार करने का दायित्व महोत्सव के स्वागताध्यक्ष व स्त्यार्थ प्रकाश न्यास के न्यासी यशस्वी कैप्टेन देवरत्न आर्य द्वारा हमें दिया गया था जिसे हमने सामवेदभाष्यकार श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सहयोग से पूरा किया था। अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर वर्तमान आधुनिक समय में गृहस्थ जीवन को सफल व उन्नत करने के लिए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सोलह उपदेश व प्रमुख सूत्रों का संकलन किया। आज हम उनके द्वारा वैदिक ज्ञान का मन्थन कर दिये गये उपदेशों को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

1             ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् जानो और अपने समस्त कर्तव्य-कर्मों को करना ईश्वर की आज्ञाएं पालन करना समझो।

2             अपने कर्तव्यपालन में भी प्रमाद और आलस्य मत करो, प्रत्येक कर्म को समझ कर सचाई के साथ करो।

3             अपनी जीवनचर्या को नियमबद्ध बनाओं जिसमें सूर्योदय से पहले उठना आवश्यक नियम हो।

4             प्रत्येक कार्य के लिए समय नियत करो और प्रत्येक कार्य को उसके नियत समय पर करो।

5             प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान नियत करो और प्रत्येक वस्तु को नियत स्थान पर रखो।

6             सबसे मीठे वचन बोलो, प्रेम रखो, ईष्र्या और द्वेष कभी मत करो।

7             दूसरों के सुख में सुखी तथा दुःख में दुःखी होने की भावना दृढ़ करो।

8             कभी किसी दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा मत करो।

9             अपनी योग्यता का कभी अभिमान मत करो, उसको बढ़ाने का सदैव प्रयत्न करो।

10           बच्चों को विनम्र, सुयोग्य, सदाचारी और कर्मशील बनाने के लिए बचपन में ही शिक्षा देना आवश्यक है और उसके लिए अपने-आपको उदाहरण बनाना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

11           अपने व्यय को आय से कभी अधिक मत बढ़ने दो।

12           शुद्ध, सरल, पवित्र और सादा जीवन निर्वाह करो, बनावट और दिखावट से बचे रहो।

13           स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए आहार-विहार आदि में संयम रखो और व्यायाम अथवा आसन-प्राणायाम आदि नियमपूर्वक करते रहो।

14           गुरुजनों का आदर करो।

15           दुःखों और कठिनाइयों को धीरतापूर्वक सहन करो, कभी घबराओ नहीं, सदैव प्रफुल्लित रहो।

16           अपनी और कुटुम्ब की सेवा के साथ समाज की सेवा करना भी जीवन का उद्देश्य बनाओं।

 

इन उपदेशों को लिखकर स्वामीजी ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा है कि वह हमको ऐसी बुद्धि और शक्ति प्रदान करे कि हम इन नियमों को अपने आचरण में परिणत करके अपना जीवन सफल बनावें। हम अनुमान करते हैं कि यदि सभी मनुष्य इन सार्वदेशिक नियमों को अपना आदर्श बना लें तो इससे समाज व देश की उन्नति सहित मनुष्य जीवन उन्नत व सफल हो सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इन शिक्षाओं को अपने लिए उपयोगी पायेंगे और इससे लाभ उठायेंगे। हमारा निवेदन और सलाह है कि सभी गृहस्थियों को महर्षि दयानन्द लिखित सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ समुल्लासों सहित सप्तम् से दशम् समुल्लास भी अवश्य पढ़ने चाहियें और साथ हि संस्कार विधि में गृहस्थाश्रम प्रकरण को पढ़कर उससे गृहस्थ जीवन में सुख-शान्ति का लाभ लेना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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सभी चार आश्रमों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ गृहस्थाश्रम’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वैदिक जीवन चार आश्रम और चार वर्णों पर केन्द्रित व्यवस्था व प्रणाली है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं और शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण यह चार  वर्ण कहलाते हैं। जन्म के समय सभी बच्चे शूद्र पैदा होते हैं। गुरूकुल व विद्यालय में अध्ययन कर उनके जैसे गुण-कर्म-स्वभाव व योग्यता होती है उसके अनुसार ही उन्हें वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण आचार्यों व शासन व्यवस्था द्वारा दिये जाने का विधान वैदिक काल में था जो महाभारत काल के बाद जन्म के आधार पर अनेक जातियों में परिवर्तित हो गया। वेदानुसार चार वर्ण मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित हैं तो चार आश्रम मनुष्य की औसत वायु लगभग 100 वर्ष के पच्चीस पच्चीस वर्ष के क्रमशः चार सोपान व भाग हैं। प्रथम भाग जन्म से आरम्भ होकर लगभग 25 वर्षों तक का होता है जिसे आयु का ब्रह्मचर्यकाल कहते हैं। जीवन के ब्रह्मचर्यकाल में सन्तान व व्यक्ति को माता-पिता-आचार्य के सहयोग से पूर्ण ब्रह्मचर्य अर्थात् सभी इन्द्रियों के संयम, तप व पुरुषार्थ को करते हुए अधिक से अधिक विद्याओं जिनमें वेदाध्ययन प्रमुख है, का अर्जन करना होता है। कन्याओं के लिए यह आयु 16 वर्ष या कुछ अधिक होती है क्योंकि वैदिक व्यवस्था में युवक द्वारा न्यूनतम पच्चीस वर्ष और कन्या की आयु 16 वर्ष की हो जाने पर उन्हें विवाह करने की अनुमति है। विवाह का होना गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है। विवाह के बाद जो मुख्य कार्य करने होते हैं उसमें ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए आजीविका का चयन और उसका निर्वाह करने के साथ धर्म पूर्वक अर्थात् शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए श्रेष्ठ सन्तानों को उत्पन्न करना, उनका पालन करना व उनके अध्ययन आदि की व्यवस्था करना होता है। गृहस्थ आश्रमी व्यक्ति को इसके साथ नियत समय पर प्रातः सायं योग दर्शन पद्धति व महर्षि दयानन्द निर्दिष्ट वेद विधि से प्रातःसायं ईश्वरोपासना, दैनिक यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ भी यथासमय व यथाशक्ति करने होते हैं। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सभी स्त्री पुरुषों को सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने के साथ देश व समाज सेवा के श्रेष्ठ कार्यों यथा वेद विद्या के अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ व परोपकार आदि कार्यों में यथाशक्ति दान व सहयोग भी करना होता है। 50 वर्ष की आयु तक गृहस्थ जीवन में रहकर जब पुत्र पुत्रियों के विवाह हो जाये और सिर के बाल श्वेत होने लगे तब गृहस्थ जीवन का त्याग कर वन में जाकर स्वाध्याय व शास्त्रों का अध्ययन करते हुए ईश्वर प्राप्ति की साधना में समय व्यतीत करना होता है। 25 वर्षों तक इन कार्यों का अभ्यास कर संन्यास लेने का विधान है जिसमें सभी उत्तरदायित्वों से पृथक, निवृत वा उनका त्याग कर देश व समाज के कल्याण की भावना से सद्ज्ञान वेदों की शिक्षाओं का गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है। इस संन्यास आश्रम की स्थिति में भी अधिक ध्यान ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना में लगाना होता है क्योंकि ईश्वर साक्षात्कार कर अपना परलोक सुधार करना भी मनुष्य व जीवात्मा का प्रमुख कर्तव्य है। इस प्रकार से वेदों से पुष्ट चार आश्रमों का विधान वैदिक आश्रम व्यवस्था कहलाता है जो समूचे मानव समाज में सर्वत्र किंचित भिन्न भिन्न रूपों में आज भी विद्यमान दृष्टिगोचर होता है और यही सर्वाधिक श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था है।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में देशवासी अन्धविश्वासों व विदेशियों की दासता से ग्रसित थे और आश्रम  व्यवस्था का महत्व भूल चुके थे। जो व्यक्ति जिस अवस्था में होता था उसी को श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानता था। ब्रह्चारी स्वयं को चारों आश्रमों में ज्येष्ठ व श्रेष्ठ तथा वानप्रस्थी व संन्यासी अपने अपने को ज्येष्ठ व श्रेष्ठ मानते थे। गृहस्थी क्योंकि प्रायः युवा होते थे अतः वह अपने से अधिक आयु वाले वानप्रस्थियों व संन्यासियों को इस बारे में कुछ कह नहीं सकते थे और इस विषयक शास्त्रीय व प्रमाणित सोच व विचार भी उनमें नहीं था। हमारे शास्त्रों में गुरूकुल में अध्ययनरत ब्रह्मारियों को विशेष महत्व दिया गया है। शास्त्र कहते हैं कि यदि ब्रह्मचारी किसी रथ में कहीं जा रहा है और सामने राजा व अन्य लोग मार्ग में किसी चैराहे पर आ जाये तो उस अवस्था में पहले जाने का अधिकार ब्रह्मचारी का होता है। इसका कारण विद्या को महत्व दिया जाना है। यह एक प्रकार से हमारे देश में वेद विद्या को महत्व प्रदान करने के कारण व्यवस्था दी गई थी जो युक्ति व तर्क संगत है। इन सब परिस्थितियों को जानते समझते हुए जब महर्षि दयानन्द ने सन् 1874 व 1883 में आदिम सत्यार्थ प्रकाश व उसके संशोधित संस्करण तैयार किये तो उन्होंने भी चार आश्रमों में ज्येष्ठ आश्रम कौन सा है? इस पर भी विचार किया। उनके विचार तर्क व युक्ति संगत एवं स्थिति का नीर क्षीर व सारगर्भित विश्लेषण करते हैं। पाठकों के लाभार्थ उनके विचार प्रस्तुत हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का चौथा समुल्लास समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम पर महर्षि दयानन्द का वैदिक मान्यताओं पर उपदेश है। इस समुल्लास के अन्त में उन्होंने गृहस्थाश्रम पर प्रश्न  करते हुए कहा कि गृहाश्रम सब से छोटा वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब बड़े हैं। परन्तु यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।। यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।। यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धारयन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही।।3।। संधारय्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।। (यह चारों मनुस्मृति के श्लोक हैं)

 

मनुस्मृति के इन चार श्लोकों का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही  के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता है।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।।3।। इसलिये जो (अक्षय) मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के योग्य नहीं है उसको (भीरु व निर्बल लोगों से इतर स्त्री पुरुष) अच्छे प्रकार धारण करे।।4।। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य (सभी इन्द्रियों इच्छाओं का संयम उन पर नियंत्रण) और पूर्वोक्त स्वयंवर (आजकल प्रचलित नाम लव मैरिज) विवाह है।

 

गृहस्थाश्रम की ज्येष्ठता के विषय में महर्षि दयानन्द के समय में जो भ्रान्ति थी उसको उन्होंने सदा सदा के लिए दूर  कर दिया। महर्षि दयानन्द के इन विचारों को भारतीय वा हिन्दू मत ने पूर्णतः स्वीकार किया है, यह अच्छी प्रशंसनीय बात है। यदि हमारा हिन्दू समाज मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलितज्योतिष, मृतक श्राद्ध को छोड़कर वैदिक मान्यताओं को अपना ले तथा विवाह में जन्मपत्री को महत्व न देकर युवक व युवती के गुणकर्मस्वभाव को महत्व दें और जन्मना जाति प्रथा को समाप्त कर दें, तो देश व समाज को बहुत लाभ हो सकता है क्योंकि पौराणिक मान्यताओं का आधार सत्य पर नहीं है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने समय में शास्त्रीय प्रमाणों के साथ युक्ति व तर्क से भी सिद्ध किया है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्यों को लोभी व स्वार्थी न होकर दानी व परोपकारी होना चाहिये, यही प्रत्येक व्यक्ति के निजी व समाज के हित में होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि गृहस्थ में रहते हुए सभी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये जिससे सभी निरोगी होकर दीघार्य हों। आज रोगों व अल्पायुष्य का कारण हमारा दूषित खान-पान, अनियमित दिनचर्या, बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाओं संबंधी तनाव एवं वैदिक जीवन मूल्यों से दूर जाना है। वैदिक मूल्य वा वैदिक जीवन पद्धति ही आज की समस्त समस्याओं का एकमात्र निदान है। आईये, वेद की शरण लेकर जीवन को सुखी व जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ें व उसे प्राप्त करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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