ओ३म्
महर्षि दयानन्द महाभारतकाल के बाद संसार में वेदों के सर्वाधिक ज्ञानसम्पन्न विद्वान व ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों वा वेदों की संहिताओं की खोज कर उनका संरक्षण करने के साथ वेदों पर भाष्य भी किया। मनुष्य जाति मुख्यतः वेदप्रेमियों का यह दुर्भाग्य था कि कुछ पतित लोगों ने उनको विषपान करा कर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जिससे उनका वेदभाष्य पूरा न हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है, वह उपलब्ध वैदिक साहित्य में महत्वूपर्ण एवं वैदिक विद्वानों द्वारा सर्वत्र आदरणीय एवं सम्माननीय है। स्वामीजी ने वेदभाष्य से इतर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें उन्होंने वेद अर्थात् ईश्वर की आज्ञानुसार सभी स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। संस्कारविधि ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्यों के 16 संस्कारों पर प्रकाश डालने के साथ संस्कारों में प्रासंगिक वेदमन्त्रों का विनियोग कर संस्कार व उससे सम्बन्धित कर्तव्यों की विस्तृत व पूर्ण विधि पर भी प्रकाश डाला है। यह ज्ञातव्य है कि महर्षि दयाननन्द ने समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम संस्कारों में अनेक वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। यह सभी मन्त्र व उनके अर्थ उनके नवदम्पतियों को वेदोपदेश ही हैं। आईये, गृहस्थ आश्रम पर उनका सम्पादनयुक्त एक उपदेश सुनते हैं।
(हे स्त्री-पुरुषों) ‘गृहाश्रम–संस्कार’ उसे कहते हैं कि जो ऐहिक और पारलौकिक सुख–प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करना, नियतकाल में यथाविधि ईश्वर–उपासना, गृहकृत्य करना, सत्य धर्म में ही अपना तन–मन–धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पति करना। इसके बाद वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उन्होंने उनके अर्थ किये हैं जिसमें वह कहते हैं कि सुकुमार, शुभगुणयुक्त, वधू की कामना करनेवाला पति तथा पति की कामना करनेवाली वधू और दोनों श्रेष्ठ, तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले होवें। ऐसी जो सूर्य की किरणवत् सौन्दर्य गुणयुक्त, पति के लिए मन से गुण–कीर्तन करनेवाली वधू है, उसको पुरुष और इसी प्रकार के पुरुष को स्त्री सकल जगत् का उत्पादक परमात्मा देता है अर्थात् बड़े भाग्य से दोनों स्त्री–पुरुषों का जो कि तुल्य गुण–कर्म–स्वभाव वाले हों, जोड़ा मिलता है।
हे स्त्री और पुरुषों ! मैं परमेश्वर आज्ञा देता हूं कि तुम्हारे लिए विवाह में जो प्रतिज्ञा हो चुकी है, जिसे तुम दोनों ने स्वीकार किया है, इसी में तत्पर रहो, इस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ। ऋतुगामी होके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आयु जो सौ वर्षों से कम नहीं है, उसे प्राप्त होओ और वैदिक धर्म रीति से पुत्रों और नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उत्तम गृहवाले आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक निवास करो। वघू को सम्बोधित कर वह कहते है कि हे वरानने ! तू अच्छे मंगलाचरण करने तथा दोष और शोकादि से पृथक् रहनेवाली, गृह–कार्यों में चतुर और तत्पर रहकर उत्तम सुखयुक्त होके पति, श्वशुर और सासु (देवर और ननद सहित) के लिए सुखकत्र्री और स्वयं प्रसन्न हुई इन घरों में सुखपूर्वक प्रवेश कर। हे वघू ! तू श्वशुरादि के लिए सुखदाता, पति के लिए सुखदाता, गृहस्थ सम्बन्धियों (देवर व ननद आदि) के लिए सुखदायक हो और इस सब प्रजा के अर्थ सुखप्रद और इनके पोषण के अर्थ तत्पर हो। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा जवान स्त्रियां (यदि कोई हो) और जो इस स्थान में बू्ढ़ी-वृद्ध स्त्रियां हों, वे भी इस वधू को शीघ्र तेज अर्थात् शुभकामनायें व आर्शीवाद देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जायें और फिर इसके पास कभी न आवें। हे वरानने ! तू प्रसन्नचित होकर पलंग पर शयन कर और गृहाश्रम में स्थिर रहकर इस पति के लिए प्रजा को उत्पन्न कर। सुन्दर ज्ञानी उत्तम शिक्षा को प्राप्त सूर्य की कान्ति के समान तू उषःकाल से पहली ज्योति के तुल्य प्रत्यक्ष सब कामों में जागती रह (सजग व सावधान रह)।
हे सौभाग्यप्रदे नारी ! जैसे इस गृहाश्रम में प्रथम विद्वान लोग उत्तम स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तू विविध प्रकार से सुन्दररूप को धारण करनेहारी, सत्कार को प्राप्त होके सूर्य की कान्ति के समान अपने स्वामी के साथ मिलके प्रजा को प्राप्त होनेवाली अच्छे प्रकार हो। हे स्त्री-पुरुषों ! तुम बालकों के जनक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तानों को अच्छे प्रकार उत्पन्न करो। हे पुरुष वा पति ! इस अपनी स्त्री को सन्तानों से बढ़ा और दोनों परस्पर मिलकर इस गृहाश्रम में प्रजा को उत्पन्न करो, पालन-पोषण करो और पुरुषार्थ से धन को प्राप्त होओ। हे वृद्धिकारक पुरुष ! जिसमें मनुष्य लोग बीज को बोते हैं, उस अतिशय कल्याण करनेवाली स्त्री को सन्तानोत्पत्ति के लिए प्रेम से प्रेरणा कर। हे स्त्री और पुरुष ! जैसे सूर्य सुन्दर प्रकाशयुक्त प्रभातवेला को प्राप्त होता है, वैसे सुख से घर के मध्य में सन्तानोत्पत्ति आदि की क्रिया को अच्छे प्रकार जाननेवाले, सदा हास्य और आनन्दयुक्त, बड़े प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए, उत्तम चालचलन से धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छे प्रकार चलनेवाले, उत्तम पुत्रवाले, श्रेष्ठ गृहादि सामग्रीयुक्त उत्तम प्रकार की सत्नानों को धारण करते हुए गृहाश्रम के व्यवहारों को पूरा करो।
प्रवचन को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि हे परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् राजन् ! आप इस संसार में इन स्त्री–पुरुषों को समय पर विवाह करने की आज्ञा और ऐसी व्यवस्था दीजिए कि जिससे कोई स्त्री–पुरुष वैदिक रीति के विपरीत विवाह योग्य आयु से पूर्व वा अन्यथा विवाह न कर सकें। वैसे सबको प्रसिद्धि से प्रेरणा कीजिए जिससे ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा को पाकर जाया और पति चकवा–चकवी के समान एक–दूसरे से प्रेमबद्ध रहें और गर्भाधान–संस्कारोक्त विधि से उत्पन्न हुई प्रजा से ये दोनों सुखयुक्त होके सम्पूर्ण–सौ वर्षपर्यन्त आयु को प्राप्त होवें। हे मनुष्यों! जैसे विद्यादि उत्तम गुणों का (उपदेश व प्रवचन द्वारा) दान करने वाले उत्तम स्त्री-पुरुष पुत्रोत्पत्ति करते और पुत्र की कामना करते हैं, वैसे हमारे भी सन्तान उत्तम होवें तथा बल, प्राण का नाश न करनेवाले होकर बड़े परोपकार के अर्थ विज्ञान और अन्न आदि के दान के लिए कटिबद्ध सदा रहें, जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम होवें। पति अपनी पत्नी को सम्बोधित कर शिक्षा देता है कि हे पत्नि ! तू शतवर्षपर्यन्त वा दीर्घकाल तक जीने के लिए उत्तम बुद्धियुक्त, सद्ज्ञानयुक्त होकर मेरे घरों को प्राप्त हो और मुझ घर के स्वामी की तुझ स्त्री, जैसे तेरा दीर्घकाल-पर्यन्त जीवन होवे, वैसे प्रकृष्ट ज्ञान और उत्तम व्यवहार को यथावत् जान। दम्पति की इस आशा को सब जगत् की उत्पत्ति और सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवेाला परमात्मा अपनी कृपा से सदा सिद्ध करे। जिससे वह दोनों सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें। ईश्वर गृहस्थों को उपदेश कर कहते है कि हे गृहस्थो ! मैं ईश्वर तुमको जैसी आज्ञा देता हूं, वैसा ही आचरण व व्यवहार करो, जिससे तुम्हें अक्षय सुख हो, अर्थात् जैसे तुम अपने लिए सुख की इच्छा करते और दुःख नहीं चाहते हो, वैसे ही तुम दोनों माता-पिता, सन्तान, स्त्री-पुरुष, भृत्य, मित्र, पड़ोसी और अन्य सबसे समान हृदय रहो। मन से सम्यक् प्रसन्नता और वैर-विरोधादिरहित व्यवहार को तुम्हारे लिए स्थिर करता हूं। तुम (अघ्नया) हनन न करने योग्य गाय जैसे अपने सद्योजात उत्पन्न हुए बछड़े पर वात्सल्यभाव से वर्तती है, वैसे एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कामना (सद्भावना) से वर्ता करो।
परमात्मा के गृहस्थियों को उपदेश को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि हे गृहस्थों ! जैसे तुम्हारा पुत्र माता के साथ प्रीतियुक्त मनवाला, अनुकूल आचारणयुक्त, और पिता के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रेमवाला होवे, वैसे तुम भी अपने पुत्रों के साथ सदा वर्ता करो। पुत्रों के समान व्यवहार ही पुत्रियों के प्रति भी करो। जैसे स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए माधुर्यगुणयुक्त वाणी को कहे, वैसे पति भी शान्त होकर अपनी पत्नी से सदा मधुर भाषण किया करे। हे गृहस्थो ! तुम में भाई भाई के साथ द्वेष कभी न करे। और बहिन बहिन से द्वेष कभी न करे तथा बहिन–भाई भी परस्पर द्वेष मत करो, किन्तु सम्यक् प्रेमादि गुणों से युक्त समान गुण–कर्म–स्वभाववाले होकर मंगलकारक रीति से एक–दूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करो। हे गृहस्थो ! जिस प्रकार के व्यवहार से विद्वान लोग परस्पर पृथक भाववाले नहीं होते और परस्पर में द्वेष कभी नहीं करते, वही कर्म, मैं ईश्वर, तुम्हारे लिए निश्चित करता हूं। पुरुषों को अच्छे प्रकार चिताता हूं कि तुम लोग परस्पर प्रीति से वर्तकर बड़े धनैश्वर्य को प्राप्त होओ। हे गृहस्थादि मनुष्यो ! तुम उत्तम विद्यादिगुणयुक्त, विद्वान, सद्ज्ञानी, धुरन्धर होकर विचरण करते हुए और परस्पर मिलकर धन-धान्य व राज्यसमृद्धि को प्राप्त होते हुए विरोधी वा पृथक्-पृथक् भाव परस्पर मत करो। एक दूसरे के लिए सत्य, मधुर भाषण करते हुए एक-दूसरे को प्राप्त होओ। इसीलिए समान लाभ व हानि में एक-दूसरे के सहायक तथा एक-मत (समान-मत) वाले तुमको करता हूं अर्थात् मैं ईश्वर तुमको जो आज्ञा देता हूं, इसको आलस्य छोड़कर किया करो (जिससे तुम सुखी, आनन्दित व सम्पन्न हों)।
स्वामी दयानन्द जी का गृहस्थियों को यह उपदेश जारी है। यदि हम इसे पूरा प्रस्तुत करें तो इस सामग्री की दुगुगी सामग्री अभी शेष है। अतः हम सभी पाठकों वा गृहस्थियों से निवेदन करते हैं कि वह संस्कारविधि का गृहस्थाश्रम प्रकरण पूरा पढ़े और महीने में एक या दो बार इसे दोहरा लिया करें जिससे इसके पाठ व आचरण से परिवार में प्रेम, सुख, शान्ति व समृद्धि विद्यमान रहे। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन उपदेश को पसन्द करंेगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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