शायद बहुत ही कम लोगों को यह मालूम हो कि आर्यसमाज के जो प्रमुख कार्यकत्र्ता थे, वे जात–पाँत तोड़क मण्डल के भी कार्यकत्र्ता थे। वैधानिक दृष्टि से हमारे कुछेक मित्रों का यह कथन ठीक है कि जात-पाँत तोड़क मण्डल एक स्वतन्त्र संस्था है और उसका आर्यसमाज से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर गहराई से देखा जाए तो जात-पाँत तोड़क मण्डल और आर्यसमाज का अविभाज्य सा आत्मीय सम्बन्ध था। इस मण्डल के अधिकांश सभासद वैदिक मतावलम्बी थे।
मण्डल के संस्थापक सन्तराम बी0 ए0 (1887-1988) स्वामी दयानन्द की लकीर के फकीर या पूर्णतः दयानन्द के अनुयायी न भी हों, पर दयानन्द के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के ˗प्रति वे नतमस्तक थे। सन् 1971-72 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में संतराम बी0 ए0 लिखित स्वामी दयानन्द नामक एक प्रदीर्घ चरित्र लेख पढ़ाया जाता था। संतराम बी0 ए0 के लिए अपने ’मण्डल के बाद सबसे निकटतम और आत्मीय अगर कोई संस्था थी, तो वह आर्यसमाज थी।‘
श्री संतराम बी0 ए0 की ओर से डॉ0 अम्बेडकर के साथ जो 27.3.1937 को पत्र व्यवहार हुआ, उसमें डॉ0 अम्बेडकर के अध्यक्षीय भाषण पर तीव्र असन्तोष करने वाले जो चार या पाँच व्यक्तियों के नाम दिये गये हैं, उनमें क्रमशः प्रथम तीन व्यक्ति तो मेरी जानकारी के अनुसार सुप्रसिद्ध अखिल भारतीय आर्यसमाजी नेता हैं। जिनके नाम हैं-भाई परमानन्द (1876-1947), महात्मा हंसराज (1864-1938) और डॉ0 गोकुलचन्द नारंग एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 लिट् (1878-1969)।
भाई परमानन्द बचपन में ही आर्यसमाजी बन गये थे, लाहौर के दयानन्द हाईस्कूल व कॉलेज के वे स्नातक थे। दयानन्द कॉलेज लाहौर में आप प्राध्यापक भी रहे और दयानन्द एँग्लो वैदिक (डी0 ए0 वी0) शिक्षण संस्था के आदेश पर आप प्रचारक के रूप में विदेश गये और आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार किया। ये वे ही भाई परमानन्द हैं, जिन्हें आजन्म काले पानी की सजा हुई थी। जो सरदार भगत सिंह के दादा–पिता के आत्मीय सखा–स्नेही थे, तथा लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में सुखदेव–भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों के प्राध्यापक थे।
दूसरा नाम है महात्मा हंसराज का, जो दयानन्द कॉलेज (डी0 ए0 वी0) लाहौर के प्राचार्य थे और जिन्होंने किसी प्रकार का पारिश्रमिक न लेते हुए 26 वर्ष (1886-1912) तक उक्त शिक्षण संस्था की सेवा की थी और जीवन के 26 वर्ष आर्यसमाजी आन्दोलन के लिए समर्पित किये थे।
तीसरे महानुभाव डॉ0 गोकुलचन्द नारंग भी भाई परमानन्द के शिष्य और डी0 ए0 वी0 शिक्षण संस्था के विद्यार्थी थे। आप स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित ’भारतीय शुद्धि सभा‘ (1923) की कार्यकारिणी के सभासद थे। पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखित ’आर्यसमाज का इतिहास‘ का आपने प्राक्कथन लिखा है। इन्द्रजी ने इन्हें
आर्यजाति का ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध नेता कहा है। आप डी0 ए0 वी0 कॉलेज लाहौर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।
20 फरवरी 1925 में मुम्बई के डॉ0 कल्याणदास देसाई की अध्यक्षता में जात–पाँत तोड़क मण्डल का जो वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन को सम्बोधित करने वाले अधिकांश व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 घासीराम (1873-1934), स्वामी मुनीश्वरानन्द, स्वामी सत्यदेव आदि उल्लेखनीय हैं। इस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उससे भी इस मण्डल पर आर्यसमाज की छाप या प्रभुत्व की बात स्पष्ट होती है, प्रस्ताव निम्न प्रकार है –
”इस मण्डल की सम्मति में आजकल जो वर्ण-व्यवस्था प्रचलित है, वह बुरी है, इसलिए आवश्यक है कि खान-पान और विवाह विषयक बन्धनों को उठा दिया जाए, इसलिए यह मण्डल प्रत्येक आर्य युवक-युवती को प्रेरणा देता है कि विवाह आदि के कार्यों में जो मौजूदा बन्धन है, उन्हें जान-बूझकर तोड़ें और जात-पाँत के बाहर विवाह करें।“
आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं-’बीसवीं सदी के प्रथम चरण (सन् 1921) में लाहौर में जात-पाँत तोड़क मण्डल की स्थापना हुई, जिसके ˗प्रमुख नेता सन्तराम बी0 ए0 थे। यद्यपि यह मण्डल आर्यसमाज के संगठन के अन्तर्गत नहीं था, पर इसका संचालन आर्यसमाजियों द्वारा ही किया जा रहा था। यह मण्डल जात–पाँत तोड़कर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आन्दोलन करता था।‘
स्पष्ट है कि आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल वैधानिक दृष्टि से दो स्वतन्त्र संस्थाएँ होते हुए भी विचारधारा की दृष्टि से जात-पाँत तोड़क मण्डल आर्यसमाज का ही पर्यायवाची या एक पोषक भाग था। आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार में विशेष दिलचस्पी ली थी। डॉ0 अम्बेडकर भी अपने ढंग विशेष से इन अभियानों में विशेष अभिरुचि रखते थे। इन कार्यक्रमों के सन्दर्भ में विचार साम्य होने के कारण ही जात-पाँत तोड़क मण्डल के माध्यम से श्री संतराम जी बी0 ए0 ने डॉ0 अम्बेडकरजी को ’मण्डल‘ के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन ने जाने वे कौन से कारण रहे कि तत्कालीन कतिपय आर्यसमाजी डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को यथावत् सुनने की सहनशीलता का भी परिचय नहीं दे सके। काश यदि वे डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को धीरज से सुन लेते। मतभेदों के बावजूद अपनी आग्रही भूमिका को एक ओर रखकर उदारमतवादियों के लिए खुलकर चर्चा करने का वातावरण बनाना जरूरी होता है, पर तत्कालीन आर्यसमाजी उस प्रकार की खुली चर्चा का वातावरण बनाने में असमर्थ रहे। यदि वे समर्थ होते तो, आज उन्हें कम–से–कम इस बात का तो श्रेय मिलता कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने अधिवेशन की अध्यक्षता करने का पहला अवसर सर्वप्रथम उन्होंने ही दिया था। अब तो इतिहास में आर्यसमाज केवल एक अयशस्वी निमन्त्रक या संयोजक बनकर रह गया है। इतिहासकार इतना ही कह सकेगा कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने का एकमात्र निमन्त्रण यदि किसी ने दिया था तो वह आर्यसमाजियों ने, पर वह भी मूर्तरूप धारण न कर सका, अयशस्वी रहा। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में-”मेरा विश्वास है-यह पहला अवसर है जबकि स्वागत समिति ने अध्यक्ष की नियुक्ति को समाप्त कर दिया, क्योंकि वह अध्यक्ष के विचारों को स्वीकार नहीं करती थी।“
चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने शास्त्रों के साथ वेद की भी आलोचना की थी, जो तत्कालीन वेद प्रामाण्यवादी आर्यसमाजियों को सहन नहीं हुई। सम्भवतः इसीलिए आर्यसमाज बच्छोवाली लाहौर के पूर्व प्रधान श्री हरभगवान् ने अपने 14 अप्रैल, 1937 के पत्र में डॉ0 अम्बेडकरजी को लिखा था कि-”हममें से कुछ हैं, जो चाहते हैं कि अधिवेशन बगैर किसी अप्रिय घटना के साथ सम्पन्न हो, इसलिए वे चाहते हैं कि-कम-से-कम वेद शब्द इस समय के लिए छोड़ दिया जाए।“ स्मरण रहे इस अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने भावी धर्मांतरण का संकेत देते हुए यह घोषणा कर दी थी कि ’हिन्दू के रूप में मेरा यह अन्तिम भाषण होगा।‘ वेद की तथाकथित आलोचना और भविष्य में धर्मांतरण का संकेत, ये दोनों ही तथ्य ऐसे थे कि जिन्हें सहजता से सहन कर पाना आर्यसमाज के लिए असम्भव था। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर अडिग रहे। डॉ0 अम्बेडकर अपने विचारों पर दृढ़ थे और किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार न थे और उन्होंने बिना लाग लपेट के स्पष्ट कर दिया था-“मैं अल्पविराम तक परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं अपने भाषण पर किसी प्रकार के सेंसर की अनुमति नहीं दूँगा।” इसके अतिरिक्त जात-पाँत तोड़क मण्डल के प्रतिनिधि को उन्होंने यह भी लिखा था कि-”यदि आप में से कोई भी थोड़ा संकेत करता कि आप मुझे अध्यक्ष चुनकर जो सम्मान दे रहे हैं। उसके बदले मुझे धर्मांतरण (हिन्दू से बौद्ध) के कार्यक्रम में अपने विश्वास का परित्याग करना होगा, तो मैं आपसे स्पष्ट शब्दों में कह देता कि मैं आपसे मिलनेवाले सम्मान से अधिक अपने विश्वास की परवाह करता हूँ।“