भला समय बीतते भी कहीं समय लगता है? विश्वास नहीं होता कि डॉ. धर्मवीर जी को पार्थिवता से मुक्त हुये एक वर्ष हो गया। हो भी कैसे? एक दिन की …. है जो हमारे हृदय पटल पर उस दिव्य मूर्ति का सौम्य स्वरूप न प्रकट हुआ हो, जो हमारी सांसों के स्पन्दन में भीगी हुयी करुणा न छायी हो, जो हमारे कण्ठ ने फफक-फफक कर आहें न भरी हों, जो इन शुष्क आखों ने यह जानते हुये कि यह सम्भव नहीं है राह तकते-तकते तनिक आराम की ख्वाहिश की हो। पर समय पर जोर किसका? वह तो यूँ भी बीतेगा और यूँ भी।
हाय रे! निष्ठुर हृदय, निष्ठुरता पर आश्चर्य है। इतने संताप को तू सह कैसे गया?
हे आचार्य! जरा देखो तो, आपकी सजाई बगिया का हर नुक्कड़ आपकी बाट जोहता है। ये झील, ये पर्वत, ये उमड़ती हुयी बदलियाँ आपके गुञ्जायमान शब्दों के श्रवण को लालयित हैं। देखें इन वृक्षों को और लताओं को, इन खिलती हुयी कलियों की मजबूर हँसी को। लगता है जैसे हँसने की कोई कीमत ली हो इन्होंने। निरापद झूठी और फीकी हँसी। यह निष्प्राण उद्यान अब किसी बीहड़ वन सा मालूम होता है। न जाने क्यूँ? पर सब कछ नीरस सा हो गया है। सब कुछ बिखर सा गया है। किस-किस बात पर रोयें। उस जगन्नाथ के रहते हम स्वयं को अनाथ भी नहीं कह सकते, भला हम क्या जगत् से बाहर हैं? और सनाथ कहने का भी अब कोई कारण न रहा है। हाय! माता जी की अन्तर्वेदना को कौन मरणधर्मा जान सकता है। कौन सुन सकता है उनके दर्द की पुकार। अब तो आँसू भी थक गये है। किसका सामथ्र्य है जो उन पथरायी हुयी आँखों से आखें मिला सके। दिन में न जानें किनी बार एक ही प्रश्र उनकी जिह्वा पर उठता है बाकी सब ठीक पर धर्मवीर जी क्यों …..? कदाचित् आपके पास इसका उत्तर हो।
काश….काश! कि आप इस पीड़ा को सुन पाते। पर अफसोस! ‘काश’ जैसे शब्द तो पीड़ा को बढ़ाने के लिये बनते हैं।
वो और दौर था जब संन्यासी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त और पं. लेखराम जैसे दिग्गजों की धाक् थी। स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति और पं. चमूपति जैसे सूरमा विचरते थे। किसी एक के हाथ से पतवार छूटे तो पलक झपकते ही उसे दूसरा सम्भाल लेता था। पर आज तो आर्यजगत् की पतवार सिर्फ और सिर्फ आपके हाथ में थी। और कोई दीखता ही नहीं जो खिवैया बन सके। न जाने इस नैया को और कितना वक्त लगे अपना सिपैया ढूढऩे में। वैदुष्य के दर्शन को हमारी आखें तरस गयी हैं। वेद और उपनिषद् की बातें तो जैसे बातें ही बनकर रह गयी हैं। अब अगर विरोधी प्रश्र उठायें तो हमारी आँखें झुक जायेंगी। मगर हाँ! आपको ये जानकर सन्तोष होगा कि आपकी जलाई लौ मन्द बेशक पड़ी हो, पर बुझी नहीं है और हमारा विश्वास है कि दयानन्द के स्वप्र पर बलिहारी होने को फिर अनेकों धर्मवीर उठ खड़े होंगे। ऋषिवर की जय-जयकार चहुँओर गूँजेगी।
‘आप नहीं हैं’ इस सत्य को स्वीकार करने में हम अब तक समर्थ न हो पाये हैं। और शायद हो भी न सकें। यतो हि यह सत्य भी असत्य सा मालूम होता है और कदाचित् हो भी। आपकी वाणी और आपकी लेखनी आज भी हृदयों को झंकझोरने में समर्थ है। आपके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जा रहा है। ये समस्त कार्य सदैव आपके होने की सूचना देते रहेंगे।
हे आचार्य! हमें प्रेरणा दीजिये कि हम आपके पथ के पथिक बन सकें।