धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!
कुछ वर्ष पूर्व की बात है। दयानन्द मठ दीनानगर के वयोवृद्ध -‘जिज्ञासु’ कर्मठ साधु स्वामी सुबोधानन्दजी ने देहली के लाला दीपचन्दजी के ट्रस्ट को प्रेरणा देकर सत्यार्थप्रकाश के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हीं का साहित्य और उन्हीं का वाहन मँगवाया। स्वामीजी उस वाहन के साथ दूर-दूर नगरों व ग्रामों में जाते।
वर्षा ऋतु थी। भारी वर्षा आई। नदियों में तूफ़ान आ गया। बहुत सवेरे उठकर स्वामी सुबोधानन्द शौच के लिए खेतों में गये। लौट रहे थे तो मठ के समीप बड़े पुल से निकलकर गहरे चौड़े नाले में गिर गये। वृद्ध साहसी साधु ने दिल न छोड़ा। किसी प्रकार से उस बहुत गहरे पानी में से पुल के नीचे से निकल गये और बहुत दूर आगे जाकर जहाँ पानी का वेग कम था, बाहर निकल आये। पगड़ी गई, जूता गया। मठ में आकर वस्त्र बदले किसी को कुछ नहीं बताया। किसी और का जूता पहनकर वाहन के साथ अँधेरे में ही चल पड़े। जागने पर एक साधु को उसका जूता न मिला। बड़े आश्चर्य की बात थी कि रात-रात में जूता गया कहाँ? किसी को कुछ भी समझ में न आया। जब स्वामी श्री सुबोधानन्दजी यात्रा से लौटे तब पता चला कि उनके साथ ज़्या घटना घटी। तब पता लगा कि जूता वही ले-गये थे।
ऋषि मिशन के लिए जवानियाँ भेंट करनेवाले और पग-पग पर कष्ट सहनेवाले ऐसे प्रणवीरों से ही इस समाज की शोभा है। स्मरण रहे कि यह संन्यासी गज़टिड आफ़िसर रह चुके थे और
कुछ वर्ष तक आप ही हिमाचल प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। आइए! इनके पदचिह्नों पर चलते हुए हम सब ऋषि-ऋण चुकाने का यत्न करें।