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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

धर्म और दर्शन के क्षेत्र में ऋषि दयानन्द की देन

प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

हर आर्यसमाजी को एक चिन्ता सताती है कि आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो। अलग-अलग लोग अपनी-अपनी सममति देते हैं। सबसे पहले वे लोग हैं जो लोगों को आकर्षित करने के लिये लोकरञ्जक उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। कोई सत्संग में भोजन का सुझाव देता है, तो कोई बच्चों में मिठाई बाँटने की बात करता है। खेल-मेले, आयोजन की बात करता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे कि आज आर्यसमाज का सारा कार्यक्रम तीन बातों तक सिमट गया है- जलसा, जूलूस और लंगर। भीड़ जुटाने के लिये हमारे पास विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। बच्चों और विद्यालय के अध्यापकों की संखया जोड़कर आर्यसमाज के कार्यक्रम सफल किये जाते हैं।

नगर के स्तर पर यदि दो-चार समाजें हैं तो उत्सव के समय आर्यसमाजों के लोग मिलकर एक-दूसरे के कार्यक्रम में समिलित हो जाते हैं, तो संखया सौ-पचास हो जाती है और हम उत्सव सफल मान लेते हैं, प्रान्तीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर, सभी स्थानों पर वही मूर्तियाँ आपको दिखाई देती हैं। यदि इस संखया को बढ़ाना हो तो हम अपने कार्यक्रम में किसी राजनेता को बुला लेते हैं।

ऐसे व्यक्ति के आने से उनके साथ आने वालों की संखया से समारोह की भीड़ बढ़ जाती है। समाज का भी कोई कार्य हो जाता है तथा राजनेताओं को जन-समपर्क करने का अवसर मिल जाता है। हमारी इच्छा रहती है कि हम कोई ऐसा कार्य करें, जिससे हमारे कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी बढ़े। हम अपने कार्यक्रमों की तुलना समाज के पन्थों, महन्तों के कथा आयोजनों से करते हैं। आजकल ये कथाएँ भागवत, सत्यनारायण, सुन्दरकाण्ड, और भी बहुत सी पौराणिक कथायें चलती हैं, इनसे लोगों का मनोरञ्जन हो जाता है, कथावाचक को अच्छी दक्षिणा की प्राप्ति हो जाती है और आयोजक भी  सोचता है कि वह पुण्य का भागी है। आर्यसमाज के पास ऐसी लोक लुभावन कथा तो है नहीं। आर्यसमाज वेद-कथा करता है, इस कथा को करने वाले ही नहीं मिलते तो सुनने वाले कहाँ से मिलेंगे।

हमें समझना चाहिए कि हमारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे भीड़ को आकर्षित किया जा सके। भीड़ आकर्षित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है- चमत्कार दिखाकर जनसामान्य को मूर्ख बनाना। साईं बाबा, सत्य सांई, आसाराम, निर्मल दरबार, सच्चा सौदा व सैंकड़ों मत-मतान्तर हैं, जो चमत्कारों से जनता पर कृपा की वर्षा करते हैं, ऋषि दयानन्द ने किसी को कोई चमत्कार नहीं दिखाया।

न कोई झूंठा आश्वासन दिया। आज व्यक्ति ही नहीं बल्कि मत-समप्रदाय भी लोगों को चमत्कारों से ही मूर्ख बनाते हैं। ईसाई लोग चंगाई का पाखण्ड करते हैं, दूसरों के पाप ईसा के लिये दण्ड का कारण बताते हैं। ईसा पर विश्वास लाने पर सारे पाप क्षमा होने की बात करते हैं। मुसलमान खुदा और पैगमबर पर ईमान लाने की बात करते हैं। खुदा पर ईमान लाने मात्र से ईमान लाने वाले को जन्नत मिल जाती है। जिहाद करने, काफ़िर को मारने से और कुछ भी बिना किये खुदा जन्नत बखश देता है। पौराणिक गंगा-स्नान कराके ही मुक्त कर देता है। व्रत-उपवास, कथाओं से ही दुःख ढ़ल जाते हैं, स्वर्ग मिल जाता है। मन्दिर में देव-दर्शन से पाप कट जाते हैं। सारे ही लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं और भीड़ चमत्कारों के वशीभूत होकर ऐसे गुरु, महन्त, मठ, मन्दिरों पर धन की वर्षा करती है। क्या ऋषि दयानन्द ने कोई चमत्कार किया अथवा क्या आर्यसमाज के पास कोई चमत्कार है, जिसके भरोसे भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है?

इसके अतिरिक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय है-प्रलोभन। कोई व्यक्ति किसी के पास किसी के लाभ विचार से जाता है। कुछ लोग भोजन, वस्त्र, धन का प्रलोभन देते हैं। ईसाई लोग गरीबों में भोजन, वस्त्र बाँटकर लोगों को अपने पीछे जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रतिष्ठा के लिये किसी गुरु, महन्त के चेले बन जाते हैं। किसी मठ-मन्दिर में नौकरी, समपत्ति का लोभ मनुष्य  को उनके साथ जोड़ता है। मुसलमान और ईसाई लोगों को नौकरी और विवाह का प्रलोभन देते हैं। आर्यसमाज में प्रलोभन के अवसर बहुत थोड़े हैं, परन्तु उनका उपयोग नये लोगों को अपने साथ जोड़ने या पुराने लोगों से काम लेने के लिये नहीं किया जाता, आर्यसमाज की समपत्ति या उसकी संस्थाओं का उपयोग अधिकारी प्रबन्धक लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये करते हैं। इसी कारण इन संस्थाओं में कार्य करने वाला व्यक्ति आर्य-सिद्धान्तों से जुड़ना तो दूर जानने की इच्छा भी नहीं करता।

आर्यसमाज में आने का एक लोभ रहता है- सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना। समाज की प्रजातान्त्रिक चुनाव-पद्धति के कारण किसी का भी इस संस्था में प्रवेश सरल है, दूसरे लोग संस्थाओं में घुसकर सपत्ति व पदों पर अधिकार कर लेते हैं, इनका विचार या सिद्धान्त से विशेष समबन्ध नहीं होता। संगठन के पास ऐसे अवसर इतने अधिक भी नहीं हैं कि इनसे अन्य मत-मतान्तर के लोगों में इसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न हो सके। ऋषि दयानन्द के पीछे आने वाले लोगों में पहले भी कोई प्रलोभन नहीं था। आज तो संस्था के पास समपत्ति, भूमि, भवन, विद्यालय, दुकानें आदि बहुत कुछ हैं, परन्तु आर्यसमाज के प्रारमभिक दिनों में आर्यसमाज में आने वालों ने अपना समय, धन, प्रतिष्ठा, प्राण सभी कुछ समाज और ऋषि की भावना के लिये अर्पित किया। फिर कौन सा कारण है, जिससे हमें लगता है कि लोग ऋषि के पीछे आते थे और आज हमारे पीछे क्यों नहीं आते?

लोग चमत्कारों के पीछे जाते हैं। हमारे पास चमत्कार नहीं है, ऋषि के पास भी नहीं थे। हमारे पास भी किसी को लाभ पहुँचाने के लिये कोई साधन नहीं है। फिर कौन सी बात है, जिसके कारण लोग ऋषि के अनुयायी बने, उनके पीछे चले और फिर आज हमारे में कौन सी कमी आ गई है, जिसके कारण लोग हमारी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं? वह इन सब बातों का एक उत्तर है- ऋषि दयानन्द ने जो कुछ कहा था, वह बुद्धि को स्वीकार करने योग्य और तर्क-संगत था। जो कहा, यथार्थ था, सत्य था, तर्क और प्रमाण से युक्त था। लोगों को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता था। जो भी उनकी बात सुनता था, उसकी समझ में आ जाती थी और वह उनका अनुयायी हो जाता था।

ऋषि दयानन्द ने दुकानदारी का सबसे बड़ा आधार कि भगवान् पाप क्षमा करता है, इसे ही समाप्त कर दिया। ईश्वर ने संसार बनाया और जीवों के उपकार के लिये बनाया। प्रत्येक प्राणी के जीवन के लिये जो जितना आवश्यक है, उसे देता है, परन्तु जिसका जितना व जैसा कर्म है, उसको उतना और वैसा ही फल देता है। वह अपनी इच्छा से कम या अधिक नहीं कर सकता। इसका कारण बताया कि वह न्यायकारी है। यदि किसी को कुछ भी दे सकता तो सबको सब कुछ बिना किये ही दे देता। सबको सब कुछ बिना किये ही मिलता तो किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही, तो संसार के बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।

ऋषि कहते हैं- ईश्वर से जीव भिन्न है, न वह उससे बना है और न कभी उसका उसमें लय होता है। न जीव कभी ईश्वर बनता है और न ईश्वर कभी जीव बनता है। अवतारवाद पाखण्ड है। गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति मानना पाखण्ड है। देवता जड़ भी होते हैं, चेतन भी। परमेश्वर निराकार चेतन देवता है, शरीरधारी साकार चेतन तथा शेष जड़ देवता हैं। मूर्ति न परमेश्वर है, न मूर्ति-पूजा परमेश्वर की रजा है, यह तो व्यापार है, ठगी है। तीर्थ यात्रा से भ्रमण होता है, कोई पुण्य या स्वर्ग नहीं मिलता। जन्म से ऊँच-नीच, जाति-व्यवस्था मानना मनुष्य समाज का दोष है, इससे दुर्बलों को उनके अधिकार से वञ्चित किया जाता। विद्या-ज्ञान का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है। इस प्रकार सैकड़ों पाखण्ड इस समाज में व्याप्त थे, उन सबका ऋषि दयानन्द ने प्रबल खण्डन किया। यह अनुचित है तो फिर ईसाई हो या मुसलमान, जैन हो या बौद्ध, हिन्दू हो या पारसी, आस्तिक हो या नास्तिक, कुरान में हो या पुराण में, देशी हो या विदेशी, जहाँ पर जो भी गलत लगा, ऋषि ने उसका खण्डन किया। इस प्रकार उनके भाषण, उनकी पुस्तकें, जिसके पास भी पहुँची, उसे बुद्धिगय होने से स्वीकार्य लगीं। यही ऋषि दयानन्द के विचारों का तीव्रता से फैलने का कारण था।

आज हमारी समस्या यह है कि हम दूसरे के पाखण्ड का खण्डन करने में असमर्थ हैं और स्वयं पाखण्ड से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कारण इस कार्य में सफलता कैसे मिल सकती है। सफलता के लिये बुद्धिमान लोगों तक ऋषि के विचारों का पहुँचना आवश्यक है, जिसमें हम असफल रहे हैं। आज समाज में युवा-वर्ग अपनी भाषा से दूर हो गया है, उस तक उसकी भाषा में पहुँचना आवश्यक है। इसके लिये सभी भाषाओं में साहित्य और प्रचारक दोनों ही सुलभ नहीं हैं, परिणामस्वरूप नई पीढ़ी से हमारा समपर्क समाप्त प्राय है। समाज को यदि बढ़ना है तो बुद्धिजीवी व्यक्ति तक वैदिक विचारों को पहुँचाने की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

नान्यः पन्था विद्यतेऽभनाय।

– धर्मवीर