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वेदानुसार यज्ञोपरान्त ब्रह्मा केमहिलाओं द्वारा स्वयमेव अथवा ब्रह्मा के आदेशानुसार चरण-स्पर्श क्या वैध है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामहोदय,

वेदानुसार यज्ञोपरान्त ब्रह्मा केमहिलाओं द्वारा स्वयमेव अथवा ब्रह्मा के आदेशानुसार चरण-स्पर्श क्या वैध है?

समाधानयज्ञ कर्म वैदिक कर्म है, श्रेष्ठ कर्म है। यज्ञ को ऋषियों ने हमारी दैनिकचर्या से जोड़ दिया है। यज्ञ करने से जो हमारे शरीर से मल निकलता और उससे जो वातावरण दूषित होता है, उसकी निवृत्ति होती है अर्थात् वातावरण शुद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ की बहुत बढ़ाई की है, महर्षि यज्ञ को लोकोपकार का बहुत बड़ा साधन मानते हैं।

महर्षि दयानन्द से पहले यज्ञ रूपी कर्मकाण्ड में बहुत बड़ा विकार स्वार्थी लोगों ने कर रखा था। यज्ञ को अपने स्वार्थ व उदरपूर्ति का साधन बना डाला था। इसलिए उन स्वार्थी लोगों ने यज्ञ में अनेक अवैदिक क्रियाएँ जोड़ दी थीं। जैसे यज्ञों में पशुबलि अथवा पशुओं का मांस डालना आदि। इन अवैदिक कर्मों को यज्ञों में होते देख बहुत लोग यज्ञों से दूर होते चले गये, यज्ञ जैसे श्रेष्ठ-कर्म को हीन-कर्म मानने लग गये। जिससे लोगों की वेद व ईश्वर के प्रति श्रद्धा भी न्यून होती चली गई।

महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में किये गये विकारों को दूर कर हमें विशुद्ध यज्ञ-पद्धति दी। जिस यज्ञ-पद्धति में पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। यदि हम आर्यजन महर्षि की बताई पद्धति का अनुसरण करें तो यज्ञ में एकरूपता आ जावे और पाखण्ड रहित हो जावे। जब-जब हम मनुष्य ऋषियों के अनुसरण को छोड़ अपनी मान्यता को वैदिक कर्मों में करने लगते हैं तो धीरे-धीरे स्वार्थी लोगों की भाँति हम भी पाखण्ड की ओर चले जाते हैं व अन्यों को भी ले जाते हैं।

आजकल बड़े कार्यक्रम करते हुए यज्ञ के ब्रह्मा की नियुक्ति करते हैं, इसलिए कि यज्ञ का संचालन ठीक से हो जाये, लोगों को यज्ञ के लाभ व ठीक-ठीक क्रियाओं का ज्ञान हो जाये। यज्ञ में बने ब्रह्मा का उचित समान करना चाहिए, यह यजमान व आयोजकों का कर्त्तव्य बनता है। वह समान अभिवादन आदि से कर सकते हैं। पुरुष वर्ग ब्रह्मा के पैर छूकर अभिवादन करना चाहें तो कर सकते हैं, किन्तु स्त्री वर्ग सामने आ, कुछ दूर खड़े हो, हाथ जोड़, कुछ मस्तक झुकाकर अभिवादन करें तो अधिक श्रेष्ठ होगा। स्त्रियों द्वारा ब्रह्मा के पैर छूकर अभिवादन करने की परपमरा उचित नहीं, न ही कहीं ग्रन्थों में पढ़ने को मिला। ब्रह्मा को भी योग्य है कि वह स्वयं भी स्त्रियों से पैर न छूवावें, इससे मर्यादा बनी रहती है और एक आदर्श प्रस्तुत होता है। आजकल जो ये परमपरा देखने को मिल रही है, वह पौराणिकों से प्रभावित होकर देखने को मिल रही है, अपने को उनकी भाँति गुरु रूप में प्रस्तुत करने की भावना कहीं न कहीं मन के एक कोने में काम कर रही होती है। जिस गलत बात को महर्षि दूर करना चाहते थे, उसी को ऐसी भावना रखने वाले पोषित करते हैं।

हमारे आदर्श महापुरुष, ऋषि होने चाहिएँ। जैसा आचारण, व्यवहार वे करते आये वैसा करने में ही हमारा कल्याण है। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में किसी स्त्री को पैर नहीं छूने दिये, महर्षि के इस व्यवहार से भी हम सीख सकते हैं। महर्षि ने ऐसा इसलिए किया कि वे अपने को गुरु (गुरुडम वाले गुरु) के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहते थे और एक आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे। क्योंकि महापुरुष जानते हैं कि जैसा आचरण वे करेंगे, वैसा ही उनके अनुयायी भी करेंगे इसलिए महापुरुष ऐसा आचरण कदापि नहीं करते कि जिससे उनके अनुयायी विपरीत पथगामी हो जायें। इसलिए आर्य-विद्वानों को महिलाओं से पैर छूवाने से बचना चाहिए, बचने में अधिक लाभ है।