आर्यों का इतना विरोध हुआ
उज़रप्रदेश के गंगोह नगर में 1884 ई0 में पण्डित लेखरामजी के पुरुषार्थ से आर्यसमाज स्थापित हुआ। 1896 ई0 में इसी गंगोहनगर में हरियाणा के करनाल नगर से एक बारात आई। कन्या
पक्षवाले आर्यसमाजी थे और वरपक्षवाले भी लगनशील आर्य थे।
दोनों पक्ष ब्राह्मण बरादरी से सज़्बन्धित थे। करनालवाले अपनी बारात में गंगोह के पोंगापन्थियों के लिए एक बला साथ ले-आये।
जिस नरश्रेष्ठ पण्डित लेखराम आर्यपथिक ने वहाँ धर्म का बीज आरोपित किया था, उसी वीर, सुधीर को वे अपने साथ लाये। पण्डित लेखरामजी के आगमन की सूचना पाकर गंगोह का
पोपदल बहुत सटपटाया। आर्यों का भयङ्कर विरोध हुआ। इतना विरोध कि उस दिन विवाह-संस्कार भी न हो सका। इतना कड़ा विरोध किया गया कि बारात को कन्यापक्ष से तो ज़्या बाज़ार में भी कुछ खाने को न मिल सके, ऐसे कुत्सित यत्न किये गये। लाहौर के व्यभिचारी गोपीनाथ (यह न्यायालय में गोमांस का दलाल और दुराचारी सिद्ध हुआ था) सनातनी नेता के एक हिन्दी-पत्र में सगर्व यह छपा था कि गंगोह में नाई-मोची तक ने आर्यों का बहिष्कार किया। पण्डित लेखरामजी ने इस प्रचण्ड विरोध की आंधी में भी वैदिक धर्म पर अपने ओजस्वी व खोजपूर्ण व्याज़्यान देने आरज़्भ किये। दज़्भदुर्ग ढहने लगे। किसी विरोधी को उनके सामने आने
का साहस न हुआ।
पण्डितजी के भाषणों से आर्यवीरों के हृदय में धर्मप्रेम की ऐसी बिजली समाविष्ट हो गई कि दो वर्ष पश्चात् पुनः एक कन्या के वेदोक्त विवाह के विरोध पर मुीभर आर्यवीरों ने अघ अज्ञान की
विशाल सेना पर पूर्ण विजय पाई। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्वामी ब्रह्ममुनिजी महाराज का जन्म भी गंगोह के पास ही एक छोटे-से ग्राम में हुआ। यह रत्न इसी प्रचार का फल था। एक बात और यहाँ स्मरण रहे कि करनाल से वरपक्षवाले बारात में जाट, अग्रवाल आदि अन्य बरादरियों के आर्य युवकों को भी ले गये थे। यह भी तब एक अचज़्भे की बात थी।