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अरब का मूल मजहब (भाग ४)

अरब का मूल मजहब
भाग ४
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

पिछले भाग मे सिर्फ एक शेर अर्थ सहित उद्धृत किया था . शेष चार शेर इस भाग मे प्रस्तुत है …

द्वितीय शेर :-
” वहल बहलयुतुन अैनक सुबही अरब अत ज़िक्रू,
हाज़िही युनज्ज़िल अर रसूलु मिन-आल-हिन्दतुन. ”
अर्थ :- वे चार अलहाम अर्थात् परमेश्वरीय वाणी “वेद” जिनका दैवी ज्ञान ऊषा के नूर समान है हिन्दुस्तान में खुदा ने अपने रसूलों पर नाजिल किये हैं . अर्थात् उनके हृदयों मे प्रकाशित किये हैं .

तृतीय शेर :-
यकूलून-अल्लाहा या अहल-अल-अर्जे आलमीन कुल्लुहम ,
फत्तबाऊ जिक्रतुल वीदा हक्कन मालम युनज्ज़िलेतुन .”
अर्थ :- अल्लाह ने तमाम दुनिया के मनुष्यों को आदेश दिया है कि वेद का अनुसरण करो जो नि:सन्देह मेरी ओर से नाजिल हुए हैं .

चतुर्थ शेर :-
“व हुवा आलमुस्साम वल युजुर् मिनल्लाहि तन्जीलन् ,
फ़-ऐनमा या अख़ीयु तबिअन् ययश्शिबरी नजातुन् . “

अर्थ :- वह ज्ञान का भंडार साम और यजुर हैं जिनको अल्लाह ने नाजिल किया है, बस ! हे भाईयों उसी का अनुशरण करो जो हमें मोक्ष का ज्ञान अर्थात् बशारत देते हैं .

पंचम् शेर :-
“व इस्नैना हुमा रिक् अथर नासिहीना उख़्वतुन् ,
व अस्नाता अला ऊदँव व हुवा मशअरतुन् .”

अर्थ :- उनमें से बाकी दो ऋक् और अथर्व हैं जो हमें भ्रातृत्व अर्थात् एकत्व का ज्ञान देते हैं . ये कर्म के प्रकाश स्तम्भ हैं , जो हमें आदेश देते हैं कि हम उन पर चलें .

तो मित्रों ! इस शेर को प्रस्तुत करने के बाद अरब के मूल मजहब संबंधि शीर्षक पर टिप्पणी करने की कोई जरुरत ही नही है . क्योंकि अरब के प्रसिद्ध विद्वान ‘लबी बिन अख्तब बिन तुर्फा’ ने खुद घोषणा कर रखी है कि हमारा मूल मजहब वेद आधारित था और उसी के अनुसार चलें तभी हमारा कल्याण होगा . यह हजरत मोहम्मद से २४०० वर्ष पुर्व के शेर है अर्थात् आज से लगभग ३८४६ वर्ष पूर्व की शेर है . अर्थात् महाभारत के बाद तक भी वहां पर वेद विद्या का ही प्रचार प्रसार था . इस प्रमाण को लेकर किसी को शक है तो वह येरोसलम जाकर उस पुस्तकालय मे जाकर अपनी शक का निवारण कर सकता है.यह अरबी काव्य-संग्रह “सीरुलउकूल” नाम से पुस्तक रूप में West Publishing Company “West Palaestine” ने प्रकाशित किया है. यह पुस्तक भारत में “हाज़ी हमज़ा शीराजी एन्ड को.” पब्लिशर्स एण्ड बुकसेलर्स, बान्द्रा रोड, मुम्बई से उपलब्ध है. यह कविता सीरुलउकूल के पृष्ठ संख्या-118 पर है.
मै अपने तमाम मुसलिम मित्रों से निवेदन करना चाहते है कि कृपया अपने जड़ की ओर लौटें . तथ्य को मत ठुकरायें . सत्य को ग्रहण करने की शक्ति रखें और पुर्वजों की बात को माने . जब अरबवासी खुद वैदिक था तो आप तो निश्चित रुप से वैदिक ही हो क्योंकि आपका जन्म भारत मे हुआ है . आप बलात् वैदिक धर्म से दूर किये गये हो ! इसलिए आप से आग्रह है कि आप भी पंडित महेन्द्रपाल और ज्ञानेन्द्र सूफी जी की तरह सत्य को स्वीकार कर सूझ – बूझ परिचय दें और वैदिक व्यवस्था को पुन: इस भूपटल पर स्थापित करने मे आर्य समाज का साथ दें !
अब तो मूल मजहब का पता चल चुका है तो प्रश्न उठता है कि वहां के लोग वैदिक विचारधारा से अलग होकर लोग मूर्तिपूजक और हिंसक कैसे हो गये ? जिसे पुन: निराकार की तरफ लाने के लिए मोहम्मद साहब को आना पड़ा.
इसका उत्तर भी वहां के प्राचीन कवि ही देते है . जो आगे चर्चा की जायेगी .
पढ़ते रहें और दुसरों को भी पढ़ाते रहें !

जय आर्य, जय आर्यावर्त .
क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग २ )

अरब का मूल मजहब
भाग २
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

यह सर्वविदित है कि आज से लगभग ५५-५६ सौ वर्ष पुर्व लगभग पुरी दुनिया मे वैदिक धर्म का एक क्षत्र राज था . सब लोग वैदिक थे . वेद के अनुसार ही अपना जीवनयापन करते थे और सुखीसम्पन्न थे .इस व्यवस्था मे भारत विश्वगुरु कहा जाता था . लोग यहां आकर ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखा करते थे . महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सम्मुलास दस मे लिखते हैं कि “महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भूगोल के राजा, ऋषि, महर्षि आये थे।
देखो! काबुल, कन्धार, ईरान, अमेरिका, यूरोप आदि देशों के राजाओं की कन्या गान्धारी, माद्री, उलोपी आदि के साथ आर्यावर्त्तदेशीय राजा लोग विवाह आदि व्यवहार करते थे। शकुनि आदि, कौरव पाण्डवों के साथ खाते पीते थे कुछ विरोध नहीं करते थे। क्योंकि उस समय सर्व भूगोल में वेदोक्त एक मत था। ” सत्यार्थ प्रकाश की इन बातों की पुष्टि महर्षि मनु की इस घोषणा से स्पष्ट रुप से हो जाती है ….”ऐतद्येशप्रसूतस्य….मनु. २/२०” अर्थात् संसार के लोग आर्यावर्त मे आकर विद्या ग्रहण करें .इस सत्य को पश्चिम के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है . प्रमाण के रुप मे कुछ विद्वानों का मत यहां प्रस्तुत है .
जैकालियट ने Bible in India मे पेज नंबर १० पर कहा है कि “भारत सभ्यता के हिंडोले है , ज्ञान विज्ञान के जनक है ” .
भारतीय सभ्यता संस्कृति को नाश करने वाले मैक्समूलर को भी सत्य स्वीकार करना पड़ा और अपनी पुस्तक ‘India : what can it teach us ‘ के पेज ४ पर लिखना पड़ा कि “यूरोपीय, यूनानियों, रोमनों और यहूदी जिस साहित्य के विचारों के साथ पले है , वह भारत की साहित्य ही है ” .
प्रो. हिरेन ने अपनी पुस्तक Historical researches  के Vol 2 , page 45 पर लिखा है कि समस्त एशिया सहित समस्त पश्चात्य जगत को प्राप्त होने वाले विद्या और धर्म का मुख्य स्त्रोत भारतवर्ष ही है .
मेजर डी. ग्राह्मपोल ने तो यहां तक लिख डाला कि “जिस समय भारत सभ्यता और विद्या के उच्च शिखर पर था उस समय हमारे पुर्वज वृक्षों की छाल के बने हुए कपड़े पहनकर अफरा-तफरी में इधर – उधर भटक रहे थे “….देखें Modern Review के June 1934 का अंक .
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट हो चुका है कि भारत विश्वगुरु था . तो जाहिर सी बात है जो मत गुरुदेश मे होगा वही अन्य देश मे भी प्रचलन मे भी आया होगा क्योंकि भारत जिस सिद्धांत और मत के सहारे विश्व का गुरु था उसी सिद्धांतों का सबने अपने अपने देश मे अपनाया ताकि वो भी उन्नति करें . अत:  महाभारत पुर्व तक सम्पुर्ण धरा वैदिक सिद्धांत से ओत प्रोत था . जब बात सम्पुर्ण धरा की हो तो उसमे अरब जगत भी आ ही जाता है . जी , यह बात मै नही कह रहा हूं बल्कि महाभारत कालीन अरब के विद्वान खुद कह रहे हैं कि हम वैदिक है , हमारा पवित्र ग्रंथ वेद है , हम वेद के अनुसार चलें . अरबवासियों की इस वैदिक सिद्धांतों पर दृढ़ विश्वासों की वजह से ही मोहम्मद साहब ने भी उसे अपनी बनाई पुस्तकों से समाज मे प्रचलित वैदिक नियम व सिद्धातों को निकाल नही पाये जो आज भी अरब निवासियों का मूल मजहब वैदिक था, इसकी पुष्टि करता है .महाभारत के बाद जब भारत खुद वैदिक सिद्धांतों से विमुख हो गया तो विश्व के अन्य देश भी इस से विमुख हो गया और परिस्थिति के अनुकुल नये नये पथ , मत और मजहब जन्म ले लिया . जिसे हम विभिन्न नामों जैसे जैन , बौद्ध, इसायत, इसलाम आदि से जानते है . इस लेख की श्रृखंला मे हम सिर्फ इसलाम पूर्व अरब का मूल मजहब, फिर इसलाम के पैदा होने की परिस्थिति तक ही सीमित रहेगें .
भाग ३ जरुर पढ़ें , उसमे अरब के विद्वानों की उन रचनाओं को पेश किया जायेगा जिस से यह स्पष्ट हो जायेगा कि महाभारत कालीन अरब की समाजिक व्यवस्था बिलकुल वेद पर आधारित था और सब एकेश्वरवादी एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे  . फिर आगे देखेंगे कि भारत के साथ – साथ वहां एवं विश्व के अन्य भागों मे भी कैसे निराकार से साकार की तरफ लोग बढ़कर मूर्तिपूजक हो गया !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब )