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ऐसे दिलजले उपदेशक!

ऐसे दिलजले उपदेशक!

बहुत पुरानी बात है। देश का विभाजन अभी हुआ ही था। करनाल ज़िला के तंगौड़ ग्राम में आर्यसमाज का उत्सव था। पं0 शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ महारथी, पण्डित श्री मुनीश्वरदेवजी आदि

कई मूर्धन्य विद्वान् तथा पण्डित श्री तेजभानुजी भजनोपदेशक वहाँ पहुँचे। कुछ ऐसे वातावरण बन गया कि उत्सव सफल होता न दीखा। पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी ने अपनी दूरदर्शिता तथा अनुभव से यह भाँप लिया कि पण्डित श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा के आने से ही उत्सव जम सकता है अन्यथा इतने विद्वानों का आना सब व्यर्थ रहेगा।

पण्डित श्री तेजभानुजी को रातों-रात वहाँ से साईकिल पर भेजा गया। पण्डित ओज़्प्रकाशजी वर्मा शाहबाद के आस-पास ही कहीं प्रचार कर रहे थे। पण्डित तेजभानु रात को वहाँ पहुँचे।

वर्माजी को साईकल पर बिठाकर तंगौड़ पहुँचे। वर्माजी के भजनोपदेश को सुनकर वहाँ की जनता बदल गई। वातावरण अनुकूल बन गया। लोगों ने और विद्वानों को भी श्रद्धा से सुना।

प्रत्येक आर्य को अपने हृदय से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि ज़्या ऋषि के वेदोक्त विचारों के प्रसार के लिए हममें पण्डित तेजभानुजी जैसी तड़प है? ज़्या आर्यसमाज की शोभा के लिए हम

दिन-रात एक करने को तैयार हैं। श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा की यह लगन हम सबके लिए अनुकरणीय है। स्मरण रहे कि पण्डित तेजभानुजी 18-19 वर्ष के थे, जब शीश तली पर धरकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए घर से चल पड़े थे। अपने घर से सहस्रों मील की दूरी पर धर्म तथा जाति की रक्षा के लिए जाने का साहस हर कोई नहीं बटोर सकता। देश-धर्म के लिए तड़प रखनेवाला हृदय ईश्वर हमें भी दे। तंगौड़ में कोई धूर्त उत्सव में विघ्न डालता था।