ओ३म्
‘अग्निहोत्र यज्ञ से अनेक लाभ व इसके कुछ पक्षों पर विचार’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
प्रतिदिन प्रातः व सायं अग्निहोत्र करने का विधान वेदों में है। वेद के इन मन्त्रों को महर्षि दयानन्द ने अपनी पंचमहायज्ञ विधि में प्रस्तुत किया है। यहीं से यज्ञ व अग्निहोत्र परम्परा का आरम्भ हुआ। वेद के मन्त्र ‘ओ३म् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।। इदमग्नयेे–इदन्न मम।।’ में कहा गया है कि विद्वान लोगों ! जिस प्रकार प्रेम और श्रद्धा से अतिथि की सेवा करते हो, वैसे ही तुम समिधाओं तथा घृतादि से व्यापनशील अग्नि का सेवन करो और चेताओ। इसमें हवन करने योग्य अच्छे द्रव्यों की यथाविधि आहुति दो। एक अन्य मन्त्र ‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे–इदन्न मम।।’ में विधान है कि हे यज्ञकर्ता ! अग्नि में तपाये हुए शुद्ध घी की यज्ञ में आहुति दो, जिससे संसार का कल्याण हो। यह सुन्दर आहुति सम्पूर्ण पदार्थों में विद्यमान ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिए है, मेरे लिए नहीं। अन्य अनेक मन्त्र हैं जो यज्ञ के प्रेरक व पोषक हैं तथा जिनका यथास्थान विधान यज्ञ की विधि में किया गया है। वेद के विधान व शिक्षाओं का पालन करना मनुष्य का धर्म कहलाता है और न करना अधर्म। धर्म सुख का कारण होता है व अधर्म दुःख का कारण। यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य के सभी कर्मों का फल साथ साथ नहीं मिलता। कुछ क्रियमाण कर्मों का मिल जाता है और कुछ कर्म कर्मों के संचित खातों में जमा हो जाते हैं जिनका फल कालान्तर व परजन्मों में मिलता है। ऋषियों ने स्वानुभूति के आधार पर घोषित किया है कि यज्ञ एक श्रेष्ठतम कर्म है। यज्ञ करने से अभीष्ट सुख की प्राप्ति होती है। निष्काम भावना से किए गये यज्ञ से भी मनुष्य को लाभ होता है। ऐसा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि अर्थात् यज्ञ से सुख प्राप्ति का अनुभव किये हुए ऋषियों का कथन है। ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए वेदों के सत्य अर्थों के ज्ञानी व धर्म का आचरण करने वाले परोपकारी महात्माओं को कहते हैं। अतः इस प्रमाण के आधार पर संसार के सभी मनुष्यों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये। इससे होने वाले सम्पूर्ण लाभों का तो पूर्ण ज्ञानर अभी तक नहीं है, परन्तु जितना ज्ञान है उसके अनुसार यज्ञ का परिणाम इस जन्म व परजन्म में निश्चय ही कल्याणकारी व शुभ होता है।
यज्ञ करने के अनेक कारण व इससे प्राप्त होने वाले अनेक लाभ है जो विचार करने पर ज्ञात होते हैं। पहला कारण तो यह है कि हम जहां रहते हैं वहां हमारे मल मूत्र, श्वास-प्रश्वास, भोजन निर्माण, वस्त्र प्रक्षालन आदि कार्यों से वायु, जल व पर्यावरण में अनेक विकार व प्रदुषण उत्पन्न होता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसे उपाय करें कि जिससे हमसे जितनी मात्रा में प्रदुषण हुआ है, उतना व उससे कुछ अधिक प्रदुषण निवारण का कार्य हो। इसका समाधान व उपाय यज्ञ वा अग्निहोत्र करने से होता है। प्रदुषण को दूर करने का अन्य कोई उपाय आज भी विज्ञान द्वारा सुलभ नहीं कराया गया है। यज्ञ के अन्तर्गत पहला कार्य तो यह है कि हम अपने निवास को अधिकतम हर प्रकार से स्वच्छ रखें। दूसरा यह है कि आम्र आदि प्रदुषण न करने वा न्यूनतम कार्बन-डाइ-आक्साईड उत्पन्न करने वाली पूर्णतया सूखी व छोटे आकार मे कटी हुई समिधाओं से यज्ञ कुण्ड में अग्नि को प्रदीप्त कर उस अग्नि के तीव्र व प्रचण्ड होने पर उसमें शुद्ध गो घृत सहित वायु, जल, पर्यावरण व स्वास्थ्य की पोषक व उसके अनुकूल सामग्री व पदार्थों की आहुतियां दी जायें। इसके लिए चार प्रकार की सामग्री का विधान किया गया है जिसमें मुख्य गोघृत है। अन्य पदार्थों में मिष्ट पदार्थ जिसमें शक्कर आदि सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में सुगन्धित पदार्थ आते हैं जिसके अन्तर्गत केसर, कस्तूरी आदि पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। चतुर्थ प्रकार के पदार्थ आयुर्वेदिक ओषधियों सोमलता व गिलोय आदि सहित बादाम, काजू, नारीयल, छुआरे, किशमिस आदि पोषक पदार्थ सम्मिलित हैं। इनका यज्ञ में आहुति हेतु विधान किया गया है। इन पदार्थों की अग्नि में आहुति देने से यह पदार्थ अतिसूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जाते हैं जिनसे वायुमण्डल की शुद्धि सहित वायुस्थ वाष्पीय जल की शुद्धि होती है जो बाद में वर्षा के होने पर खेत खलिहानों के अन्न को शुद्ध व पवित्र बनाते हैं। यज्ञ करते समय यज्ञकर्ता में धर्मभाव अर्थात् स्वहित-परहित दोनों व अहित किसी का नहीं, का भाव होता है। इससे ईश्वर यज्ञकर्ता के इस शुभ व पुण्य कार्य के लिए उसे सुख व आनन्द की अनुभूति कराने सहित अभीष्ट पदार्थों को उपलब्ध कराता है। आरोग्य व स्वास्थ्य लाभ तो यज्ञ का एक मुख्य गुण है। गोघृत के गुण तो सभी को ज्ञात हैं। गोघृत का सेवन करने से मनुष्य निरोग रहने के साथ बलिष्ठ होता है। ईश्वर की प्राप्ति से पूर्व यह स्वास्थ्य व बल ही मनुष्य के लिए अभीष्ट होता है जिसकी प्राप्ति गोघृत आदि के सेवन करने से होती है। यज्ञ में इसका प्रयोग करने से इसका सूक्ष्म रूप वायुमण्डल में विद्यमान रहता है जो न केवल यज्ञकर्ता अपितु यज्ञ स्थान के चारों दिशाओं में दूर दूर तक लोगों व प्राणियों को लाभान्वित करता है। यज्ञ में दी गई घृत व सभी पदार्थों की आहुतियां सूर्य की किरणों के साथ हल्की होने के कारण आकाश में काफी ऊंचाई तक जाती है जिससे वायु में जो सूक्ष्म जीव, बैक्टीरिया आदि होते हैं उनसे होने वाले दुष्प्रभाव से भी मनुष्य बचा रहता है।
यज्ञ में हमारे ऋषियों ने वेद मन्त्रोच्चार का विधान भी किया है। वेद मन्त्रों का उच्चारण होने से ईश्वर से सम्पर्क जुड़ता है व उससे मित्रता उत्पन्न होने के साथ वेद मन्त्रों के कण्ठ=स्मरण होने से उनकी रक्षा होती है और साथ हि मन्त्रों में निर्दिष्ट लाभों का ज्ञान भी होता है। इन मन्त्रों के प्रयोग व उनके अर्थों को पढ़ने से यज्ञकत्र्ता संस्कृतनिष्ठ शुद्ध हिन्दी बोल पाते हैं। इससे अनेक वैदिक शब्दों का ज्ञान, उनके प्रति प्रेम व उनके प्रयोग की भावना को बल भी मिलता है। हम अपने अनुभव से यह समझते हैं कि वेदमन्त्रों का उच्चारण करना मनुष्य के परमार्थ की दृष्टि से भी अधिक लाभप्रद है। अन्य मानुष पद्य व गद्य वाक्यों का प्रयोग व उच्चारण इतना लाभप्रद नहीं है जितना वेदमन्त्रों के अर्थ के ज्ञान सहित उनका उच्चारण होता है। यज्ञों में प्रमुख मन्त्रों का उच्चारण करने से ईश्वर की कृपा व सहायता प्राप्त होती है और जीवन हर दृष्टि से उन्नत व सुखी होता है। इससे हमारा वर्तमान और परजन्म दोनो बनता है जबकि इससे इतर कार्यों से परजन्म की उन्नति में अधिक लाभ नहीं होता। घरों में यज्ञ करने से एक लाभ यह होता है कि यज्ञ करने से गृह वा निवास स्थान की दूषित वायु यज्ञाग्नि के सम्पर्क में गर्म होकर हल्की हो जाती है और वह दरवाजों, खिड़कियों व रोशनदानों से बाहर चली जाती है। हल्की होकर दूषित वायु के बाहर जाने से जो अवकाश बनता है उसमें बाहर की किंचित शुद्ध वायु स्वतः निवास के भीतर प्रविष्ट हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिए हितकर व सुखदायक होती है। अग्निहोत्र में यज्ञीय पदार्थों की आहुतियों से वह जलकर सूक्ष्म हो जाते हैं और वायु से मिलकर वायु के दुर्गन्धादि अनेक दोषों को दूर करते हैं जिनमें हानिकारक बैक्टिरिया व सूक्ष्मजीव भी प्रभावित होकर उनका अनिष्टकारी प्रभाव यज्ञकर्ता व उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं होता। गोघृत विषनाशक भी होता है। विषैले सांप के काटे हुए मनुष्य को गोघृत पिलाने से शरीर पर विष का प्रभाव समाप्त होता है। गोघृत के इसी गुण के कारण वायु में उपस्थित सूक्ष्म कीट व बैक्टिरियां नष्ट होते हैं। आर्यजगत के एक यज्ञप्रेमी विद्वान पण्डित वीरसेन वेदश्रमी जी, इन्दौर ने अनेक छोटे-बड़े यज्ञ कराये और परिक्षणों में उन्होंने पाया कि हृदय रोगियों, जन्म के बहिर व मूक व्यक्तियों तक को यज्ञ से पूर्ण लाभ हुआ। दैनिक यज्ञ करने वाले लोग यज्ञ न करने वाले परिवारों से अधिक स्वस्थ, निरोगी व दीघार्यु होते हैं ऐसा अनुमान व प्रत्यक्ष ज्ञान अध्ययन करने पर प्राप्त होता है। हमारा यह भी अनुभव है कि यज्ञ करने वाला व्यक्ति जीवन में अनेक छोटी-बड़ी दुर्घटनाओं के होने पर भी अनेक बार उसमें पूर्णतः सुरक्षित रहता है। यह वैदिक जीवन व्यतीत करने सहित यज्ञ करने का लाभ ही ज्ञात होता है। यह भी हमारा अनुभव है कि यज्ञ करने से मनुष्यों की बुद्धि सभी प्रकार के ज्ञान व विषयों को ग्रहण करने में तीव्रतम व महत् क्षमता वाली होती है तथा वह अपने जीवन का कोई भी लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त कर सकता है।
यज्ञ के लाभ का एक उदाहरण प्रस्तुत कर इस लेख को विराम देंगे। आर्यसमाज में प्रभु आश्रित जी का यश व कीर्ति यज्ञों के प्रचारक के रूप में आज भी सर्वत्र विद्यमान है। उनके एक अनुगामी दम्पती ऐसे थे जो उनके सत्संग में सम्मिलित होते थे परन्तु उनके पास धन का नितान्त अभाव था। वह उन दिनों यज्ञ करने के लिए घृत व सामग्री तक का व्यय करने में समर्थ नहीं थे। महात्मा जी के सामने उन्होंने यज्ञ करने की अपनी इच्छा व्यक्त की और धनाभाव की यथार्थ स्थिति भी उन्हें बताई। महात्मा जी ने उन्हें संकल्प लेकर यज्ञ करने का परामर्श दिया और कहा कि ईश्वर की कृपा से धीरे-धीरे सभी साधन प्राप्त हो जायेंगे। इस परिवार ने दैनिक यज्ञ आरम्भ कर दिया। शनैः शनैः इनकी आर्थिक, शारीरिक व सामाजिक उन्नति होती गई। आर्थिक उन्नति इतनी हुई कि इन्होंने जीवन में लाखों वा करोड़ों रूपये शुभ कार्यों के लिए दान दिये। आज भी इनके पुत्र प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। अनेक संस्थाओं के अधिकारी हैं। उनका यश सर्वत्र व्याप्त है तथा वह सुखी व सम्पन्न हैं। हमारी यदा-कदा उनसे भेंट होती रहती है। आपने पिछली एक भेंट में बताया कि जब 1947 में वैदिक राष्ट्र भारत का विभाजन हुआ तो लोग अपनी धन-सम्पत्ति लेकर पाकिस्तान से भारत आये थे परन्तु यह परिवार अपनी सारी सम्पत्ति वहीं छोड़कर केवल यज्ञ कुण्ड अपने गले में टांग कर व उसमें विद्यमान अग्नि को सुरक्षित रखते हुए भारत पहुंचा था। इस परिवार ने उस अग्नि की रक्षा करते हुए उसे बुझने नहीं दिया। विगत लगभग 75 वर्षों से यह यज्ञाग्नि निरन्तर प्रज्जवलित है। वर्तमान में श्री दर्शनकुमार अग्निहोत्री जी सपत्नपीक व परिवार सहित इस अग्नि में ही प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। ऐसे व्यक्ति, परिवार व उनसे जुड़े लोग धन्य हैं। हम तो इनके दर्शन कर ही स्वयं को कृतकृत्य मानते हैं। हमने अपने जीवन में भी यज्ञ के अनेक चमत्कार अनुभव किये हैं। यह सब ईश्वर सच्चे विचारों वाले अपने अनुयायियों को उनकी पात्रता व योग्यता के अनुसार प्रदान करता है। महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि और संस्कार विधि ग्रन्थों में पंच महायज्ञों का विधान किया है। इसे जान व समझकर सभी मनुष्यों को इसका सेवन कर लाभ उठाना चाहिये। इसको करने से यज्ञकर्ता को अवश्य लाभ मिलेगा, ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है जिसका आधार हमारा अध्ययन, ज्ञान व अनुभव है। हमने यज्ञ का भौतिक व व्यवहारिक स्वरूप प्रस्तुत किया है। इस विषय में और बहुत कुछ कहा जा सकता है। और अधिक विस्तार न कर लेख को यहीं विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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