तीसरी कोटि में सामान्यकर शास्त्र के विषय को विचारना चाहिए यह लिख चुके हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायसूत्र के भाष्य में लिखा है कि ‘परस्पर सम्बद्ध प्रयोजनीय सुख के हेतु साधनों का जिसमें उपदेश किया जाय, वह शास्त्र है।’ इसी के अनुसार शास्त्र के विषय का विचार किया जाता है। प्रथम तो जानना अति आवश्यक है कि सब शास्त्र सुख तथा सुख के साधनों को प्राप्त करने की इच्छा और दुःख तथा दुःख के कारणों को छोड़ने की इच्छा को आगे कर बनाये गये, बनाये जाते और बनाये जावेंगे। इसमें सुख, सुख के कारण; दुःख, दुःख के कारण और इनकी प्राप्ति वा त्याग के भिन्न-भिन्न होने वा नाना प्रकार होने और कर्त्ताओं के भेद से शास्त्र अनेक होते हैं। और नीच प्रकृति वालों ने जो वेदविरुद्ध पुस्तक बनाये जिनमें प्रायः तमोगुण सम्बन्धी विषयों का वर्णन है। वे भी दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त होने की इच्छा से बनाये गये ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सब कोई पुरुष अपने वा अन्य के लिये दुःख तथा दुःख के साधनों को नहीं चाहता। यद्यपि कोई दुष्ट नीच प्रकृति वाला मनुष्य अपने से प्रतिकूल अन्य के लिये दुःख वा दुःख के कारणों का सञ्चय करते हैं तो भी उसके लिये संसारी व्यवहार के लिये यत्न करते हैं किन्तु वैसी द्वेषबुद्धि रखकर शास्त्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध होना सुगम नहीं प्रतीत होता। और जो दूसरे के मत खण्डन करना रूप उद्देश वा प्रयोजन को लेकर शास्त्र बनाया जाता है वहाँ भी अपने मत में दोष देने वाले हेतुओं के खण्डन से अपने दुःख का निवारण तथा अपने मत के गुणों के प्रकाशित करने से अपने को सुख पहुँचाना ही मुख्य प्रयोजन है। अर्थात् सब स्थलों में विचार कर देखा जाय तो अविद्याग्रस्त पुस्तक भी केवल किसी को दुःख मात्र पहुँचाने के लिये नहीं बनाये जा सकते। हां किसी समुदाय वा निज को उससे भले ही दुःख हो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अर्थात् सब शास्त्रों के बनाने वालों का मुख्य प्रयोजन वा विषय यही होता है कि कारणों के सहित दुःख को हटाकर सुख और सुख के साधन धनादि वस्तु प्राप्त हों। परन्तु अपना दुःख हटाकर सुख प्राप्ति का उपाय रचना सर्वत्र प्रधान रहता है, और जहाँ केवल परोकार दृष्टि से शास्त्र बनाया जाता है किन्तु उसमें किसी प्रकार के स्वार्थ का उद्देश नहीं रखा जाता वहाँ भी उस कर्म के द्वारा ईश्वर की व्यवस्था से शुभ फल की प्राप्ति होना ही स्वार्थ सिद्धि प्रयोजन है। यदि कहीं साधनों सहित सुख की प्राप्ति और दुःख को निर्मूल हटाने के लिये भी बनाया शास्त्र उस अंश में बनाने वाले के अविद्वान् होने से दुराचार का प्रवृत्त करने वाला ग्रन्थ हो जावे तो भी दुःख वा दुःख के साधनों को लेकर ग्रन्थ बनाया ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा मन में रखकर कोई पुरुष बनाने के लिये प्रवृत्त नहीं होता इसलिये उक्त सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है। और अज्ञानी लोगों के बनाये ग्रन्थों को शास्त्र भी इसलिये नहीं कह सकते कि वेदमूलक शिक्षा उनमें नहीं पायी जाती। और जहाँ-जहाँ वेदमूलक शिक्षा प्राप्त होती है, वहाँ-वहाँ सुखों की प्राप्ति और दुःखों के हटाने की इच्छा प्रकट दीख पड़ती है। इसलिये सब शास्त्रों का सामान्य कर सुखों की प्राप्ति और दुःखों के हटाने का कारण ही विषय वा प्रयोजन है। उसमें अवान्तर- भीतरी- अन्तरग् भेद बहुत हैं। सबके तुल्य इस मानव धर्मशास्त्र का भी सामान्य कर वही विषय है।
यद्यपि प्राणी और सुख-दुःखादि के साधनों के नाना प्रकार होने से विषयों के भी अनेक भेद होना सुगमता से ही कहा जा सकता है, तो भी सब शास्त्रों के तीन भागों में विभक्त होने से मुख्य विषय तीन ही हैं। सो न्यायसूत्र के भाष्य में वात्स्यायन ऋषि ने लिखा है कि “मन्त्र और ब्राह्मण का विषय यज्ञ, लोक के व्यवहार की व्यवस्था करना धर्मशास्त्र का विषय और संसारी मनुष्यों के वर्त्ताव वा चरित्रों का वर्णन करना वा इस जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय का वर्णन करना इतिहास-पुराणों का विषय है।”१ इसका तात्पर्य यह है कि कर्म, उपासना और ज्ञान यही मुख्य कर वेद का विषय है। यज्ञ शब्द प्रत्येक कर्मादि के साथ सम्बन्ध रखता है। जैसे- विधियज्ञ, योगयज्ञ वा ज्ञानयज्ञ इत्यादि। योग और उपासना शब्द वास्तव में एकार्थ ही हैं। कर्म दो प्रकार का है- एक धर्म के लिये किया धर्मसम्बन्धी, द्वितीय शिल्प की सिद्धि के लिये धनसम्बन्धी कर्म है। यद्यपि इससे भिन्न अन्य कर्म भी कामादि के लिये होते हैं, तो भी मुख्य ये ही दो हैं। सब कर्म मन, वाणी और शरीर इन तीनों से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उनके तीन भेद हैं। और सुख का हेतु शुभ कर्म तथा दुःख का हेतु अशुभ कर्म ये अन्य दो प्रकार हैं। वेदोक्त कर्म प्रायः सबका उपयोगी और स्मार्त्त कर्म वैदिक की अपेक्षा स्वार्थ साधक है। कर्म, उपासना और ज्ञान में सब विषय अन्तर्गत हैं। कोई इससे भिन्न विषय नहीं जिसका अन्य शास्त्र में विलक्षण वर्णन हो और इन तीनों का मूल वेद से है। इसलिये वेद सब विद्या और धर्मों का भण्डार है यह कहना सत्य है। ऐसा होने पर भी यदि कोई कहे कि फिर वेद से भिन्न धर्मशास्त्र का कौन विषय है ? तो उत्तर यह देना चाहिए कि वेद से भिन्न धर्मशास्त्र का विषय हमको इष्ट भी नहीं, किन्तु वेद से भिन्न उचित उपदेश का नाम धर्मशास्त्र है। जैसे मूल रूप व्याख्येय से व्याख्यान सदैव भिन्न और मिला रहता है, वैसे ही धर्मशास्त्र का विषय वेद से भिन्न-अभिन्न दोनों है। कर्म-उपासना-ज्ञानों से भिन्न कोई विषय धर्मशास्त्रों में नहीं है। इस कारण वेद से भिन्न विषय न हुआ। और कर्मादि के अवान्तर भेद होने से भिन्न है। इसी से यह व्यवहार करना बनता है कि यह श्रौत वा वैदिक तथा यह स्मार्त्त कर्म है। वेद में जो साक्षात् कहा गया वह वैदिक और वेद में जिसका मूल रूप से संकेत मात्र सूचना से उपदेश किया और स्मृतियों में जिसको कर्त्तव्य मानकर स्पष्ट विस्तार पूर्वक उपदेश किया वह स्मार्त्त कर्म कहा गया।
संसार में मनुष्य वेद की आज्ञा से विरुद्ध और उसके अनुकूल दोनों प्रकार से जगत् का प्रबन्ध चलाने के अर्थ कर्म कर सकता है। उसमें वेद की आज्ञा के पुष्ट करने वाले व्यवहार को करे, किन्तु किसी दशा में वेद से विरुद्ध आचरण न करे, यह धर्मशास्त्र का अभिप्राय है। क्योंकि यद्यपि वेद से विरुद्ध और अनुकूल दोनों प्रकार का व्यवहार हो सकता है, तो भी वेद के अनुकूल करने में कल्याण और विरुद्ध करने में अकल्याण वा दुःख प्राप्त होना सम्भव है। इसी विषय पर व्याकरण-महाभाष्यकार पतञ्जलि ऋषि ने भी लिखा है कि- एवं क्रियमाणमभ्युदयकारि भवतीति।1 अर्थात् वेद की आज्ञा के अनुकूल करना कल्याण का हेतु होता है। और इस प्रकार किया हुआ व्यवहार वेद के अनुकूल तथा इस प्रकार वेद से विपरीत होगा, यही विषय मुख्यकर धर्मशास्त्रों में वर्णन किया गया है। वेद के अनुकूल किया व्यवहार ही सुख का देने और दुःख का नाश करने वाला होता है।
अब एक शटा लोगों को और भी उपस्थित हो सकती है कि जब सब शास्त्र तीनों ही प्रकारों में हैं। जैसा कि पूर्व [श्रुति, स्मृति, इतिहासादि नाम से] लिखे गये, तो छह दर्शन२ और उपवेद३ आदि ग्रन्थों की क्या दशा होगी ? अर्थात् क्या षड्दर्शनादि शास्त्र नहीं, और हैं तो इनका विषय क्या है ? आजकल सामान्यकर शास्त्र शब्द के व्यवहार करने से मुख्य तो ये ही समझे जाते हैं, वेद तथा स्मृतियाँ वैसे शास्त्र नहीं समझे जाते ? इसका उत्तर यह है कि वेदार्थ का विशेष प्रचार करने के लिये वा वैदिक सिद्धान्त में पड़ने वाले विघ्नों को हटाने के लिये ऋषि-महर्षि- महात्मा लोगों ने जो-जो शास्त्र वेद का आशय लेकर परोपकारार्थ बनाये वे सब धर्मशास्त्र वा स्मृति शब्द करके लोक में वा शास्त्रकारों की मार्यादा में प्रचरित हैं किन्तु मनुस्मृति आदि [कि जिनको आजकल लोग १८ वा २८ स्मृति कहते हैं] पद्य ग्रन्थों में स्मृति शब्द रूढि रूप से बंधा नहीं है, किन्तु कपिल की स्मृति सांख्य शास्त्र, योगस्मृति- पातञ्जल योगशास्त्र इत्यादि शब्दों से शटर स्वामी ने भी शारीरक मीमांसा में व्यवहार किया है। और वैसे ही अन्य सूत्रकार वा भाष्यकार स्मृति शब्द से व्यवहार करते ही हैं, यह बात विद्वानों को छिपी नहीं है। और मुख्य कर तो शास्त्र एक वेद है पर उसके व्याख्यान रूप भी ग्रन्थ स्मृति नामक शास्त्र है। इसलिये दो प्रकार के शास्त्र मुख्य कहे जाते हैं। एक श्रुति- वेद, द्वितीय स्मृति धर्मशास्त्र हैं। किन्तु इतिहास-पुराण वास्तविक शास्त्र नहीं हैं। किसी समयविशेष में उत्पन्न हुए मुख्य शिष्ट सज्जन पुरुषों का चरित्र वर्णन करने से इतिहास-पुराण किसी प्रकार साधारण बुद्धि वाले मनुष्यों को बोधित करते हैं। इससे वे सर्वथा व्यर्थ नहीं हैं। परन्तु उन इतिहासादि में जो धर्मसम्बन्धी उपदेश हैं वे यदि वेदमूलक हैं तो वे अंश धर्मशास्त्रों में अन्तर्गत हो जायेंगे। और यदि वेद से विपरीत हों तो वे अंश त्यागने योग्य हैं। यह सब विद्वानों वा शास्त्रकारों के सम्मत है। धर्म का सेवन और अधर्म का त्याग करने वालों के लिये इतिहास-पुराण एक दृष्टान्त रूप हैं। अर्थात् सप्रयोजन होना हम खण्डित नहीं करते। अब इस सब कथन से सिद्ध हो चुका कि कर्म-उपासना-ज्ञान ही सामान्य कर सब शास्त्रों का विषय है। उन कर्मादि के उपदेश का मूल वेद है और ऋषियों के बनाये स्मृति नामक ग्रन्थ व्याख्यान रूप हैं। और इन कर्म-उपासना-ज्ञान को ही धर्म कहते हैं।