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संध्योपासना क्यों?: – डॉ. धर्मवीर

यह लेख आचार्य धर्मवीर जी द्वारा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दिये गये प्रवचन का संकलन है। ये प्रवचन एक निश्चित विषय पर दिये गये हैं, इसलिये अति उपयोगी हैं। इन प्रवचनों को आचार्य प्रवर की ज्येष्ठ पुत्री सुयशा आर्य द्वारा लेखबद्ध किया गया है। – सम्पादक

आदरणीय प्रधान जी, मन्त्री जी, उपस्थित माताओ, बहनो, बन्धुओ! बनिए तो बहुत देखे, पर सुधीर जैसा नहीं मिला, आना था एक कार्यक्रम में पर वो कहने लगे कि एक दिन पहले आ रहे हो तो कार्यक्रम रख लेते हैं। मैंने कहा, खाली नहीं रहना चाहिए कोई आदमी। मैं तो इससे डरता हँू कि मैं १० साल से आपको बता रहा हँू, नया क्या बताऊँगा। लेकिन चलिए,  दोहराने में भी कोई बुराई नहीं है। आपने प्रश्र रखा है, संध्योपासना क्यों और कैसे? कोई भी काम जब हम करते हैं तो पहले यह प्रश्र आता ही आता है कि हम यह क्यों करें? हम किसी से भी कहते हैं-संध्योपासना करो, तो वो कहता है-क्यों करें? बच्चों को भी कहते हैं तो पूछते हैं, क्यों करें? किसी दुकानदार को कहते हैं तो वह कहता है, अरे क्या संध्योपासना, दुकान पर बैठेंगे तो दो ग्राहकों का काम होगा। अत: किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उस कार्य की आवश्यकता अनुभव होनी चाहिए। यदि आवश्यकता अनुभव नहीं होती तो न उसे आप कर सकते, न करवा सकते और यदि किसी की आवश्यकता अनुभव होने लगे तो आप उसे मना भी करेंगे और रोकेंगे तो भी वो नहीं मानेगा, उसे करेगा ही। तो पहली चीज यह देखते हैं कि क्या संध्या करने की हमें कभी आवश्यकता अनुभव होती है?

सबसे पहले देखिए कि संध्या शब्द क्या कहता है-सम् कहते हैं ‘भली प्रकार’ और ‘ध्य’ का अर्थ होता है चिन्तन करना, विचार करना, भली प्रकार से ध्यान करना और दूसरा इसका नाम इसलिए भी संध्या है कि ये सन्धिकाल में किया जाने वाला कार्य है। अब सन्धिकाल तो हर क्षण है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच का जो समय है, वो उन दोनों का सन्धिकाल है। घंटे से घंटे के बीच का समय है, वो सन्धिकाल है। परन्तु जो मुख्य सन्धिकाल है, अर्थात् काल के दो बड़े विभाग हैं-एक दिन और एक रात। उन दोनों के सन्धिकाल को संध्या का काल कहा जाता है।

दोनों की सन्धि होती है इसीलिए वो संध्या है, संध्या समय है। जैसे हम कहते हैं यह काम संध्या समय करने का है, तो  सायंकाल करने का है। संध्या समय तो दोनों समय हो सकता है। प्रात:काल दिन के प्रारम्भ की और रात के अन्त की सन्धि है। ये दोनों संधिकाल हमारे लिए संध्या करने के लिए चुने गए हैं। ये इसलिए चुने गए हैं कि हमारा कार्य से और समय से एक ताल-मेल है। काम का भी विभाजन है और समय का भी विभाजन है। अर्थात् जब रात शुरू होती है तो रात के काम अलग और दिन जब प्रारम्भ होता है तो दिन के काम अलग। एक व्यक्ति रात भर विश्राम करता है, घर में रहता है, दिनचर्या करता है, लेकिन सवेरे जब उठता है तो जागने के काम शुरू हो जाते हैं। वो समाज के, घर के, व्यक्ति के, व्यवसाय के कामों को करता है। दो अलग-अलग काम उसके जीवन से बन्धे हुए हैं। एक का प्रारम्भ और एक की समाप्ति उन दोनों की सन्धि है। काल की दृष्टि से ‘सन्धि’ और ध्यान की दृष्टि से सम्यक् ध्यान के कारण ‘संध्या’ और जो दो सन्धियों का काल है इसके कारण भी संध्या। हमारे ऋषियों ने दो समयों को चुना है कि दो समय हमको संध्या करनी चाहिए। सम्यक् ध्यान करना चाहिए। पहले तो इसको यूँ समझ लीजिए कि जब एक काम पूरा हो जाए, तो उस पर विचार कर लेना चाहिए कि इसमें कोई भूल, कोई त्रुटि तो नहीं हुई। दूसरा यह होना चाहिए कि जब कोई कार्य प्रारम्भ किया जाए तो उस पर भी विचार हो जाना चाहिए कि इसको कैसे किया जाए। ताकि इसमें कोई त्रुटि न हो। यदि ये दो बातें हो जायें तो वो काम कम से कम त्रुटि वाले होंगे। एक नियम है कि आप जिस काम को करना चाहते हैं, उस पर आपने यदि चिन्तन किया हुआ है, उसकी विधि पर विचार किया हुआ है तो आपको कोई असुविधा नहीं होगी। अकस्मात् करना पड़े तो कई समस्यायें पैदा हो सकती हैं। कुछ भूल सकता है, कुछ अतिरिक्त आ सकता है। इसी तरह जब कोई काम हो जाता है तो उसके बारे में यदि व्यक्ति चिंतन करता है, उसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उसमें यदि कोई त्रुटि हो जाती है तो भविष्य में वो त्रुटि नहीं होती है।

चिंतन का एक नियम है, जैसे आप किसी चर्चा को सुन रहे हैं, आप चर्चा सुन तो रहे हैं, लेकिन यह चर्चा आप वास्तव में ग्रहण कर रहे हैं या नहीं, इसका बोध तब होता है, जब आपके सामने कहा हुआ विचार आपके मस्तिष्क में दोबारा आ जाए। आपका ध्यान उस पर दोबारा चला जाए तो वो चीज फिर भूलती नहीं है। हम भाषण में बहुत बातें सुनते हैं, लगता है कि हम सुन रहे हैं, वास्तव में हम सुनने की परिस्थिति में होते ही नहीं, क्योंकि सुनता शरीर नहीं है, सुनता तो मन है। मतलब मन हमारी बातों में लगा है तो हम सुनते हैं और यदि मन हमारी बातों में नहीं लगा है तो उस समय हम बैठे होने पर भी सुनते नहीं हैं। जब कभी मुझे विद्यार्थियों से चर्चा करने का अवसर होता है, तो मैं उनसे एक बात कहता हँू, अध्यापक को यह कैसे पता लगता है कि आप सुन रहे हैं या नहीं सुन रहे हैं? कान में तो यह विशेषता नहीं है कि वो उधर जाए जिधर बात हो रही हो, लेकिन आँख में एक विशेषता है, वो उधर जाती है, जिधर आप देख रहे हैं। उसी तरह से एक नियम है कि जिधर आँख होगी, आपके कान भी अपने आप उधर ही होंगे। यदि कोई व्यक्ति वक्ता की ओर दृष्टि डाले हुए है, तो एक स्वाभाविक-सी बात है कि वो सुन रहा है। इसलिए मैं छात्रों से कहता हँू कि छात्र यदि अध्यापक को देख रहा है तो अध्यापक को सुन रहा है और यदि अध्यापक को नहीं देख रहा है तो नहीं सुनता। वो बैठा जरूर है, लेकिन सुनने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उसी तरह से जब हम किसी बात को वक्ता के बोलते-बोलते सोच लेते हैं तो हमारा उस पर ध्यान चला जाता है और वह हमें याद रह जाता है। इसलिए जो चीज आप याद करना चाहते हैं उसका आपक ो चिन्तन करना होगा, विचार करना होगा, ध्यान करना होगा।

आपने प्रश्र उठाया है कि संध्या क्यों करनी चाहिए। कोई कारण होना चाहिए, कोई उपयोग होना चाहिए, कोई उससे मतलब निकलना चाहिए तब ही तो हम कोई काम करेंगे। इसको आप ऐसे समझ सकते हो, आप किसी भी व्यक्ति को देखिये कि वो कहीं जाता है पूजा करने, उपासना करने, किसी की आराधना करने, मुसलमान मस्जिद की ओर जा रहा है, ईसाई चर्च की ओर जा रहा है, सिख गुरुद्वारे की ओर जा रहा है, कोई मन्दिर की ओर जा रहा है, तो आपको लगता है कि सब अलग-अलग जा रहे हैं, इसका मतलब ये एक नहीं हंै। आप विचार करके देखेंगे तो वो इस अंश में एक हैं कि वो क्यों जा रहे हैं। जो मस्जिद की ओर जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है और जो चर्च में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है, जो मन्दिर में जा रहा है, उसके जाने का भी कारण है। इन सबका जो कारण है, वो समान मिलेगा। जिन इच्छाओं को लेकर वो अलग-अलग व्यक्ति जा रहे हैं, वो इच्छाएँ सबकी समान हैं। चाहे वो मुसलमान है, चाहे वो हिन्दू है, चाहे ईसाई है या कोई और है।  इसका अभिप्राय यह है कि हमारी एक आवश्यकता जो मनुष्यों की है वो समान है। उसके लिए हमने उपाय अलग-अलग किए हैं। उपाय ठीक हैं या नहीं हैं। ये अलग चीज है।

हम क्यों करें उपासना, उसका उत्तर यदि हम ढूँढ़ना चाहते हैं, खोजना चाहते हैं तो आप ये याद करें कि कोई व्यक्ति कब मन्दिर की ओर जाता है? उसे मन्दिर की याद कब आती है? इसको दूसरे शब्दों में कहें कि हम सब ईश्वर को कब याद करते हैं? जब प्रसन्न होते हैं तब तो नहीं करते, जब हम अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, हमें कोई बाधा नहीं होती है, तब भी हम नहीं करते हैं। हम ईश्वर को याद तब करते हैं जब आपको कहीं से किसी की सहायता की आवश्यकता लगे। जब ऐसा लगे कि यह बात पूरी नहीं हो रही है या अपने पास आस-पास के साधनों से किसी काम को करने में असमर्थ हो जाते हैं। कोई व्यक्ति बीमार है, रोगी है, सामान्य रोग होता है, तो दवा ले लेता है। विशेष रोग होता है तो डॉक्टर के पास चला जाता है। लेकिन डॉक्टर से भी कुछ ऐसा लगता है कि ठीक होना कठिन है। तब उसको लगता है कि अब हमारा सामथ्र्य समाप्त है।

शेष भाग अगले अंक में…..