यदि कोई जाति सांसारिक व्यवहार के हेतु अपने व्यक्तियों के इस प्रकार के चार भेद कर दे तो यह कोई दोष नहीं ,किन्तु गुण है। क्योंकि बिना विभाग किये काय्र्य चल नहीं सकता। आजकल भी प्रत्येक जाति अपने व्यक्तियों का किसी प्रकार का विभाग करती है। “सब धान बाईस पसेरी“ नही हो सकते । मनुष्य स्वभाव से विषम है। यह विषमता प्रकृति और प्रवृति दोनो में पाई जाती है। मनुष्य का हित भी इसी में है। पूर्ण समानता समाज का निर्माण नहीं कर सकती । समाज के निर्माण का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक समझे। इसको आप परस्परतंत्रता ¼Interdependence½ कह सकते है। यह परम्परतंत्रता विषमता से ही उत्पन्न होती है। एक कृषक समझता है कि मै कृषक तो हूँ परन्तु सैनिक नही हूॅ। सैनिक समझता है कि मै सैनिक तो हूॅ परन्तु कृषक नही हूँ यह भाव इनको एक दूसरे का आश्रय तकने पर बाधित करता है। समाजशास्त्र के प्राचिन, मध्यकालीन तथा आर्वाचीन पंडितों ने समाज के विभाग की जितनी कल्पनायें की है उन में उत्कृष्तम ब्राहम्ण, क्षत्रिय,वैश्य, तथा शूद्र का चतुर्वण्र्य विभाग है ।
Tag Archives: वर्ण
वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
आज कल हिन्दू जाति बहुत भी उप-जातियों में विभक्त है। यह सब जन्म पर निर्भर है। अर्थात् ब्राहम्ण का पुत्र ब्रहम्ण होता है और कान्यकुब्ज ब्राहम्ण का कान्यकुब्ज। क्षत्रिय का लडका क्षत्रिय होता है। चैहान क्षत्रिय का चैहान । इसी प्रकार नाई का लडका नाई , कहार का कहार। वेदो मे इन उप जातियो के नाम तो है नही । हां चार वर्णो का वर्णन आता है। अर्थात ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। हिन्दूओं में यह जनश्रुति प्रचलित है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उरू से और शूद्र पैर से। परन्तु आज तक किसी भले मानस ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठया कि इसका अर्थ क्या हुआ ? ईश्वर का मुख क्या है और उससे ब्राहम्ण कैसे उत्पन्न हो गये ? ईश्वर का पैर क्या है और उससे शूद्र कैसे उत्पन्न हो गये ? क्या यह आलक्डारिक भाषा है या वास्तविक ? यदि आलंकारिक है तो वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि वास्तविक है तो अर्थ क्या हुआ ? यदि कोई कहे कि आकाश के मुख से हाथी उत्पन्न हो गया तो पूछना चाहिये कि आकाश के मुख से क्या तात्पर्य है और उससे हाथी कैसे हो सकता है ? तमाशा यह है कि सैकड़ों वर्षो से हिन्दू यह कहते चले आते है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए और शूद्र पैरों से । परन्तु किसी ने यह नही पूछा कि ईश्वर का पैर क्या है और उससे स्त्री या पुरूष कैसे उत्पन्न हो सकते है । लोग कहते है कि वेद में ऐसा लिखा है। जिस वेदमंत्र का प्रमाण दिया जाता है वह यह कहता है:-
ब्राहम्णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरूतदस्य यद् वैश्यः पद्रयां शूद्रोऽजायत।।
शब्दार्थ यह है:-
(1) “ब्राहम्णः अस्य मुख आसीत्।” ब्राहम्ण इसका मुख था। “
(2) “बाहू राजन्यः कृतः” क्षत्रिय भुजा बनाया गया ।
(3) ”ऊरू तत् अस्य यत् वैश्यः”जो वैश्य है वह उसकी जंघा थी।
इसमें यह नहीं लिखा गया कि ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय बाॅह से और वैश्य जंघा से । अर्थ निकालने के दो ही उपाय है या तो शब्दों से सीधा अर्थ निकलता हो या आलंकारिक अर्थ लेने के लिये कोई विशेष कारण हों। प्रत्येक शब्द के आलंकारिक अर्थ भी नही लेने चाहिये जब तक सीधा अर्थ लेना अप्रासंगिक न हो । और ऐसे आलंकारिक अर्थ भी न लेने चाहिये जो असम्भव या निरर्थक हो।
अब देखना चाहिये कि ”ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ“ ऐसा अर्थ निकलने के लिये क्या हेतु है ? ’मुख‘ का अर्थ ’मुखात्‘ नही हों सकता। यह स्पष्ट है । न आसीत् अर्थ उत्पन्न हुआ हो सकता है। ‘ऊरू तत् अस्य यद् वैश्यः“ “जो वैश्य है वही ऊरू है“ वाक्य की इस शैली से भी स्पष्ट है कि ऊरू से वैश्य के उत्पन्न होने की कल्पना बुद्धि-शून्य है। फिर यह सब अर्थ कैसे ले गया ? इसमें सन्देह नही कि समस्त पौराणिक साहित्य इस प्रकार की प्रतिपत्ति सें व्याप्त हो रहा है । परन्तु इसकों वेदो का आधार तो नही मिल सकता। मंत्र के चौथे पाद में अवश्य “पद्भ्यां शूद्रः अजायत ” “पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ“ ऐसे शब्द हैं। परन्तु इस पाद की प्रत्यनुवृत्ति पहले तीनो तक ले जाना ठीक नहीं। यदि कल्पना कीजिये कि चारों पादों में ऐसा ही होता कि ब्राहम्णोऽस्य मुखादजायत। इत्यसदि तो भी प्रसंग को देखकर कुछ और अर्थ लेना पडता क्योकि मुख या बाहू से तो मनुष्य उत्पन्न हो नहीं सकते और न पैरो से ,पूर्वापर देखने से अर्थ स्पष्ट हो जाते है क्योकि जो मंत्र हमने ऊपर दिये है उससे पहला मंत्र यह है:-
यत् पुरूषं व्यदधुः कविता व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत् कि बाहू किमूरू पादा उच्यते।
( यजु0 31।10 )
शब्दार्थ इस प्रकार है:- यत् =जब
पुरूषं=पुरूष को
व्यदधुः=बनाया
क्तिधा=किस किस प्रकार से
मुख कि अस्य असीत्=इस का मुख क्या था ?
कि बाहू=भुजायें क्या थीं ?
किं ऊरू=जंघायें क्या थी?
पादा उच्येते= दोनो पैर क्या कहे जाते हैं अर्थात् किस नाम से पुकारे जाते हैं।
यहाॅ तो शूद्र के सम्बन्ध में भी न पंचमी विभक्ति है , न उत्पन्न होनक का सूचक शब्द है। केवल चार प्रश्न है कि पुरूष की किस किस रूप से कल्पना की गई है। अर्थात् किसको मुख माना गया , किसको बाहू, किसको ऊरू, किसको पैर ? इन प्रश्रों से उपमालंकार स्पष्ट है और उसी के अनुसार अर्थ लने चाहिये। उब्बट ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है:-
1- “कति प्रकारं विकल्पितवन्तः”
2‘- “ब्राहम्णक्षत्रियवैश्यशूद्राः स्थिता इत्यर्थः”
( उब्बट- भाष्य )
महीधार कहते हैं
किं च पादौ उच्येते पादावपि किमास्तामित्यर्थः।
( महीधर – भाष्य )
इनसे स्पष्ट है कि यहाँ मुख आदि अंगो से ब्रहम्णादि के उत्पन्न होने की कथा न केवल असंगत किन्तु असंभव भी है और कोई थोडी सी बुद्धिवाला मनुष्य भी ऐसी अंड बंड कल्पना न कर सकेगा। हम महीधर के इन शब्दो से सहमत है कि
” प्रश्नोत्तर रूपेणब्राहम्णादिसृष्टि वक्तुं ब्रहम्वादिनां प्रश्रा उच्यन्ते।”
अर्थात प्रश्न-उत्तर रूप् से ब्राहम्ण आदि की सृष्टि का कथन करने के लियें ब्रहम्वादियों के प्रश्न कहे जाते है ।
इस मंत्रो का सीधा , सुसंगत तथा युक्ति-युक्त अर्थ यही है कि यह जो पुरूष-संघ या मनुष्य जाति है उसमें मुख ब्राहम्ण हैं, बाहू क्ष़ित्रय, ऊरू वैश्य पैर शूद्र। अर्था सबसे उत्कृष्ट ज्ञानवान नेता ब्राहम्ण कहे जाने के योग्य है। बाहू के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय कहे जाने के योग्य है । ऊरू के तुल्य धन संचय करने वाले वैश्य और निम्न श्रेणी के लोग शूद्र । मनुस्मृति के निम्न श्लोक से भी यही ज्ञात होता है:-
विप्राणां ज्ञानेतों ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।
वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणमेव जन्मतः।।
( 2। 155)
ब्राहम्णों में बडप्पन ज्ञान की अपेक्षा से है, क्षत्रियों में शक्ति की अपेक्षा से वैश्य में धन -धान्थ से और शूद्रों में जन्म से । अर्थात् जन्म के द्वारा बडप्पन मनुष्य की निकृष्टतम वृत्ति है। नीचे के श्लोको में ब्रहम्ण आदि के जो कत्र्तव्य बताये गये है वह भी इसी दृष्टिकोण को बताते है:-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दान प्रतिग्रहं चैव ब्रहम्णानामकल्पयत्।।
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।
पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।
वणिक् पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।।
एवमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।
( मनु0 1।88-91 )
यहाॅ प्रश्न हो सकता है कि इनसे पहले श्लोक में “मुख बाहूरूपज्जाना“ का क्या अर्थ अन्य प्रसंगों से अर्थ निश्चित हो गये तो इस वाक्य का अर्थ कुछ अड़चन नहीं डाल सकता । “जनी प्रादुर्भावे” ‘जन’ धातु का अर्थ है प्रादुर्भाव जिसके ’जायते‘ ‘अजायत’ आदि रूप् है। इसलिये जब मुख बाहू आदि से उत्पन्न होना एक असंभव बात हो गई तो ऐसे वाक्यों का यही अर्थ लेना चाहिये कि मुख आदि रूप से जिनका प्रादुर्भाव हुआ। अर्थात् जो पुरूष मुख बाहू आदि रूप् से काय्र्य करते है।