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लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी का मराठी में बृहद् जीवन चरित्र लिखने वाले डॉ0 चांगदेव भवानराव खैरमोडे के मतानुसार राष्ट्रीय नेताओं में लाला लाजपतराय डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने बहुत नजदीक प्रतीत होते थे। उनकी दृष्टि में तिलक, गोखले और गान्धी अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे, पर वे उन्हें उतने नजदीक के महसूस नहीं होते थे, जितने कि लाला लाजपतराय। इसका एक कारण यह था कि लालाजी और अम्बेडकरजी का सन् 1913 से 1916 की कालावधि में अमरीका निवासकाल में घनिष्ठ सम्बन्ध आ चुका था तथा उन्हें इस बात का विश्वास हो चुका था कि लालाजी जैसे राजनीति में गरम दल से सम्बद्ध हैं, वैसे ही धार्मिक और समाज-सुधार के क्षेत्र में भी कट्टर क्रियाशील सुधारक हैं। सन् 1914 में लालाजी ने अपना अधिकांश समय कोलंबिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बिताया था। तब उन्हें अपने सामने की मेज पर उनसे भी पहले आकर बैठा और उनके बाद ग्रंथालय से बाहर जानेवाला एक भारतीय विद्यार्थी दिखलाई दिया। उन्होंने जब उत्सुकतावश स्वयं उसका परिचय प्राप्त किया, तब उन्हें यह पता चला कि वह विद्यार्थी भीमराव अम्बेडकर था। उसका परिचय पाकर तथा उसके गहन ज्ञान को देखकर उन्हें अतिशय आनन्द हुआ था।

खैरमोडेजी ने अपने चरित्र ग्रन्थ में अम्बेडकरजी द्वारा लिखा-‘स्वर्गीय लाला लाजपतराय‘ लेख उद्धृत करने से पूर्व इस श्रद्धांजलि परक लेख लिखने से पहले डॉ0 अम्बेडकरजी की जो मनोदशा थी उसका वर्णन करने हुए लिखा है कि-

लाला लाजपतराय जी (1865-1928) की मृत्यु का समाचार सुनकर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अत्यन्त ही व्यथित हो गये। (स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान को छोड़कर अन्य) किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु से पूर्व और पश्चात् वे इतने व्यथित नहीं हुए थे। उसी रात उन्होंने ’बहिष्कृत भारत सभा‘ की ओर से सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन किया था। उसमें लालाजी पर भाषण करते समय उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उन्होंने अपने समस्त सार्वजनिक जीवन में किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु के बाद शोक सभा का आयोजन नहीं किया था और न ही श्रद्धांजलि परक शोक सभा में भाषण दिया था। नत्थूराम गोड़से की तीन गोलियों से दि0 30-1-1948 को महात्माजी का खून हुआ, तब भी डॉ0 बाबासाहब गान्धीजी के विषय में या उनकी मृत्यु के विषय में एक शब्द भी नहीं बोले थे।”

लालाजी के बलिदान पर डॉ0 बाबासाहबजी ने जो श्रद्धांजलि लिखित रूप में अभिव्यक्त की थी, उसे इसी पुस्तक के परिशिष्ट चार में यथावत् अविकल रूप से दिया गया है