विद्या यस्य सनातनी सुविमला, दुःखौघविध्वंसिनी।
वेदाख्या प्रथितार्थधर्मसुगमा, कामस्य विज्ञापिका।
मुक्तानामुपकारिणी सुगतिदा, निर्बाधमानन्ददा।
तस्यैवानुदिनं वयं सुखमयं भर्गः परं धीमहि।।1।।
यस्माज्जातमिदं विश्वं यस्मिंश्च प्रतिलीयते।
यत्रेदं चेष्टते नित्यं तमानन्दमुपास्महे।।2।।
यदेव वेदाः पदमामनन्ति तपांसि यस्यानुगतास्तपन्ति।
शास्त्रं यदाप्तुं मुनयः पठन्ति, तस्यैव तेजः सुधियानुचिन्त्यम्।।3।।
दिक्कालाकाशभेदेषु परिच्छेदो न विद्यते।
यस्य चिन्मात्ररूपस्य नमस्तस्मै महात्मने।।4।।
सर्वासां सत्यविद्यानां मूलं वेदो निरुच्यते।
तस्यापि कारणं ब्रह्म तेन सृष्टौ प्रचारितः।।5।।
तस्य वेदस्य तत्त्वं हि मनुना परमर्षिणा।
तपः परं समास्थाय योगाभ्यासगतात्मना।।6।।
सारांशमखिलं बुद्ध्वा लोकानां हितकाम्यया।
धर्मः सनातनः स्मृत आपद्धधर्मश्च कालिकः।।7।।
प्रचाराधिक्यमापन्नः पुरा धर्मः सनातनः।
आसीदास्थाय सत्यां तां गुरुशिष्यपरम्पराम्।।8।।
या पश्चाज्छललोभाभ्यां मोहेन कलहेन वा।
अविद्योपासनेनापि ब्रह्मचर्यादिवर्जनात्।।9।।
स्वार्थसाधनरागेण धर्मस्य परिवर्जनात्।
अधर्मसेवनेनापि नष्टा सत्या परम्परा।।10।।
तदा नानामतान्यासन् मनुष्याणामितरेतरम्।
श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य नाशस्तेनाभवत्पुनः।।11।।
स्वस्य स्वस्य मतस्यैव प्रचाराय पुनस्तदा।
विरुद्धपक्षसंसक्तैर्ग्रन्थानां निर्मितिः कृता।।12।।
ये च वेदानुगा ग्रन्थाः शुद्धा दृष्टा मतानुगैः।
तत्रापि सज्जितं वाक्यं स्वमतस्यैव पोषकम्।।13।।
तस्माच्च शुद्धग्रन्थानामार्षाणां श्रौतधर्मिणाम्।
धृतवर्णाश्रमतत्त्वानामद्य प्राप्तिः सुदुर्लभा।।14।।
यादृशाश्चोपलभ्यन्ते ग्रन्थाः परमर्षिनामतः।
तत्रापि निर्मितं भाष्यं तैरेव स्वमतानुगम्।।15।।
धर्मस्य वर्णनं तत्र सम्यङ् नैवोपलभ्यते।
मतवादं पुरस्कृत्य पक्षपातश्च वर्णितः।।16।।
तर्केणानुसन्धानं मनूक्तं नोपलभ्यते।
श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य तेषु भाष्येषु पश्यतः।।17।।
अतोऽहं बहुभिराज्ञप्तः सज्जनैर्धर्मवेदिभिः।
स्वयं चाप्यनुसन्धाय दृष्ट्वा च धर्मविप्लवम्।।18।।
मानवस्यास्य शास्त्रस्य वेदानामनुगामिनः।
भाष्यारम्भं करोम्यद्य लोकानां हितमाचरन्।।19।।
भियःषुग्वे1त्यपादाने2 निष्पन्ना षुगभावतः।
तादृशी यस्य सेनास्ति तन्नाम्नेदं वितायते।।20।।
यद्यप्येतादृशी शक्तिर्मयि मन्दे न विद्यते।
तथापि तर्त्तुमिच्छामि सत्यप्लवेन सागरम्।।21।।
सत्यो हि जगदाधारस्तस्य चैवानुचिन्तनात्।
सत्यधर्मप्रचाराय बुद्धिं मे प्रेरयिष्यति।।22।।
नराणामल्पशक्तित्वात्सर्वज्ञो नास्ति कश्चन।
विद्याब्धिवेदमूलेन विना चिन्मात्रमूर्त्तिना।।23।।
तस्मात्क्वापि विरुद्धं चेत्प्रमादादिसुदूषितम्।
गुणानुरागिभिस्त्याज्यं ज्ञात्वा नीचैरुपासितम्।।24।।
अब प्रस्तावना लिखने के पश्चात् मानव धर्मशास्त्र की मुख्य भूमिका का प्रारम्भ किया जाता है। इसलिये शिष्ट लोगों की परिपाटी अर्थात् ऋषि-महर्षि लोगों की आज्ञानुसार कि सब शुभ कार्यों के प्रारम्भ में सबके स्वामी परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना वा ध्यान करना चाहिये कि जिससे उसकी कृपा होकर बुद्धि निर्मल वा शुद्ध हो सकती है। इसी कारण उस कार्य का अच्छा बन जाना सम्भव है। इसलिये हमको भी प्रथम परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करनी चाहिये, इस कारण पहले मग्लाचरण किया है।
सब दुःखों के समुदाय का ध्वंस- नाश करने वाली, जिसके होने से धनादि पदार्थ और सुगम रीति से धर्म प्राप्त हो सकता है, जिसमें धर्मानुकूल स्त्री सम्बन्ध रूप काम की आज्ञा है। जो ठीक-ठीक तत्त्वज्ञान होने से मुक्तों का उपकार करने वाली उसके अनुकूल चलने वाले संसारी जनों को जन्मान्तर में अच्छी गति देने वाली और सब बाधाओं से रहित आनन्द की दाता निर्मल शुद्ध सनातन वेद नामक जिसकी विद्या संसार में प्रकट हुई है, उसके सुखस्वरूप सर्वोत्तम ज्ञानमय तेज का हम लोग प्रतिदिन ध्यान वा धारणा करें।।१।। जिस सर्वनियन्ता परमेश्वर से यह प्रत्यक्ष चित्र-विचित्र अनेक प्रकार की शिल्पविद्या का दिखाने वाला जगत् उत्पन्न हुआ, जिसमें नियमपूर्वक स्थित होकर चेष्टा करता और जिसमें सब लय हो जाता है, उस आनन्द स्वरूप ब्रह्म की हम लोग उपासना करें।।२।। जिसके अधिकार या महत्त्व का सब वेद वर्णन करते अर्थात् कहीं साक्षात् और कहीं परम्परा से सब वेदों में जिसका वर्णन है, और जिसको प्राप्त होने की इच्छा से जिज्ञासु लोग तप करते तथा जिसको प्राप्त होने के लिए ऋषि-मुनि जन वेदाादि शास्त्रों को पढ़ते हैं, विचारशील पुरुषों को उसी के तेज का चिन्तन करना चाहिये।।३।। दिशा, काल और आकाश के भेदों में जिसका परिच्छेद नहीं अर्थात् किसी निज पूर्वादि दिशा, किसी निज क्षणादि काल और किसी निज अवकाश में जो नहीं रहता, किन्तु सब दिशा, काल और अवकाशों में विद्यमान है, उस चेतनमात्र स्वरूप सर्वव्याप्त परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो।।४।। सब सत्य विद्याओं का मूल वेद माना जाता है, उस वेद का भी मूल कारण ब्रह्म है क्योंकि उसी परमेश्वर ने संसार में वेदों का प्रचार कराया।।५।। योगाभ्यास में तत्पर महर्षि मनु महाराज ने प्रबल उत्कृष्ट तप का आशय लेकर और उस वेद का मुख्य सारांश अभिप्राय जानकर संसार के उपकार की कामना से सनातन धर्म का तथा समयानुकूल आपत्काल में सेवने योग्य आपद्धर्म का स्मरण अर्थात् वेद से विचारकर प्रकट किया है।।६,७।। वह सनातन धर्म पूर्वकाल में गुरु-शिष्य की उस सत्य परम्परा के आश्रय से अधिक कर प्रचरित था। अर्थात् पूर्वकाल में सृष्टि के आरम्भ से पुस्तकों के बिना ही वेदादिस्थ विद्या और धर्म के उपदेश में सृष्टि की निरन्तर चलने वाली प्रणाली से चलते थे।।८।। जो परम्परा पीछे छल, कपट, लोभ, मोह, कलह, अविद्या के सेवन, ब्रह्मचर्यादि के छोड़ने, स्वार्थ साधन में तत्पर होने, धर्म के छोड़ देने और अधर्म का सेवन करने से वह सत्य परम्परा नष्ट हो गई।।९,१०।। उस समय परस्पर मनुष्यों में नाना प्रकार के मत चले उससे वैदिक और स्मार्त्त धर्म का और भी नाश हुआ।।११।। उस समय परस्पर विरुद्ध मतों में आसक्त लोगों ने अपने-अपने मत का प्रचार करने के लिए अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार ग्रन्थों का निर्माण किया।।१२।। और मतवादी लोगों ने जो वेदानुकूल शुद्ध ग्रन्थ देखे, उनमें भी अपने-अपने मत के पोषक वाक्य मिला दिये।।१३।। इसी कारण से जिनमें वर्णाश्रम धर्म का स्पष्ट आशय धरा गया था, ऐसे वैदिक धर्म के ऋषिप्रणीत शुद्ध ग्रन्थों का मिलना अब दुर्लभ हो गया।।१४।। शुद्ध ग्रन्थों में मतवादियों ने इसलिए अपने-अपने मत के पोषक वचन मिलाये कि जिससे हमारा मत निर्मूल न समझा जावे, किन्तु प्रतिष्ठित वेदमूलक ग्रन्थों में मिल जाने से सनातन माना जावे और हमको कोई न पकड़ सके। अब जैसे कुछ ग्रन्थ ऋषियों के नाम से मिलते हैं, उन पर भी उन्हीं लोगों ने अपने-अपने मत की पुष्टिपरक व्याख्या बनाई। यद्यपि व्याख्या करने वालों का भीतरी अभिप्राय यह नहीं था कि हम इस शास्त्र में अपना मत घुसेड़ें, तो भी उन-उन का अन्तःकरण उस-उस मत के रंग से रंगा होने के कारण वैसे ही भाष्य भी बनाये गये।।१५।। उन भाष्यों में ठीक-ठीक धर्म का वर्णन जैसा होना चाहिये, प्राप्त नहीं होता। और कहीं-कहीं अपने-अपने मत के आश्रय से पक्षपात भी वर्णन किया गया है।।१६।। इस मानवधर्मशास्त्र में तर्कपूर्वक धर्म का निर्णय करने के लिए “यस्तर्केणानुसन्धत्ते0”1 इत्यादि वचनों में स्पष्ट आज्ञा लिखी है, उसके अनुसार वेद सम्बन्धी और धर्मशास्त्र सम्बन्धी धर्म का वर्णन उन भाष्यों में देखने वाले को प्राप्त नहीं होता, जिससे आजकल के धर्म का निर्णय चाहने वाले मनुष्यों को सन्तोष हो।।१७।। इसी से अनेक धर्मज्ञ और सज्जन लोगों ने मुझको आज्ञा वा सम्मति दी तथा मैंने भी विचार किया कि वास्तव में ऐसी दशा होने से मुझको इस पर यथाशक्ति विचार करना चाहिये और मैंने यह भी विचारा कि ऐसा न करने से अब दिन-दिन धर्म की हानि होती जाती है। धर्मशास्त्र में आज्ञा है कि- ‘धर्म की हानि होती हो तो ब्राह्मण भी शस्त्र को ग्रहण करें।’२ और ‘विद्वानों का शस्त्र वाणी वा विद्या ही है कि जिससे अधर्म का ध्वंस हो सकता है।’३
इत्यादि प्रकार के विचार से लोक का उपकार होना मानकर मैं अब वेदों के अनुयायी इस मानव धर्मशास्त्र के भाष्य का प्रारम्भ करता हूं।।१८,१९।। बीसवें श्लोक में मेरा नाम (भीमसेन शर्मा) व्याकरण के अनुसार दिखाया गया है।।२०।। यद्यपि मुझ मन्दबुद्धि में ऐसी शक्ति नहीं है जो वेदानुकूल धर्म का ठीक-ठीक निर्णय कर सकूं, तो भी सत्यरूप नौका के आश्रय से इस मानव धर्मशास्त्र रूप समुद्र के पार होना चाहता हूं।।२१।। और वही सब जगत् का आधार सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ही मुख्य कर सत्य है, उसका स्मरण, ध्यान, स्तुति, प्रार्थनादि करने से सत्य धर्म का प्रचार होने के लिए वह परमेश्वर मेरी बुद्धि को अवश्य प्ररेणा करेगा।।२२।। सब विद्याओं का सागर जो वेद उसके कर्त्ता चेतनमात्र स्वरूप एक परमेश्वर को छोड़कर अन्य कोई भी सर्वज्ञ नहीं है, किन्तु सभी मनुष्य अल्पज्ञ हैं। इस कारण मेरे भाष्य में प्रमादादि से कहीं विरुद्ध वा दूषित लेख किन्हीं महाशयों वा विद्वानों को जान पड़े तो गुणानुरागी लोगों को वह दोष छोड़ देना चाहिये, क्योंकि अच्छे लोगों का स्वाभाविक धर्म यही है कि वे दूसरे के गुणों को अच्छा समझ के उसके सहकारी बनते हैं। और कोई दोष जान पड़ता है तो छोड़ देते हैं, क्योंकि दोषों का ग्रहण करना नीच पुरुषों का काम है। और यह भी हो सकता है कि जैसे प्रमादाादि से मेरा लेख कहीं दूषित हो जाये, वैसे प्रमादादि के होने से मेरे निर्दोष लेख को भी कोई विरुद्ध मान सकता है, इसलिये विचारशीलों को उचित है कि यदि कहीं विरुद्ध जान पड़े तो प्रथम मुझसे ही पूछ देखें, यदि भूल होगी तो मैं स्वयं मान लूंगा। और वह ठीक हो जायगा।।२३,२४।।