माननीय श्री म.व. शास्त्री जी हैदराबाद ने अपनी पठनीय, मौलिक व खोजपूर्ण पुस्तक ‘असली महात्मा’ में एक स्थान पर यह लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी ने देहरादून में जन्मे एक मुसलमान मुहम्मद उमर को वैदिक-धर्म की दीक्षा देकर शुद्ध किया। आपने धर्म के द्वार खोलने का श्रेय ऋषि को देते हुए यह भी लिखा है कि ऋषिवर ने शुद्धि का व्यापक (या और) कार्य नहीं किया। हमने उसी पुस्तक के प्राक्कथन में यह स्पष्ट कर दिया है कि ऋषि को समय ही कहाँ मिला? ऋषि क्या-क्या करते? अनेक कार्य करते हुए देश भर में भ्रमण करना पड़ता था।
महर्षि ने अमृतसर, लुधियाना आदि नगरों में धर्मच्युत हो चुके कई व्यक्तियों को धर्मनिष्ठ बनाया। अजमेर में शुकदेव की रक्षा की। आर्यसमाज स्थापना से पूर्व प्रयाग में माधवप्रसाद को ईसाई होते हुए बचाया। उसने पण्डितों को तीन मास का नोटिस दे रखा था कि मेरी शंकाओं का निवारण करिये, नहीं तो मैं ईसाई बन जाऊँगा। काशी, प्रयाग आदि के पण्डित उसको बचाने के लिये आगे न आये। आर्य धर्म-रक्षक ऋषि दयानन्द ही उसे सन्तुष्ट करके बचा सके।
अमृतसर के मास्टर ज्ञानसिंह जी ने ऋषि की प्रेरणा से ऋषि के जीवन काल में अनेक हिन्दू, सिख-जो विधर्मी बन चुके थे-शुद्ध कर दिखाये।
सनातनधर्मी विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद जी शास्त्री ने कभी लिखा था कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि तीर्थों पर (कुम्भ के मेला पर भी) सहस्रों को ईसाई बनाता रहा। काशी, प्रयाग के विद्वान् पण्डित उसका सामना न कर सके। ऋषि दयानन्द ने उसकी बोलती बन्द करके धर्म-रक्षा की। यह संस्कृतज्ञ पादरी महाराष्ट्र का ब्राह्मण था। ऋषि के शिष्यों ने इसे पंजाब से भी भगा दिया। ‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द’ ग्रन्थ में हमने ये सब तथ्य व नये-नये प्रमाण दिये हैं। आर्यसमाजी भाई इन्हें पढ़कर प्रचार करके उजागरकरेंगे, तो आत्मविश्वास जगेगा।