हमने पं. शान्तिप्रकाश जी आदि विद्वानों के आर्य सिद्धान्तों पर प्रमाण संग्रह के मोटे-मोटे रजिस्टर देखे। अब मौलिक सैद्धान्तिक साहित्य की चर्चा समाजों में नाम-नाम की है। श्री डॉ. हरिश्चन्द्र जी की एक रोचक अंग्रेजी पुस्तक के कुछ पृष्ठ मैंने अपनी 10-11 वर्षीया नातिन मनस्विनी को पढ़ाये। उसे पुस्तक रोचक व पठनीय लगी। उसे स्कूल में बोलने को कहा गया। उसने डॉ. हरिश्चन्द्र जी की पुस्तक के आधार पर त्रैतवाद पर बोलकर वाह-वाह लूट ली। उसने कहा-संसार का कार्य-व्यापार व्यवहार सब तीन से ही चलता है-ग्राहक चाहिये, माल चाहिये और विक्रे ता चाहिये। एक के न होने से व्यापार नहीं चल सकता। रोगी, डॉक्टर व औषधियों से ही अस्पताल चलता है। सिखों के ग्राम में नाई और नंगे पैर घूमने वालों के ग्राम में बाटा की दुकान क्या चलेगी? इसी प्रकार से आप सोचिये तो पता चलेगा कि तीन के होने से ही संसार चलेगा।
इसी प्रकार सृष्टि की रचना तीन से ही सभव है। सृष्टि रचना का जिसमें ज्ञान हो वह सत्ता (प्रभु) चाहिये, जिसके लिये सृष्टि की उपयोगिता या आवश्यकता है, वह ग्राहक (जीव) चाहिये तथा जिससे सृष्टि का सृजन होना है, वह माल (प्रकृति) चाहिये। डॉ. हरिश्चन्द्र जी की रोचक पुस्तक से यह पाठ उसे मैंने कभी स्वयं पढ़ाया था। ऐसे मौलिक तर्कों व लेखकों को मुखरित करिये।
श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी कहा करते थे- नीलामी 1,2 व 3 पर छूटती है। दौड़ 1,2 व 3 पर ही क्यों आरभ होती है? वह कहा करते थे, अनादि काल से तीन अनादि पदार्थों का मनुष्य जाति को यह संस्कार दिया जाता है। दौड़ या नीलामी तीन से आगे 5,7 व दस पर क्यों नहीं होती? अब सस्ते दृष्टान्त व चुटकुले सुनाकर वक्ता अपना समय पूरा करते हैं।