स्तुता मया वरदा वेदमाता-30
उताहमस्मि संजयापत्यौ मे श्लोक उत्तमः।। 10/159/3
परिवार को सुखी और सफल बनाने के लिये मुखय व्यक्ति का योग्य और परिश्रमी होना आवश्यक है। मन्त्र में घर की अधिष्ठात्री देवी कहती है- जहाँ मेरे पुत्र शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले हैं? मेरी पुत्री तेजस्विनी होकर विराजमान है, वहाँ पर मैं स्वयं भी घर की धुरा हूँ। मैं संजया हूँ। संस्कृत में संजया स्थूणा खमभे को कहते हैं। जैसे घर की छत का भार खमभे के ऊपर टिका होता है, उसी प्रकार घर में मैं स्थूणा हूँ, समस्त उत्तरदायित्व मुझ पर ही हैं, इसीलिये मैं संजया हूँ।
हमारे परिवार की समस्या है कि एक ओर घर में पति-बच्चे हैं और साथ-साथ घर में बड़े वृद्ध लोग रहते हैं, उनकी सेवा सहायता का कार्य भी घर के उत्तरदायित्व में सममिलित होता है। आज जब महिलायें बहुपठित हो गई हैं, तब उन्हें भी लगता है कि उनकी अपनी योग्यता और ज्ञान का उपयोग होना चाहिए, इससे जहाँ समाज को लाभ होगा, वहीं घर की आय में वृद्धि होने से आर्थिक आधार भी प्राप्त होता है। धन कमाने वाले के अधिकार भी बढ़ जाते हैं। धन का कहाँ व्यय करना है, इसकी स्वतन्त्रता भी धन कमाने वाले को मिल जाती है। नौकरी (सेवा-कार्य) करने से अपने पुरुषार्थ का लाभ, आर्थिक उपलबधि से स्वावलमबन और स्वतन्त्रता की अनुभूति होती है। इस आकर्षण के चलते हर कोई धन कमाने की इच्छा रखता है।
गृहस्थ और परिवार में आर्थिक आधार की आवश्यकता होती है। यदि प्राथमिक आवश्यकता के लिये अर्थोपार्जन करना पड़े तो असुविधा और कष्ट उठाकर उसे करना ही पड़ता है। आवश्यकता की कोई सीमा रेखा नहीं बन सकती, अतः प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक धनोपार्जन के लिए प्रयत्न करता है। संकट तब उत्पन्न होता है, जब घर में सन्तान हो। सन्तान की प्रारमभिक स्थिति में आपके सामने दो परिस्थितियाँ होती हैं, आपको धन भी कमाना है, अपना स्थान भी समाज में बनाकर रखना है, दूसरी ओर अपने बच्चों का पालन-पोषण के साथ शिक्षा एवं संस्कार देने की व्यवस्था भी करनी है। दोनों का लाभ उठा सकना आज असमभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा, इसको सन्तुलित करने में एक पक्ष के साथ अन्याय तो होगा ही। आप बाहर कार्य करते हैं, आपके बच्चे नौकरों के हाथों पलते हैं या पालनागृह में पलते हैं, जो माँ का और घर का विकल्प कभी नहीं बन सकते। एक की हानि तो आपको उठानी ही पड़ेगी।
घर में एक बार अतिथि, आने वाले सबन्धी की बात छोड़ भी दें तो घर के सदस्य के रोगी, असमर्थ होने की दशा में आपको अपने दायित्वों के विभाजन पर विचार तो करना ही पड़ेगा। आज वृद्ध माता-पिता को घर में रखना अपने सामाजिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व में बड़ी बाधा है, इसी कारण आजकल वृद्धाश्रम और सहायता सेवा केन्द्रों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इन समस्याओं में प्राथमिकता के चुनाव में आजकल के युवा दमपती अपने को मुखय मानकर चलते हैं, परन्तु इसका परिणाम वृद्धावस्था में भोगना पड़ता है। वर्तमान व्यवस्था चिन्तन की प्रक्रिया है, परिणाम नहीं। यह व्यवस्था स्वीकार्य इसलिये नहीं हो सकती, क्योंकि इससे अगली पीढ़ी के निर्माण में त्रुटि हो रही है। वृद्धावस्था को प्राप्त पीढ़ी अपने को एकाकी और असहाय अवस्था में पाती है। आज के सन्दर्भों को बदला नहीं जा सकता, इतनी बड़ी हानि को सहन नहीं किया जा सकता है, निर्णय कर्त्ता को स्वयं करना है। यह स्वयं का निर्णय ही इस मन्त्र में निर्देशित है।
परिवार की अधिष्ठात्री की घोषणा है- मैं घर के कर्त्तव्यों का पालन करती हूँ और मेरे कार्य से मेरा पति मेरा प्रशंसक बन गया है। मेरा कार्य मेरे लिये अच्छा हो सकता है, परन्तु परिवार के सदस्यों में भी मेरे लिये प्रशंसा का भाव हो यह कार्य मुझे करना है। एक महिला का बच्चे के सामने एक प्राध्यापक, एक प्राचार्य, एक अधिकारी का रूप काम नहीं देगा, उसे तो बच्चे की माँ बनकर ही रहना होगा, तभी उसकी सार्थकता है। घर में माता, पिता, पति की उपस्थिति में वह अपनी समाज की भूमिका में नहीं आ सकती, उसे तो एक गृहिणी की भाँति सबकी सेवा-आवश्यकता की चिन्ता करनी होगी। इस परिस्थिति में यदि दोनों में से एक चुनाव करना पड़े तो घर को चुनना पड़ेगा, क्योंकि सबका अस्तित्व घर से जुड़ा है। पूरा घर उसे केन्द्र बिन्दु बना कर चल रहा है। बच्चों के निर्माण और आर्थिक लाभ में बच्चों के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी, नहीं तो उत्पन्न समस्याओं का सामना करना होगा।
जब मुखिया अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेगा, तो घर में सभी उसकी प्रशंसा करेंगे, उसका सहयोग करेंगे, प्रोत्साहन देंगे। त्याग के बिना प्राप्ति नहीं है, सेवा के बिना प्रशंसा नहीं मिलती, अतः वेद अधिष्ठात्री घोषणापूर्वक कह रही हूँ- मैं घर की धुरा है, सारे सदस्य मेरे प्रशंसक है, पति मुझ पर गर्व करता है।