स्तुता मया वरदा वेदमाता-37
आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
चिकित्सक का आना आशा का सूचक है। इससे रोगी को आश्वासन मिलता है। मनुष्य को आश्वासन से बड़ा बल मिलता है। चिकित्सक रोगी को आश्वासन दे रहा है-मैं तेरे पास आ रहा हूँ। ऐसे ही नहीं आ रहा हूँ, मैं श्रेय कल्याण को लेकर आ रहा हूँ। मेरे हाथों से तेरा कल्याण निश्चित है। कल्याण करने वाले उपायों को लेकर आ रहा हूँ। रिष्ट रोग हिंसा और कष्ट को कहते हैं। वैद्य कहता है- मैं तुझे रोग रहित करने आ रहा हूँ।
इस सूक्त के सभी मन्त्रों में जहाँ औषध की चर्चा है, वहाँ वाणी और स्पर्श चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। हाथ को विश्वभेषजः कहा है। चिकित्सक के हाथ के स्पर्श से रोगी को शान्ति और स्वास्थ्य का अनुभव होता है। मेरा हाथ समस्त रोगों की औषध है। स्पर्श मात्र से रोग का निवारण करता हूँ। समस्त अशिव को मेरा हाथ मसल देने में समर्थ है। वाणी से भी रोगी को स्वास्थ्य का अनुभव कराता हूँ।
मूल रूप से मनुष्य शरीर के रोग तो सहन कर लेता है, परन्तु यदि मानसिक रूप से निराशा का अनुभव करने लगे तो फिर उसको स्वस्थ करना कठिन हो जाता है। मनुष्य को किसी की सहायता का विश्वास होता है तो वह अपने में बल का अनुभव करता है। आस्तिक होने का मनुष्य को सबसे अधिक लाभ मानसिक स्तर पर ही मिलता है। आस्तिक मनुष्य परमेश्वर की सहायता का अनुभव हर समय कर सकता है, अतः उसे भय नहीं लगता। डेल कार्नेगी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चिन्ता छोड़ो, सुख से जीओ’ में अपने अनुभव लिखे हैं। एक अनुभव में कहा गया है कि रोगी पर औषध उपचार के साथ-साथ आस्तिकता का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी परीक्षण किया गया। आस्तिक और नास्तिक रोगियों पर औषध का समान उपयोग किया गया, परिणाम में पाया गया कि आस्तिक रोगी शीघ्र स्वस्थ हुये तथा उनका प्रतिशत भी अधिक रहा। मनुष्य को परमेश्वर का विश्वास होता है तो उसका आन्तरिक बल बढ़ता है।
इसके साथ वातावरण भी मनुष्य के मन पर प्रभाव डालता है। जहाँ का वातावरण स्वच्छ होता है, पवित्र होता है तो ऐसे स्थान पर जाकर मन प्रसन्न होता है। इसका मुखय कारण वातावरण में ऊर्जा बढ़ाने वाले तत्त्वों का होना है। शुद्ध वायु में ऊर्जा का होना, प्राण शक्ति का होना ही वायु की शुद्धता है। शुद्ध वायु का शरीर में संचार होते ही शरीर की कोशिकाएँ विस्फारित होने लगती हैं। प्रसन्नता में शरीर की मांसपेशियों में विस्तार आता है। जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, उसे ही स्वास्थ्य का बल मिलता है। मन्त्र कहता है- मैं तेरे लिये बल बढ़ाने वाली औषध लाया हूँ। पिछले मन्त्र में भी कहा गया है कि वातावरण की वायु ऐसी होनी चाहिये, जो अन्दर जाते हुए बल का संचार करे, प्राण शक्ति को बढ़ावे और अन्दर से बाहर की ओर निकलती हुई वायु अन्दर के दोषों को बाहर ले जावे। वैद्य कह रहा है- मैं तेरे लिये बल और सुख की प्राप्ति का उपाय लेकर आया हूँ। निश्चित रूप से तेरे रोग को ‘परा सुवामि’ दूर करने में समर्थ हूँ। तेरे रोग को निकाल कर दूर फेंक देता हूँ।
मन्त्र के शबद से चिकित्सा की विश्वसनीयता तथा वैद्य की योग्यता और आत्मविश्वास-दोनों का बोध होता है। जैसे वैद्य में आत्मविश्वास होता है, वैसे ही रोगी में भी जिजीविषा होनी आवश्यक है। इस सूक्त के मन्त्रों में रोगी को विश्वास बढ़ाने की प्रेरणा की गई है। इन मन्त्रों के पाठ से रोगी के विचारों को बल मिलता है। इससे पता लगता है कि चाहे स्वस्थ होना हो या रोग दूर करना हो, किसी अकेले उपाय से सिद्धि नहीं मिलती। जितनेाी प्रयत्न समभव हैं, सबका उपयोग करना चाहिये, इसीलिये औषध के साथ पथ्य पर बल दिया जाता है। पुराने चिकित्सक पथ्य को भी औषध का भाग स्वीकार करते हैं। उसके मत में औषध पथ्य होता है, अतः औषध के साथ पथ्य भी आवश्यक है। आजकल की चिकित्सा लाक्षणिक है, अतः औषध केवल लक्षण का निवारण करती है, कारण का नहीं। औषध रोग का निवारण करती है, पथ्य कारण को दूर करता है, अतः दोनों को मिलाकर ही मनुष्य शीघ्र और पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।
ओउम नमस्ते जी
जी ये कौन से वेद का मन्त्र है ?
व्याख्या बहुत सरलता से समझाई है इसके लिए धन्यवाद।
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