स्तुता मया वरदा वेदमाता-३६
द्वा विमो वातौ वात आ सिन्धो रा परावतः।
दक्षते अन्य आ वातु परान्यो वातु पद्रपः।।
यह सम्पूर्ण सूक्त एक मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर के अन्दर चल रहे किन-किन कार्यों को हमें जानना चाहिये और उनसे कैसे लाभ उठाना चाहिए? इस बात का उल्लेख है। प्रथम मन्त्र में मानसिक रूप से हमारे उत्थान-पतन की चर्चा की गई है। देवता लोग पतन के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को उत्थान की ओर ले जाते हैं, उन्हें निष्पाप कर देते हैं। आगे बताया गया है कि इस शरीर में प्राणधारण वायु के माध्यम से हो रहा है। वायु शरीर में गति कर रहा है। यहाँ क्रिया भेद से दो प्रकार की गति हो रही है- एक वायु जब शरीर के अन्दर की ओर जा रही है, वह सिन्धु तक पहुँच रही है। दूसरी लौटने वालीवायु परावत तक जा रही है। सिन्धु क्या है? शरीर का वह स्थान जो वायु से पुष्ट हो रहा है। हृदय के अन्दर संचरित होने वाला रक्त, इस प्राण वायु से शुद्ध किया जा रहा है।
हृदय और फेफड़े इस शरीर में रक्त के सम्बन्ध में कार्य करने वाले दो मुख्य संस्थान हैं। शरीर का सारा रक्त हृदय में आता है और वहाँ से फेफडों में पहुँचता है। हृदय का कार्य शिराओं के माध्यम से रक्त का संग्रह करना और धमनियों के माध्यम से फेफडों और शरीर के अंगों में वितरण करना है। फेफडों का कार्य रक्त का शोधन करना है। फेफडों में लाखों कोष बने हुए हैं, इनमें रक्त जाता है और वहाँ से लौटकर हृदय में जमा होता है, जहाँ से फिर हृदय द्वारा शरीर के अंगों को भेजा जाता है। लोग कहते हैं कि शरीर में हृदय, जो रक्त संचार का केन्द्र है, उसका ज्ञान पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् में हृदय की परिभाषा करते हुए कहा है- हृदय शब्द में तीन अक्षर हैं, इसके तीन कार्यों को बताते हैं- हृ से हरति अर्थात् जो रक्त का संग्रह करता है। द से ददाति अर्थात् जो रक्त का वितरण करता है तथा य से यति अर्थात् गति करता है। जो लेता है, जो देता है और चलता रहता है, इसलिये उसे हृदय कहते हैं।
उपनिषद् में मस्तिष्क का कार्य, विचार भावना के अर्थ में भी हृदय शब्द का उपयोग हुआ है, परन्तु वायु के सम्बन्ध में जब हृदय कहा जायेगा, तब रक्त का संचरण करने वाले हृदय की बात की जायेगी। फेफडे रक्त का शोधन करते हैं, हृदय रक्त को शरीर से लेकर फेफडों को देता है और फेफडों से लेकर शरीर को देता है। इस क्रिया को करने के लिये वायु शरीर में आता है, प्रवेश करता है- उसे सिन्धु तक, हृदय तक प्रभावकारी होना चाहिये और बाहर की ओर भी वह वायु दूर तक जानी चाहिए। यहाँ परावतः दूर तक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, जब श्वास बाहर दूर तक जायेगा, तभी अन्दर तक जायेगा। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। गहरा श्वास लेने के लिए श्वास को बाहर दूर तक ले जाना होगा। श्वास छोटा होगा, तो अन्दर बाहर भी छोटा-छोटा ही रहेगा। वह रक्त को पूर्ण रूप से शुद्ध करने में समर्थ नहीं होगा। प्रथम सम्पूर्ण रक्त से शुद्ध वायु का संसर्ग नहीं हो पायेगा और रक्त के सम्पर्क में आयेगा, उसे भी सम्पूर्ण प्राण की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह अन्दर जाने वाला वायु बल का देने वाला है और बाहर जाने वाला वायु पाप=दोष को बाहर निकाल कर मनुष्य को स्वस्थ करता है।