अब सापिण्ड्य शब्द पर कुछ विचार किया जाता है। समान और पिण्ड शब्द को मिलाकर सपिण्ड शब्द बनता है। उससे भाव-कर्म अर्थ में ष्यञ् प्रत्यय१ होकर सापिण्ड्य शब्द सिद्ध होता है। वीर्य-रुधिरादि की परम्परा से जिनका पिण्डनाम देह एकता को प्राप्त है, वे मनुष्य परस्पर सपिण्ड कहाते हैं। अथवा इस शब्द का द्वितीय अर्थ यह भी हो सकता है कि योनिसम्बन्ध की समीपता से पिण्डनाम ग्रासोपलक्षित भोजन व्यापार जिनका एक है जिनको सब प्रकार का भोजन परस्पर मिलकर करने में किसी प्रकार की घृणा नहीं उनको भी सपिण्ड कह सकते हैं। जिन पुत्रादि वा जिन पितादि को जिन अपने सम्बन्धी आदि का भोजन न्यायपूर्वक करना चाहिये, वे उनके सपिण्डी कहे वा माने जाते हैं। इस सिद्धान्त पर जो अतिव्याप्ति दोष आ सकता है उसकी निवृत्ति आगे की गई है। याज्ञवल्क्यस्मृति पर जो मिताक्षरा टीका है उसमें सपिण्डता के विचार प्रसग् पर इस प्रकार लिखा है कि२- ‘सपिण्डता भी एक शरीर का अंश परम्परा से अनेकों में जाने से होती है जैसे पिता के शरीर का अंश पुत्र में आने से पिता के साथ पुत्र की सपिण्डता है। इसी प्रकार पिता में पितामह के शरीर का अंश होने से पिता के द्वारा पौत्र की पितामह (दादा) के साथ सपिण्डता है। इसी प्रकार माता के शरीर का अंश पुत्र में आने से माता के साथ पुत्र की सपिण्डता तथा माता के द्वारा नाना आदि के साथ भी सपिण्डता है। और मौसी वा मामा आदि के साथ भी माता के द्वारा सपिण्डता है, क्योंकि जिनके शरीर से माता का शरीर बना उन्हीं से मामा वा मौसी का भी बना है, इस कारण वे भी सपिण्ड हैं तथा चाचा और बुआ आदि के साथ भी पिता, पितामह के द्वारा सपिण्डता मिलती है। और स्त्री-पुरुष दोनों से एक पुत्रादि का शरीर बनता है इसलिये पुत्रादि द्वारा स्त्री पुत्र की सपिण्डता है। और देवरानी-जिठानी आदि आपस में एक श्वशुर के शरीर से बने पतियों के साथ मिलके एक-एक पुत्रादि के शरीर का कारण होने से सपिण्डता है। इसी प्रकार जहां-जहां सपिण्ड शब्द की प्रवृत्ति है वहां-वहां साक्षात् वा परम्परा से शरीरांश मिलने का विचार जानना चाहिये। यदि ऐसा होने पर जो मनु आदि धर्मशास्त्रों में सपिण्ड वालों को दश दिन की मृतक अशुद्धि मानना लिखा है सो नाना आदि को भी सामान्य कर प्राप्त होगी ? इसका समाधान यह है कि ‘जो कन्या पतिकुल में चली गईं उनके पुत्रादि सम्बन्धी आशौच उसी कुल वालों को होगा।’ इत्यादि विशेष विचार न हो तो नानादि को भी आशौच लग सकता है। यह सपिण्ड- सम्बन्धी विचार शरीरांश के मेल से अवश्य मानना चाहिये क्योंकि ‘पिता का स्वरूप ही पुत्र उत्पन्न होता है।’ यह वेद का सिद्धान्त है।’ न्यायसूत्र पर वात्स्यायन भाष्य में लिखा है कि- ‘अन्य का विचार अपने अनुकूल हो तो वह अपना सिद्धान्त जानो’ यह शास्त्रकारों की युक्ति वा शैली है।’ इसी के अनुसार हमने भी मिताक्षरा का वर्णन यहां अपने सिद्धान्तपक्ष में रखा है। दूसरा पक्ष जो भोजन की एकता से सपिण्डता मानी है इसको मिताक्षराकार ने नहीं माना। इस दोनों प्रकार की सपिण्डता का ब्राह्मणादि वर्णमात्र में वा मनुष्यमात्र में लक्षण चला जाने से अतिव्याप्ति दोष आ जावेगा, क्योंकि शरीर के अंश की एकता मिलाने लगें तो उसकी उससे, उसकी उससे मिलते-मिलते सबकी एकता सबके साथ परम्परा से मिल सकती है [सम्बन्धी का सम्बन्ध- नाते का नाता खोजते-खोजते अवधि मिलना दुस्तर है यह अनवस्थापत्ति दोष कहाता है] इसी प्रकार भोजन की परम्परा भी एक से दूसरे की और दूसरे से तीसरे की मिलते-मिलते सबके साथ सबकी सपिण्डता प्राप्त होगी। इस अनवस्था दोष को हटाने के लिये मनु जी ने पञ्चमाध्याय में इस शब्द को योगरूढ़ लाक्षणिक अर्थ से ठहराया है कि- ‘सप्तम पीढ़ी में सपिण्डता समाप्त हो जाती है।’ अर्थात् जिन-जिन की जिन-जिन के साथ सपिण्डता मानी गयी है उन-उन की सात पीढ़ी के अन्तर्गत ही रहेगी। इस प्रकार जब सपिण्डता का सिद्धान्त ठीक सिद्ध हो गया तो मरे हुए को पिण्ड देने की रीति से सपिण्डता के मानने वा कहने की शटा दूर हो जाती है। यह सपिण्डता के वर्णन का आशय है।
अब संक्षेप से स्त्री के दाय का विचार किया जाता है। कोई-कोई धर्मशास्त्र के ज्ञाता स्त्रियों का दाय नहीं मानते वा चाहते। और ऐसा ही पूर्वज धर्मशास्त्रकार मनु आदि महर्षियों का सिद्धान्त भी कहते वा मानते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि मनु ने ही नवमाध्याय के दायभागप्रकरण में स्पष्ट कहा है कि- ‘भाई लोग अपने-अपने अंशों में से कन्याओं के लिये चौथा-चौथा भाग पृथक्-पृथक् देवें और यदि कन्याओं अर्थात् पिता के धन में से भगिनियों को भाग न देवें तो शास्त्र की आज्ञानुसार वे पतित मानने चाहियें।’१ इस सीधे अर्थ को मेधातिथ्यादि भाष्यकारों ने झमेला में डाल दिया है कि विवाह न होने से पूर्व ही कन्या शब्द से ग्रहण करके उन कन्याओं के विवाहसंस्कार के लिये भाइयों को अपने अंश से चतुर्थांश देना चाहिये, ऐसा वर्णन करते हैं। और इसी से यह भी आशय निकल सकता है कि यदि पिता के मरने से पूर्व ही कन्याओं का विवाह हो जावे तो पीछे बांट होने पर नहीं देना चाहिये। पर मनु जी का यह आशय होता तो चौथा भाग देना नहीं लिखते, किन्तु स्पष्ट यह लिख देते कि कन्याओं का विवाह करने से पहले पिता मर जावे तो रियासत वा धन में से कन्याओं के विवाह को यथोचित धन पृथक् निकालकर पीछे भाई लोग बांट करें। क्योंकि वैसा लिखने में अनेक दोष आवेंगे। जहां कुछ रुपया-पैसारूप धन इकट्ठा हो उसमें से तो कन्याओं के लिये विवाहार्थ देना बन सकता है। मान लीजिये कि कदाचित्् पिता के समय की कुछ सम्पत्ति नहीं और वह छोटी-छोटी कन्या छोड़कर मर गया तो क्या भाइयों पर अपने पैदा किये धन से विवाह करने का भार धर्मशास्त्र की आज्ञा के अनुसार नहीं होना चाहिये ? द्वितीय यदि पिता के मरने के बाद हजार गांवरूप सम्पत्ति राज्य हो और उसका एक ही पुत्र अधिष्ठाता हो तो क्या २५० ग्राम की जमींदारी कन्या के विवाहार्थ दी जावे ? जब इन लोगों को कन्याओं के लिये भाग दिलाना ही अभीष्ट नहीं, फिर जमींदारी उनके नाम कैसे इष्ट हो सकती है। और २५० वा ५०० ग्राम का मूल्य विवाह में व्यय भी नहीं हो सकता, यदि कुछ कन्या को दे दिया जावे तो वह विवाह के व्यय में नहीं समझा जावेगा। तात्पर्य यह है कि यदि विवाहमात्र का प्रबन्ध भाई लोग कर दें, यही आशय धर्मशास्त्र का होता तो चौथा भाग कन्याओं को देना नहीं कहते, क्योंकि कहीं तो चौथे भाग से [एक दो रुपया हो तो] विवाह हो नहीं सकता और कहीं चौथा भाग इतना हो सकता है जिससे सहस्रों विवाह हो जावें। इसलिये मेधातिथ्यादि भाष्यकारों की कल्पना ठीक नहीं है। और यह कल्पना केवल मेधातिथि आदि की ही नहीं है किन्तु मूल याज्ञवल्क्यस्मृति२ और मिताक्षरा टीका में भी ऐसा ही वर्णन किया है। अनुमान होता है कि उन्हीं को देखकर इन नवीन भाष्यकारों ने भी वैसा माना होगा। यदि इस सिद्धान्त को मानें तो स्त्री को अर्द्धाग्णिी मानना विरुद्ध पड़ता है क्योंकि अर्द्धाग्णिी मानने का मुख्य प्रयोजन यही है कि सर्वत्र जड़ वा चेतन में आधा भाग स्त्री का और आधा पुरुष का है। मनुष्य के शरीर में विचारदृष्टि से देखें तो स्त्री का भाग अधिक और पुरुष का कम है क्योंकि गर्भाधान के दिन पुरुष का थोड़ा सा अंश पड़ता और पीछे सब गर्भ का शरीर स्त्री के शरीर से बनता वा बढ़ता और नवमास के पश्चात् भी जब तक माता का दूध पीता है तब तक माता से ही बालक बढ़ता है। इसलिये माता का भाग पुत्र के शरीर में अधिक है इसी कारण पिता की अपेक्षा सहस्र गुणी सेवा सन्तान को माता की करनी चाहिये, यह धर्मशास्त्रकारों की आज्ञा है। इसीलिये पुत्र पर माता का अधिक बल वा दाय होना चाहिये। यदि वृद्धावस्था में कन्या, पुत्र माता की ठीक-ठीक सेवा-शुश्रूषा न करें तो राजद्वार से बलात्कार पुत्रों की कमाई में से माता ले सकती है [इसी स्त्री की प्रधानतारूप मूलपक्ष को लेकर कभी शाक्तमत चला हो ऐसा अनुमान होता है] इसके अनुसार स्त्री का अर्द्धभाग से भी अधिक होना चाहिये सो उसको पिता के धन में से कुछ न देना अन्याय क्यों नहीं हुआ ? और मूल श्लोक में वैसा कोई पद नहीं है जिससे अविवाहित कन्याओं के विवाहसंस्कारार्थ चौथे भाग की कल्पना समझी जावे। तथा नववें अध्याय में मनु जी ने कहा है कि- ‘पुत्र के पुत्र और पुत्री के पुत्र में धर्म से देखा जाय तो कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है, क्योंकि पौत्रनाम पोते का पिता और दौहित्रनाम धेवते की माता ये दोनों उसी पुरुष के शरीर से उत्पन्न हुए हैं।’१ इसका अभिप्राय यह है कि जब कन्या और पुत्र दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है। तभी उनके सन्तान भी बराबर के अधिकारी हो सकते हैं। इस श्लोक में धर्मतः पद कहने का अभिप्राय यह है कि पुत्र कन्या बराबर के अधिकारी हैं। इस कथन से अनुमान होता है कि पहले भी कोई लोग कन्या, पुत्र में भेद मानते थे, सो यथोचित भेद मानना तो ठीक ही है। लोक में भी सामान्य कर माता-पिता पुत्र और कन्या को एक सी प्रीति से देखते हैं। और कन्या को जो भाईयों की अपेक्षा चतुर्थांश कम भाग देना लिखा इसका अभिप्राय यह है कि कन्या को पति के धन पर भी किसी प्रकार का अधिकार होगा और पति के धन का ही प्रायः भोग करेगी यह तो उसको केवल अपना स्वत्व रखने तथा आपत्काल में निर्वाह के लिये दिया जाता है। विवाह कर देने का तो पिता वा पिता के पीछे भाईयों का सर्वथा भार है ही। तथा पूर्वकाल वा शास्त्र के विचारानुसार विवाह कर देने में धन का तो कुछ व्यय होता भी नहीं जिसके लिये चौथा भाग देने की आज्ञा दी जाती। और यदि किसी अंश में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की पराधीनता वा न्यूनता है तो स्त्री की अपेक्षा किसी अंश में पुरुष की भी प्रधानता हो सकती है। जैसे ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की किसी प्रकार अप्रधानता है वैसे किसी अंश में क्षत्रिय की अपेक्षा ब्राह्मण की भी अप्रधानता हो सकती है। ऐसी प्रधानता वा अप्रधानता से स्त्रियों के दाय का निषेध नहीं कर सकते, किन्तु पुरुष की अपेक्षा किसी प्रकार स्त्रियों की अप्रधानता मान के पुत्र की अपेक्षा कम धनांश दिया जाय यह हो सकता है। सो यह न्यूनता कन्याओं में इसलिये मानी गयी है कि वृद्धावस्था में जबकि माता-पिता की सेवा का समय आता है तब कन्या अपने पति के घर में होती और वहीं के कामों को सम्हालती हैं और पुत्र तो अच्छी शिक्षा पाकर निरन्तर पिता के घर को सुशोभित करते हुए दिन-रात वृद्धावस्था में माता-पिता की सेवा में तत्पर रहते वा रह सकते हैं। पुत्रों से पिता का नाम और गोत्र भी बराबर आगे को चलता है तथा कन्या अन्य पति के गोत्र में मिलके सन्तानोत्पत्ति द्वारा अपने पति और श्वशुर का नाम चलाने वाली होती हैं। इस कारण से पुत्रों की प्रधानता और कन्याओं की कुछ न्यूनता वा अप्रधानता मानी जाती है। पर इससे उन कन्याओं का सन्तानपन और दाय का छूट जाना नहीं हो सकता और ऐसा किया जाय तो धर्म से विरुद्ध है। जिस मार्ग से वा जैसी क्रिया और श्रम से पुत्रों की उत्पत्ति की जाती वा पालन-पोषण होता है वैसा ही सब कन्याओें की उत्पत्ति में भी करने पड़ता है फिर पुत्रों का स्वत्व रहे और पिता के धन में कन्याओं का भाग न रहे इसमें क्या कारण है ? यदि माता-पिता के धनादि में कन्याओं का स्वत्व न हो तो मातादि की भी हृदय से उन पर प्रीति न होनी चाहिये सो ऐसा नहीं दीखता। पुत्रों के तुल्य कन्याओं पर भी प्रीति का होना ही उनके दाय का सूचक है और जो मेधातिथि आदि भाष्यकारों ने कन्याशब्द से कुंआरी का ग्रहण किया है सो सर्वसाधारण मनुष्यों की अपेक्षा वे कन्या न समझी जावें यह हो सकता है परन्तु माता-पिता और भाईयों की अपेक्षा तो उनमें सदा कन्यापन ही रहता है और वे लोग कन्या, बेटी, छोरी आदि शब्दों से ही सदा व्यवहार करते वा बुलाते हैं। जैसे श्वेत बाल हो जाने पर भी पिता अपने पुत्रों को बालक, पुत्र वा वत्सादि शब्दों से ही बुलाता है वैसे ही विवाही हुई कन्याओं को भी माता-पिता कन्याशब्द से ही व्यवहार करते हैं। इस कारण कन्याशब्द से उक्त मनुस्मृति के श्लोक में कुंवारियों का ग्रहण नहीं करना चाहिये। किन्तु विवाहित-अविवाहित दोनों का ग्रहण समझना चाहिये। जहां एक कन्या और बहुत भाई हों वहां पिता के मरने पर सब भाई लोग बराबर अपने हिस्से करके अपने-अपने अंश से चौथे-चौथे भाग को उस भगिनी के लिये देवें और जहां एक भाई तथा बहुत बहिनें हों वहां सब मूल धन से चतुर्थांश लेकर सबके लिये बराबर भाग कर देवे। इसी प्रकार अन्यत्र भी लगा लेना चाहिये। इसका विस्तार भाष्य में देखना चाहिये। इससे सिद्ध हो गया कि पिता के धन में कन्याओं का भी दाय (हक) है, इसलिये उनको भी यथोचित भाग देना चाहिये। यह संक्षेप से मनु का सिद्धान्त कहा गया है।