श्यामभाई को मार दो!

श्यामभाई को मार दो!

धाराशिव में आर्यसमाज का अपना मन्दिर अब तो है, पहले नहीं था। आर्यसमाज के उत्सव एक पौराणिक मन्दिर में हुआ करते थे।

निज़ाम के लाडले व बिगड़े मुसलमान आर्यसमाज के उत्सव पर आक्रमण करते ही रहते थे। उदगीर, लातूर तथा दूर-दूर के आर्यवीर धाराशिव के उत्सव को सफल बनाने के लिए आया करते थे।

एक बार श्यामभाई वेदी पर बैठे थे। अन्य आर्यजन यथा- डॉ0 डी0आर0 दास (श्री उज़ममुनि वानप्रस्थ) भी साथ बैठे थे।

प्रचार हो रहा था। मुसलमानों की एक भीड़ शस्त्रों से सुसज्जित नारे लगाती हुई वहाँ पहुँच गई। सुननेवाले सुनते रहे। रक्षा के लिए नियुक्त आर्यवीर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार थे ही। इतने में भीड़ में से कुछ ने कहा-‘‘देखते ज़्या हो, मार दो श्यामभाई को।’’ यह कहते हुए कुछ आगे बढ़कर रुक गये। किसी ने कहा- ‘‘कहाँ है श्यामलाल! मार दो।’’

श्री उज़ममुनिजी ने उसी मन्दिर में आर्यसमाज के एक वार्षिकोत्सव में हमें बताया कि हम यह देखकर दङ्ग रह गये कि यह भीड़ इकदम रुक ज़्यों गई। जो श्यामलाल को मार दो, मार दो

चिल्ला रहे थे, उनमें से किसी को यह साहस ज़्यों न हुआ कि भाईजी पर बर्छे, भाले, तलवार या लाठी का ही वार करें। हमारे व्यक्ति सामना तो करते, परन्तु वे भाईजी के शरीर पर चोटें तो लगा सकते थे, मार भी सकते थे।

भाईजी जैसे बैठे थे, वैसे ही शांत बैठे रहे। उनका कहना था कि प्रचार रुकना नहीं चाहिए। इसलिए बोलनेवाला बोलता रहा।

आक्रमणकारी रुके ज़्यों? जब भाईजी की आँखों से आँखें मिलाईं तो रक्त-पिपासु दङ्गइयों का साहस टूट गया। निर्मल आत्मा, ईश्वर विश्वासी, निर्भय, शान्तिचिज़ श्यामभाई के नयनों की ज्योति को देखकर वे आगे बढ़ने का साहस न बटोर सके।

संसार में कई बार ऐसा भी होता है कि पापी-से-पापी पाषाण- हृदय भी किसी पवित्र आत्मा के सामने जाकर पाप-कर्म करने का साहस नहीं कर पाता। यह भी एक ऐसी ही घटना है। उस समय पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का व्याज़्यान चल रहा था।

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