पूर्व प्रदर्शित वेदोक्त मान्यता की परपरा वेदों से लेकर पुराणकाल तक निरन्तर मिलती है, जिसमें शूद्रों के लिए सुस्पष्ट रूप से धर्मानुष्ठानों का विधान और वर्णन है। मनु इसी वैदिक कालावधि के राजर्षि हैं, अतः उनके द्वारा शूद्रों के यज्ञ आदि का निषेध संभव नहीं माना जा सकता। धर्मानुष्ठान में भेदभाव का कथन पुराणों और पुराणाधारित साहित्य की देन है। फिर भी पुराणों में भेदभाव रहित प्राचीन धर्मानुष्ठान-परपरा का उल्लेख प्राचीन अंशों में कहीं-कहीं सुरक्षित है। यह इस तथ्य का संकेत है कि पुराणपूर्व काल में धर्मानुष्ठान के विषय में कोई भेदभाव नहीं था और इसका भी कि सभी पुराण शूद्रों के लिए वेद, यज्ञ आदि धार्मिक अधिकारों का निषेध नहीं मानते। यहां उस परपरा का दिग्दर्शन संक्षेप में कराया जा रहा है जिससे कोई पौराणिक भी यह आग्रह न करे कि शूद्रों के लिए धर्माधिकार के निषेध की परपरा प्राचीन और पुराणसमत है-
(क) शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ में सोमपान के प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है-
‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः, न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति। स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’ (5.5.4.9)
अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।
(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10.30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।
(ग) वाल्मीकीय रामायण में वर्णन है कि दशरथ ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था तो उसमें शूद्रों को भी बुलाया था। उस समय में वे यज्ञ में उपस्थित होते थे और अन्य वर्णों के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे (बालकाण्ड 13.14, 20, 21)
इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)
(घ) महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –
धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।
इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥
(शान्तिपर्व 188.15)
अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणीाी चारों वर्ण वालों के लिए है।
(ङ) महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-
भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।
वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।
(शान्तिपर्व 65.18)
अर्थ-दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करके करनी चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।
(च) महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-
‘‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’ (वनपर्व 134.11)
अर्थात्-इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।
(छ) भविष्यपुराण शूद्रों को मन्त्र-अध्यापन का आदेश देता है-
‘‘ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राः, तेषां मन्त्राः प्रदेयाः।’’
(उ0 पर्व 13.62)
(ज) वेदोक्त प्राचीन परपरा के आधार पर ही ऋषि दयानन्द ने शूद्रों-स्त्रियों को यज्ञ, वेद आदि के अधिकारों की घोषणा करके इनका अधिकार प्रदान किया। उन्होंने तो दस्यु को भी वेद पढ़ने का निर्देश दिया है (ऋग्वेदभाष्य, 7.79.1, भावार्थ में)।
इस प्रकार शूद्रों द्वारा धर्मानुष्ठान तथा वेदाध्ययन की परपरा आरभिक वैदिक काल से चलती आ रही है। उस काल में शूद्रों पर धार्मिक प्रतिबन्ध का विचार ही नहीं था। अतः उस कालावधि के धर्मप्रवक्ता मनु के वचनों में शूद्रों के धर्माधिकार के निषेध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। वस्तुस्थिति यह है कि नितान्त नवीन संकीर्ण धारणा प्रक्षेप के रूप में मनु पर थोप दी गयी है।