श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी
आर्यसमाज के आदि काल में आर्यों के सामने एक समस्या थी। अच्छा गानेवाले भजनीक कहाँ से लाएँ। इसी के साथ जुड़ी दूसरी समस्या सैद्धान्तिक भजनों की थी। वैदिक मन्तव्यों के अनुसार
भजनों की रचना तो भक्त अर्मीचन्दजी, चौधरी नवलसिंहजी, मुंशी केवलकृष्णजी, वीरवर चिरञ्जीलाल और महाशय लाभचन्दजी ने पूरी कर दी, परन्तु प्रत्येक समाज को साप्ताहिक सत्संग में भजन गाने के लिए अच्छे गायक की आवश्यकता होती थी। नगरकीर्तन आर्यसमाज के प्रचार का अनिवार्य अङ्ग होता था। उत्सव पर नगर कीर्तन करते हुए आर्यलोग बड़ी श्रद्धा व वीरता से धर्मप्रचार किया करते थे।
पंजाब में यह कमी और भी अधिक अखरती थी। इसका एक कारण था। सिखों के गुरुद्वारों में गुरु ग्रन्थसाहब के भजन गाये जाते हैं। ये भजन तबला बजानेवाले रबाबी गाते थे। रबाबी मुसलमान ही हुआ करते थे। मुसलमान रहते हुए ही वे परज़्परा से यही कार्य करते चले आ रहे थे। यह उनकी आजीविका का साधन था।
आर्यसमाज के लोगों को यह ढङ्ग न जंचा। कुछ समाजों ने मुसलमान रबाबी रखे भी थे फिर भी आर्यों का यह कहना था कि मिरासी लोगों या रबाबियों के निजी जीवन का पता लगने पर
श्रोताओं पर उनका कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लोग सिखों की भाँति भजन सुनना चाहते थे।
तब आर्यों ने भजन-मण्डलियाँ तैयार करनी आरज़्भ कीं। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी मण्डली होती थी।उज़र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सिन्ध में सब प्रमुख समाजों ने भजन मण्डलियाँ बना लीं।
महात्मा मुंशीराम वकील, पं0 गुरुदज़जी, न्यायाधीश केवलकृष्णजी (मुंशी), महाशय शहजादानन्दजी लाहौर, चौधरी नवलसिंहजी जैसे प्रतिष्ठित आर्यपुरुष नगरकीर्तनों में आगे-आगे गाया करते थे। टोहाना (हरियाणा) के समाज की मण्डली में हिसार जिले के ग्रामीण चौधरी जब जुड़कर दूरस्थ समाजों में जसवन्तसिंह वर्माजी के साथ गर्जना करते थे तो समाँ बँध जाता था।
लाहौर में महाशय शहजादानन्दजी (स्वामी सदानन्द) को भजन मण्डली तैयार करने का कार्य सौंपा गया। वे रेलवे में एक ऊँचे पद पर आसीन थे। उन्हें रेलवे में नौकरी का समय तो विवशता में देना ही पड़ता था, उनका शेष सारा समय आर्यसमाज में ही व्यतीत होता था। नये-नये भजन तैयार करने की धुन लगी रहती। सब छोटे-बड़े कार्य आर्यलोग आप ही करते थे। समाज के उत्सव पर पैसे देकर अन्यों से कार्य करवाने की प्रवृज़ि न थी।
इसका अनूठा परिणाम निकला। आर्यों की श्रद्धा-भक्ति से खिंच-खिंचकर लोग आर्यसमाज में आने लगे। लाला सुन्दरदास भारत की सबसे बड़ी आर्यसमाज (बच्छोवाली) के प्रधान थे। आर्यसमाज
के वार्षिकोत्सव पर जब कोई भजन गाने के लिए वेदी पर बैठता तो लाला सुन्दरसजी तबला बजाते थे। जो कार्य मिरासियों से लिया जाता था, उसी कार्य को जब ऐसे पूज्य पुरुष करने
लग गये तो यह दृश्य देखकर अपने बेगाने भाव-विभोर हो उठते थे।