शव का दाह-कर्म ही होगा
मारीशस में सरकारी नियमानुसार किसी शव का दाह-कर्म नहीं किया जा सकता था। बीसवीं शताज़्दी के आरज़्भ की घटना है कि मारीशस में एक सैनिक टुकड़ी आई। इनमें से किसी की मृत्यु हो गई। नियमानुसार उसे दबाने के लिए कहा गया। आर्यवीर सैनिकों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने पुलिस की सहायता से शव को भूमि में गाड़ना चाहा, परन्तु ये सैनिक विद्रोह पर तुल गये। सरकार को ललकारा-देखते हैं कि हमारा शव कौन छूता है? सरकार झुक गई। आर्यों की मारीशस में यह पहली बड़ी जीत थी। मारीशस में यह प्रथम दाह-कर्म था।
यही लोग जाते-जाते सत्यार्थप्रकाश की एक प्रति दो-एक मित्रों को दे गये। आर्यसमाज का बीज बोनेवाले यही थे। आज तो- लहलहाती है खेती दयानन्द की।
निश्चय ही ये सब लोग नींव के पत्थर थे। कृतज्ञता इस बात की माँग करती है कि मैं पाठकों को यह स्मरण कराऊँ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज केवल सेनानी के रूप में ही इतिहास
बनानेवाले न थे, अपितु इतिहास के गज़्भीर विद्वान् तथा इतिहास को सुरक्षित करनेवाले भी थे। मारीशस को भारत से जोड़नेवाले, इस द्वीप के महज़्व को समझने व समझानेवाले तथा इसका इतिहास व भूगोल लिखनेवाले वे प्रथम भारतीय विद्वान् व नेता थे। उस दूरदर्शी साधु की दृष्टि ने तब मारीशस का महज़्व जाना जब भारत के सब राजनैतिक नेता गहरी नींद में सोये हुए थे। यह उपर्युक्त सब सामग्री उन्हीं की पुस्तक से ली गई है।