. जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, इसमें यजमान अलग से कहने की आवश्यकता क्या है? यह तो ठीक है कि यजमान के बिना यज्ञ कैसे होगा और उसका यज्ञ में विशेष महत्त्व भी है, परन्तु जब देव ही यज्ञ करने का अधिकार रखते हैं, मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, फिर विश्वेदेवा में यजमान स्वतः ही आ जाता है। उसके लिए अलग से यजमान भी बैठ जाएँ-कहने का प्रयोजन क्या है? समझ नहीं आता है। हम तो यही सुनते थे कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। हम साधारण व्यक्ति तो यही समझे हैं कि उक्त मन्त्र में केवल सभी देव और यजमान के लिए बैठने का ही निर्देश नहीं है, बल्कि जलाई गई अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के बारे में भी कहा गया होगा और इससे अन्य भी कोई महत्त्वपूर्ण बात है, इसलिए इस मन्त्र का क्रम इसी स्थान पर आता होगा, परन्तु सभी देवों और यजमान को इतने समय बाद बैठने का निर्देश देना समझ नहीं आता। यहाँ ‘‘सीदत’’ का कुछ अन्य भी अर्थ होगा। कृपया, समझाने का कष्ट करें।
(ग) इस तीसरे बिन्दु में भी आपकी वही समस्या है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, आपने यह बात कहाँ से कैसे निकाल डाली, ज्ञात नहीं हो रहा। जिस प्रकरण को लेकर आप यह बात कह रहे हैं, उस प्रकरण वा किसी अन्य स्थल से आप पहले यह प्रमाण दें कि मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है। हाँ, इसके विपरीत मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने के प्रमाण तो ऋषियों के अनेकत्र मिल जायेंगे। आप फिर उस बात को दोहरा रहे हैं कि देव ही यज्ञ करने के अधिकारी हैं, इस बात की भी सिद्धि नहीं होगी कि केवल देव ही यज्ञ कर सकते हैं।
अर्थात् मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी है, यह बात ऊपर शास्त्र से सिद्ध है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति-और छः छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए।’’ स.प्र. ३। यहाँ महर्षि ने मनुष्य लिखा है और अन्यत्र भी मनुष्यों द्वारा यज्ञ विधान है, इसलिए मन्त्र में ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ दोनों को पढ़ा गया है। यजमान और सब देवों के स्थिर होने का प्रयोजन है। केवल देव अर्थात् विद्वान् अथवा केवल यजमान (मनुष्य) ही नहीं, अपितु ये दोनों उस यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म में स्थिर हों। इन दोनों को कहने रूप प्रयोजन से मन्त्र में दोनों को कहा है। अधिक जानने के लिए उपरोक्त महर्षि के अर्थ को देखें।
अन्त में आपसे निवेदन है कि इस प्रकार के प्रश्न प्रकरण को ठीक से समझने पर अपने-आप सुलझ जाते हैं। शतपथ में किस प्रकरण को लेकर कहा है और वेद का क्या प्रसंग है, यदि हम उस प्रकरण, प्रसंग को ठीक से देख लें तो बात उलझेगी नहीं, अपितु सुलझ जायेगी। उलझती तब है, जब हम दो प्रकरणों को मिलाकर देखते हैं। अस्तु। – ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर (राज.)
Svami ji Rgvedaadibhashybhumika mein likhate hain ye pancha mahayajna sarve manusheir kartavyaah. seedata kar arth beithna hai aur shtheer hona savdhan hona bhi hai. Mantra mein aayaa hai agni rishi pavamaanah paancha janayah purohitah…. paancha janayah matlab brahman kshatriya vaishya shudra aur jo log in 4 varnon se bahar hai sab ko yajna karn hai.