श्री स्वामी विवेकानन्द जी रोजड़ का शंका समाधान पढ़ सुनकर कुछ स्वाध्याय प्रेमी उनके समाधान पराी प्रश्न उठाते हैं। उन पर कुछ टिप्पणी करने को कई कारणों से टाल देना उचित जाना। वह दर्शनों के पण्डित हैं अतः उन्हीं से उनके समाधान पर प्रश्न पूछने का परामर्श देना ठीक लगा। अब बहुत कहा गया तो उनके दो विचारों पर कुछ निवेदन किया जाता है। पाठक तथा विद्वान् इस पर गभीरता से विचारें।
एक प्रश्न के उत्तर में गऊ को कसाई से बचाने के लिए असत्य कतई न बोलने और ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र को आपने न्यारा-न्यारा उपाय करने का उपदेश दिया है। किसी भी अवस्था में असत्य न बोलने का आपका उपदेश है। गुप्तचर विभाग में कार्यरत व्यक्ति देश की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वे झूठ बोलकर क्या पाप करते हैं? पं. रुचिराम जी ने श्याम भाई का शव क्या सत्य बोल कर प्राप्त किया। वीर भगतसिंह ने साण्डर्स को मारा तो पुलिस ने पं. भगवद्दत्त जी, पं. रामगोपाल जी वैद्य तथा ठाकुर अमरसिंह से पूछा, वे गोली चलाकर किधर को भागे? तीनों ने कहा, हमने तो किसी को इधर से भागते देखा ही नहीं। क्रान्तिकारी पुलिस के हाथ नहीं आए। क्या ये तीन असत्य बोलने के कारण पापी माने जायें?
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने शाही किला में जाँच करने वालो को कहा, ‘‘मैं भापडोद की पंचायत में आने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं जानता।’’ वे जिसका भी नाम बताते सरकार उसे यातनायें देती। स्वामी जी ने झूठ बोलकर इतिहास बनाया। इसे आप पाप मानेंगे क्या?
रोजड़ में छपे एक बड़े ग्रन्थ में व उत्कृष्ट समाधान में मोक्ष प्राप्ति को ही सर्वोत्तम कर्म बताया गया है। जन्म लेने से दुःख भी भोगना पड़ता है सो जन्म लेना कोई बुद्धिमत्ता का कर्म नहीं। इस आाशय के वाक्य इस लेखक ने कई बार पढ़ें हैं। मोक्ष का महत्त्व सब जानते हैं परन्तु यह मत भूलिए कि ऋषि के पत्र-व्यवहार में ही समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा पढ़ लीजिये। ऋषि दूसरों के बन्धन काटने के लिए बार-बार नरजन्म पाने की घोषणा या कामना करते हैं। ध्यान से ऋषि जीवन का पाठ कीजिये, मनन कीजिये। रोजड़ के कई महात्मा मोक्ष विषयक एकाङ्गी विचार देते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने प्राणोत्सर्ग से पूर्व धर्म प्रचार जाति रक्षा के लिए फिर से नर-जन्म पाने की कामना व्यक्त की थी। क्या यह वेद-विरुद्ध माना जावे?
शंका समाधान करते समय ऋषि के पत्र-व्यवहार तथा जीवन-चरित्र का भी गाीर ज्ञान होना चाहिये। वेद के सिद्धान्तों को, वैदिक दर्शन को समझने के लिए इनका भी उतना ही महत्त्व है जितना अन्य आर्ष ग्रन्थों का है। बुद्धि-भेद पैदा करने से हानि ही होगी। संगति का लगाना बहुत आवश्यक है।
ऋषि जी ने नरजन्म पाने की कामना व्यक्त अवश्य की है लेकिन इसका अर्थ यह कैसे हुआ की देव दयानंद भी इसे मोक्ष से भी उत्तम मानते थे ?? कृपया शंका समाधान करें ।
Rishi dayanand ne swayam ke liye moksh prapti se badhkar samajik uddhar ko mana tha.
isliye to समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा karte hein