शैक्षणिक केरल यात्रा का वृत्तान्तः एक अविस्मरणीय अनुभव
– ब्र. वरुणदेवार्यः
सोमवता यागेनेष्टं भावयेत्। अर्थ संग्रह की यह पंक्ति व इसमें वर्णित सोमयाग का मीमांसा दर्शन के अध्येताओं के लिये विशेष महत्त्व है। इसी को ध्यान में रखते हुए आर्ष गुरुकुल ऋषि उद्यान अजमेर के विद्यार्थियों व आश्रमवासियों का एक दल केरल राज्य के पालाक्काड जिले में पेरुमुडियुर नामक स्थान पर हो रहे अग्निष्टोम नामक सोमयाग को देखने के लिए रवाना हुआ। 6 अप्रैल 2016 सायंकाल गुरुकुल से प्रारंभ हुई यह यात्रा 16 अप्रैल 2016 सायंकाल गुरु कुल में प्रवेश के साथ ही सफलता पूर्वक सपन्न हुई। इस यात्रा का वृत्तान्त हर्ष मिश्रित आश्चर्य, रोमांच व अविस्मरणीय घटनाओं से भरपूर है।
हमारे दल के अधिकांश व्यक्ति प्रथम बार सुदूर दक्षिण में केरल प्रदेश को देखने जा रहे थे। वहाँ की तीव्र गर्मी व अत्यधिक उमस की जानकारी व भौगोलिक परिस्थितियों के पूर्वानुभव की सूचना के पश्चात् भी 48 घंटे की रेल यात्रा बिना किसी थकावट के उत्साह के साथ पूर्ण हुई। पट्टाबि रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही हमारे लिये बस की व्यवस्था श्री के.एन. राजन जी द्वारा की गई थी। वे एक सक्रिय आर्य केरल में आर्ष गरुकुल के संस्थापक व सेवानिवृत्त वायुसेना अधिकारी हैं। यात्रा समाप्ति तक इनका संकोच रहित सहयोग व हमारी सभी प्रकार की व्यवस्था के लिए तत्परता एवं आत्मीयता का भाव अविस्मणीय रहेगा। यहाँ पहुँचते ही हमारे दल को पुरुष व स्त्री दो वर्गों में विभाजित किया गया। महिला वर्ग के रहने की व्यवस्था याग स्थली पर व पुरुष वर्ग की आवास व्यवस्था लगभग 3 किमी. दूर पहाड़ी पर स्थित भगवती मन्दिर में की गई थी।
सायंकाल को पहुँचा हमारा पुरुष दल अगली प्रातः अभी ठीक से जागा भी नहीं था कि महिला दल की एक सदस्या के असावधानीवशात् उनके निवास आवास पर स्थित कूप में गिरने की सूचना मिली। दैवयोग से वे तैरना भी जानती थीं और यागस्थली के निकट होने से स्थानीय कार्यकर्त्ताओं की मदद से उन्हें सुरक्षित निकाल लिया गया। प्रथमे ग्रासे मक्षिकापतितः के अनुसार यह घटना उस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थिति की द्योतक व सबके लिये सचेतक थी। पश्चात् सारा दिन सामान्य रहा।
प्रातःकाल याग स्थली पर सभी लोग एकत्रित हुए व ब्र. शक्तिनंदन जी ने जो योग विषय के अच्छे अनुभवी हैं हम सभी को योग संबंधित सभी प्रमुख जानकारियाँ भूमिचयन, यागशाला निर्माण आदि से लेकर शाला दहन तक का सविस्तार वर्णन किया। ऋत्विज्ञों से उनका पूर्व परिचय भी इसमें सहयोगी रहा। यज्ञ की व्यवस्था देख रहे लोगों के लिए ‘राजस्थान’ प्रान्त से आये 50 लोगों का दल गौरव का विषय था, अतः वे लोग भी समय-समय पर याग संबंधी जानकारी के लिए उपस्थित रहे। यात्रा के सामान्य नियमों के अनुसार यागशाला के चारों ओर कुछ दूरी पर रस्सी बाँध कर सामान्य जनों के प्रवेश को नियंत्रित किया जाता है, परन्तु उपरोक्त परिचय आदि के कारण हमारे कुछ साथियों को यागशाला प्रवेश व निकट से कर्मकाण्ड की रिकार्डिंग करने की अनुमति मिल गई। ऋत्विक् वरण आदि से प्रारंभ यज्ञ की ये विभिन्न क्रि याएँ सभी के लिए कौतूहल का विषय रहीं। नबूदरी ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला सस्वर मन्त्रपाठ अद्भुत व आनन्ददायक था। विशेषतः यह कि याग के ब्रह्मा से लेकर यजमान तक सभी को संहिता मन्त्र सस्वर कण्ठस्थ थे और उनके प्रधान जो वैदिक नाम से कहे जाते हैं सारा समय उस सारी प्रक्रिया का गहनता से निरीक्षण करते रहे। किसी भी पद के अशुद्ध उच्चारण होने अथवा स्वर के च्युत होने पर तत्परता से उसे ठीक कराना व पूर्ण शुद्ध उच्चारण होने पर ही आगे बढ़ने देना उन लोगों की वेदों व कर्मकाण्ड के प्रति श्रद्धा का प्रतीक और हमारे लिये प्रेरणा का प्रतीक रहा। एक ऋत्विज से चर्चा करने पर पता चला कि सस्वर वेद मंत्रों का कण्ठस्थीकरण उन लोगों की परंपरा है व इस योग में प्रवेश से 2 माह पूर्व से ही वे इस की तैयारी भी कर रहे थे तथा बिना देखे सस्वर वेदमन्त्रों को उपस्थित करने वाले ऋत्विजों को ही याग का अधिकार मिला है।
अगले दिनों में लगभग समान ही क्रियाएँ निरन्तरता से सुचारु रूप से बिना व्यवधान के चलती रहीं। याग स्थली के अति निकट एक और पाण्डाल में लगभग सारा दिन कुष्माण्ड याग चलता था। यह मुखय याग का अंश न होकर स्थानीय लोगों की श्रद्धा की पूर्ति का प्रतीक था। इस कर्मकाण्ड में मूर्ति पूजा (विशेष शिवलिङ्ग पूजन) व चढ़ावे पर जोर रहा। इसके साथ वाले पाण्डाल में भोजन व्यवस्था की गई थी। इस पूरे कार्यक्रम की विशेषता वहाँ के स्वयंसेवक रहे जो दिन-रात यंत्रवत् मुस्काते हुए चेहरों से आगन्तुओं का स्वागत करते रहे। किसी भी स्वयंसेवक या संस्था के अधिकारियों को हमने कभी चिंतित या क्रोधित अथवा दुःखी नहीं देखा। संभवतः यह उनकी सुनिश्चित योजनाओं और समर्पण का ही परिणाम था। भोजन में हमें प्रत्येक समय अनिवार्य रूप से चावल और सांभर मिले। लस्सी उत्तर भारत के लोगों के लिये भोजन का महत्त्वपूर्ण अंग होती है। हमें वहाँ लस्सी मिली, परन्तु मात्र आचमन के तरीके से अंजुलि भर ही।
इस यात्रा के 2 दिन स्थानीय आश्रमों, गुरुकुलों व मंदिरों के भ्रमण के लिये भी नियत किये गये थे। इनमें से प्रथम दिन हम बस द्वारा शंकराचार्य जी की जन्मभूमि तथा वहाँ बने मन्दिर देखने गये। यहाँ मन्दिर में आदि शंकराचार्य जी का जीवन चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। इसके निकट ही पूर्णा नदी है जो कथित रूप से मगर द्वारा आचार्य शंकर के पैर पकड़ने व संन्यास ग्रहण की साक्षी है। हमारे समूह ने भी उस नदी में अपने पद-प्रक्षालन का लाभ लिया। उस नदी के तट पर ही ऋग्वेद पाठशाला है। इसके साथ बने मन्दिर में हमने कुछ विद्यार्थियों को उच्चारणानुच्चारण विधि से मंत्रों का अयास करते देखा। सुयोग्य गुरु के निरीक्षण में उनके शुद्ध उच्चारण आकर्षण का केन्द्र रहे। यहाँ से बस द्वारा हम गुरुवायुर मन्दिर देखने पहुँचे, परन्तु समय से न पहुँचने के कारण वहाँ निकट के संग्रहालय को देख व मन्दिर परिसर में भोजन कर आगे बढ़े। इस मन्दिर में केवल भारतीय परिधान-वह भी पुरुषों को केवल कटिवस्त्र में ही भोजन ग्रहण करने का नियम है।
अगले चरण में हम बस द्वारा ही कालीकट द्वीप (समुद्री तट) पर सांयकाल पहुँचे। समूह के अधिकांश लोगों ने प्रथम बार समुद्री स्नान का आनंद लिया। अथाह अनन्त जल राशि अपनी लहरों से मानो साक्षात् आमंत्रित कर रही हो-यह रोमांचकारी अहसास मानस पटल पर लंबे समय तक रहेगा। रात्रि होने तक हम कश्यप आश्रम पहुँच चुके थे। इस यात्रा में एक मनोरंजक घटना भी हुई। प्रतिदिन सोमयाग के ऋत्विकों के सस्वर मंत्रपाठ व शुद्धीकरण और संकेतक के रूप में किये जाने वाले हस्त संचालन के हम इतने अयस्त हो चुके थे कि अनेक बार स्वयं भी वैसा अभिनय करने लगते। बस में भी भ्राता शक्तिनंदन जी (जो इस योग से संबंधित प्रक्रियाओं के सर्वाधिक ज्ञाता हैं) एक श्लोकोच्चारण कर रहे थे तो मेरे द्वारा टोकने पर चौंक पड़े और आश्चर्य मिश्रित प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे, पर जब मैंने स्वर संकेतक हस्त संचालन किया तो उन्हें भी समझते देर नहीं लगी कि यह केवल उनकी खिंचाई भर है और अन्य साथी भी हँसे बिना न रह सके।
कश्यप आश्रम पहुँचने पर हमारा स्वागत परंपरागत तरीके से दीप थाली आदि के माध्यम से हुआ। यह आश्रम श्री एन.आर. राजेश (आचार्य) जी द्वारा संचालित है। आप गुरुकुल काँगड़ी से स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा प्राप्त हैं। आपके विदेश प्रवास के कारण अन्य सहयोगियों द्वारा चलचित्र के माध्यम से आश्रम की गतिविधियों का परिचय करवाया गया। वहाँ आचार्य सत्यजित् जी का उद्बोधन हुआ। प्रथम बार तुलसीदल की माला देखी जो आचार्य जी को अभिनन्दन के लिये पहनाई गई थी। (विदित हो कि तुलसी के तने की माला तो प्रसिद्ध है, परन्तु तुलसी दल (पत्तों)की नहीं।) यहाँ के रल की प्रथम महिला पुरोहित से मिलने का अवसर मिला। श्री एम.आर. राजेश जी के प्रयासों से केरल में ढाई लाा लोग प्रतिदिन उाय समय अग्निहोत्र करते हैं। इस जानकारी ने हमारे समूह में भी उत्साह का संचार किया। विशेष जानकारी इस सभा में यह प्राप्त हुई कि केरल प्रदेश की भाषा मलयालम में सत्य सनातन पुस्तक वेद का अर्थ होता है-बाइबिल, अतः जब एम.आर. राजेश (आचार्य) जी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् अपने गृहस्थान पहुँचे और उन्होंने सभी को वेद पढ़ने के अपने संकल्प से परिचित कराया तो लोगों में चर्चा प्रारंभ हुई कि एक और बाह्मण का लड़का ईसाई बन गया है। पर आचार्य राजेश जी ने इससे निराश हुए बगैर अत्यंत उत्साह से कार्य किया और वेद का वास्तविक स्वरूप लोगों के समुख रखा और उन्हें अग्निहोत्रादि आदि के लिए तत्पर किया। इस क्रान्तिकारी कार्य के लिए आचार्य जी बधाई के व धन्यवाद के पात्र हैं। रात्रि भोजन वहीं किया। वहीं पहली बार केरल में गेहूँ की रोटी के दर्शन हुए।
वहाँ से चलकर लगभग मध्य रात्रि तक हम अपने आवास स्थलों पर पहुँचे। अगली प्रातः पुनः स्नानादि से निवृत्त होकर हम श्री के.एम. राजन जी द्वारा स्थापित व आचार्य वामदेव जी द्वारा संचालित गुरुकुल देखने गये। स्वस्तिवाचन के मंत्रों व पारंपरिक विधियों से स्वागत के पश्चात् यज्ञ किया गया। इस गुरुकुल में गौशाला के उद्घाटन का यह अवसर था। यहाँ सिंगापुर से पधारे आर्यों ने भी अपने विचार रखे। आचार्य श्री सत्यजित् जी का प्रेरक मार्गदर्शन गुरुकुल की व्यवस्था के संबंध में मिला। यह गुरुकु ल नित्य उन्नति करे-ईश्वर से ऐसी प्रार्थना है। आचार्य वामदेव जी बहुत सक्रिय व जुझारू विद्वान् हैं।
अग्निहोत्र व ब्रह्मयज्ञ आदि सिखाने की कार्यशाला के आयोजन में लगभग 25 बालक-बालिकओं युवाओं व महिलाओं को प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। उसके प्रमाणपत्रों का वितरण भी स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी व आचार्य सत्यजित् जी द्वारा हुआ।
यहाँ से हम डॉ. शशिकुमार जी के निवास पर पहुँचे। डॉ. साहब आचार्य जी के सहपाठी रहे हैं व आयुर्वेद पंचकर्म के वियात चिकित्सक हैं। यहाँ उनकी रसायन शाला व चिकित्सालय को भी देखने व आयुर्वेद संबंधी बहुत-सी जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला। परंपरागत वैद्यक का पक्षधर होने से उनके यहाँ अति प्राचीन दुर्लभ वैदक ग्रंथों को भी देखने का अवसर मिला।
यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित स्वामी प्रणवानन्द जी के संरक्षण में चल रहे गुरुकुल को भी देखने का हमें अवसर मिला।
आर्ष गुरुकुल के निकट ही श्री राजन जी ने अपने निवास में एक पुस्तकालय निर्मित किया है, जिसमें आर्ष ग्रन्थों व सैद्धान्तिक मलयालम ग्रंथों को रखा गया है। यहाँ से दोपहर बाद तक हम लोग वापस याग स्थली लौट आये।
सोम याग में औषधि सोमलता का रस निचोड़कर उससे आहुति देने का विधान है। इस औषधि के अत्यन्त दुर्लभ होने से इसके विकल्प या प्रतिनिधि के रूप में पूतिक नामक वनस्पति का उपयोग किया जाता है। केरल में कहीं-कहीं यह सोमलता उपलध हो जाती है। इस सोमयाग में वास्तविक सोमलता को ही लाया गया व प्रयोग किया गया। सोमरस निकालने के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का उच्चारण कर्त्ता 6 वर्ष की आयु का बालक नारायण था जो नियमपूर्वक एक साँस में सस्वर उन मंत्रों का पाठ करता था। मधुर स्वर से किये जाने वाले इस साहसिक पाठ के आनन्द का शबदों द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता। अन्तिम दिन शाला दहन का कार्यक्रम था। सपूर्ण कर्मकाण्ड के अंत में यज्ञ-शाला मण्डप को अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इस कृत्य को देखने के लिये अपार जन-मानस उपस्थित था। सांयकाल शाला दहन के पश्चात् ही सभी वापस राजस्थान के लिये निकल पड़े। मलयालम में केर शबद नारियल के लिये प्रयोग होता है और नारियल के वृक्षों की बहुतायत होने से ही संभवतः इस प्रदेश का नाम केरल है। ग्रन्थों में नारियल की तुलना सज्जनों से की जाती है और केरल के लोगों की सज्जनता का अनुभव हमने इस अष्ट दिवसीय प्रवास में निर्विवाद रूप से किया है। आज 2 सप्ताह व्यतीत हो जाने पर भी याग व केरल के लोगों की आत्मीयता व सहयोग मन मस्तिष्क पर छाये हुए हैं। सच ही कहा है-
देशाटनं पण्डितमित्रता च वाराङ्गना राजसभा प्रवेशः।
अनेक शास्त्राणि विलोकितानि चातुर्यमूलानि भवन्ति पञ्च।।
ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।