अब सप्तमाष्टम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले सप्तमाध्याय में इकतालीसवां और बयालीसवां दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन दोनों श्लोकों में विनयपूर्वक बर्त्ताव की प्रशंसा और अविनयपूर्वक बर्त्ताव की निन्दा के लिये वेन आदि राजाओं के दृष्टान्त दिखाये हैं सो ठीक नहीं हैं। क्योंकि विनय की प्रशंसा और अविनय की निन्दा में जितना जैसा अर्थवाद होना चाहिये उतना और वैसा उनतालीसवें और चालीसवें श्लोक में कहा ही है। और यह अर्थवाद इसलिये ठीक नहीं है कि वेनादि राजा बहुत पिछले हैं जिनकी विस्तारपूर्वक विशेष कथा महाभारतादि इतिहासों में दीखती हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है ऐसे प्राचीन पुस्तक में ऐसे पिछले लोगों की स्तुति-निन्दा कैसे हो सकती है ? और स्मृति वा धर्मशास्त्रों की शैली वा परिपाटी से भी यह विरुद्ध है कि किसी का इतिहास उनमें दिखाया जावे। क्योंकि इसके लिये महाभारतादि इतिहास पृथक् बनाये गये हैं। तथा पिता के जन्म समय में उसके आगे होने वाले पुत्रों के चरित्र का व्याख्यान कोई नहीं कर सकता। लोक में भी जिस-जिस का इतिहास जिस-जिस पुस्तक में दीखता है, वह-वह मनुष्यादि उस-उस पुस्तक के बनने के समय से पूर्व ही होता है। इत्यादि कारणों से उक्त दोनों (४१,४२) श्लोक प्रक्षिप्त हैं, ऐसा विचारशीलों को अनुसन्धान करना चाहिये।
आगे अष्टमाध्याय में एक सौ पांचवां और एक सौ छठा दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन दोनों श्लोकों में ब्राह्मणादि के वध को बचाने में बोले हुए झूठ का प्रायश्चित्त कहा गया है। सो इन दोनों श्लोकों से पूर्व के श्लोक में यदि किसी कारण ब्राह्मणादि को मरण से बचाने के लिये असत्यभाषण किया गया ठीक हो और उसको सत्य बोलने की अपेक्षा भी विशेष फलदायक माना तो पाप ही कहां हुआ? फिर किसकी निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त कहा जावे। इससे वह प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ है। और यहां प्रायश्चित्त का प्रकरण भी नहीं है, किन्तु ग्यारहवें अध्याय में वैसा झूठ बोलने आदि के प्रायश्चित्त का विचार सामान्य-विशेष कर किया ही है। इससे उक्त दोनों श्लोक यहां प्रक्षिप्त हैं।
आगे एक सौ दशवां, एक सौ बारहवां और एक सौ चौदहवें से एक सौ सोलहवें तक पांच श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यह भी अर्थवाद ठीक नहीं। इन श्लोकों में शपथ करने (कसम खाने) की आवश्यकता मिथ्या शपथ करना और अग्निवर्ण लोहे का गोला हाथ पर धरना वा जल में डुबाना जिसको न अग्नि जलावे और न जल डुबावे, वह जानो शुद्ध है, उसका शपथ करना ठीक है, वह पापी नहीं इत्यादि वर्णन किया है। सो यह ठीक नहीं क्योंकि जिसको सब कोई जानता है कि यह सत्यवादी है जो कभी, कहीं मिथ्या नहीं बोलता, उसको शपथ करने की कुछ आवश्यकता नहीं है। वसिष्ठादि महर्षि लोगों का उदाहरण भी यहां ठीक नहीं, क्योंकि वे प्रसिद्ध ही सत्यवादी थे, फिर क्यों शपथ करते और कदाचित् करते भी तो उनके उदाहरण की कुछ आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह इतिहास का विषय है और शपथ लेने का मुख्य प्रयोजन यही होता है कि जो सत्य का खोज करने के लिये शपथ हो वा शपथ से विवाद मिटता हो तो शपथ लेना चाहिये, यही शपथविषयक अर्थवाद ठीक है। स्त्रियों को ठगने के लिये वा विवाहादि के निमित्त मिथ्या शपथ करना अधर्म का हेतु और प्रमादी वा कामी लोगों का कथन है। धर्म से विरुद्ध कार्य की सिद्धि के लिये मिथ्या शपथ करने को कौन बुद्धिमान् अच्छा कहेगा ? और यह तो असम्भव है कि अग्नि हाथ को न जलावे और तैरना जाने बिना जल में डूबे नहीं। नीति में लिखा है कि- ‘अग्नि का कोई मित्र नहीं, होम करने वाला भी यदि स्पर्श करेगा तो अग्नि जला देगा।’१ क्योंकि अग्नि का जलाना गुण स्वाभाविक है, स्वाभाविक गुण को कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता। यदि आधुनिक कोई मनुष्य इसको सत्य मानें कि शुद्ध को अग्नि न जलावेगा तो उसको कोई मिथ्या दोष लगा देवे, वह दोषी तो है नहीं, फिर अग्नि का अंगार हाथ पर धर लेवे, तब यदि उसका हाथ न जले तो यह सत्य हो सकता है, परन्तु यह असम्भव है। इससे ये उक्त पांचों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
आगे तीन सौ चौंसठवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में कन्या को व्यभिचार में दोष का निषेध किया है। सो इस व्यभिचारप्रकरण में जब उसको हटाने के लिये बड़े-बड़े कठोर दण्ड कहे फिर कन्या को व्यभिचार में कुछ दोष नहीं, यह विरुद्ध है। यदि वह किसी की स्त्री नहीं, इससे दोष का निषेध हो तो ठीक नहीं, क्योंकि उस कर्म से व्यभिचार की वृद्धि ही दीखती है और स्वयं किसी पुरुष से व्यभिचार करने में माता-पिता की आज्ञा न लेना, उनका अपमानरूप दोष है। यदि एक व्यभिचारिणी कन्या को कठोर दण्ड दिया जावे तो आगे अन्य कन्या उसी दण्ड के भय से व्यभिचार न करेंगी। इसलिये कन्या को भी दण्ड देना व्यभिचार का नाशक होगा। यदि कोई कहे कि विवाहरीति से किसी उत्तम वर को कन्या ग्रहण कर ले, इसमें दोष नहीं तो दोष वा दण्ड का निषेध भी व्यर्थ है। क्योंकि विवाह में दोष प्राप्त ही कैसे था जिसका निषेध किया जाता। तथा इस पक्ष में इस श्लोक के उत्तरार्द्ध की भी सग्ति न लगेगी। इससे वह प्रक्षिप्त है।
आगे तीन सौ अस्सीवां और तीन सौ इक्यासीवां दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि पूर्व कह चुके हैं कि- ‘पिता, गुरु, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित इत्यादि सभी को राजा दण्ड देवे। गुरु, बालक, वृद्ध, वा बहुश्रुत ब्राह्मण भले ही हो यदि शस्त्र लेकर सामने मारने को आवे तो बिना विचारे मार देवे वा मार डाले। तथा ब्राह्मण सब विषयों के गुण-दोष वा धर्माऽधर्म के तत्त्व को सबकी अपेक्षा अधिक जानता है, इस कारण सबसे अधिक दण्ड ब्राह्मण को दिया जावे।’१ इत्यादि प्रमाणों के अनुसार जब अन्य की अपेक्षा विद्वान्, गुरु, पुरोहित और बहुश्रुत ब्राह्मणों को अधिक दण्ड और वध्य कहा फिर सब पापों में अवस्थित ब्राह्मण का मार डालना पुण्यकारक ही होगा। ये दोनों श्लोक किसी ब्राह्मण ने अपने कुल की रक्षा के लिये बनाकर पक्षपात से यहां डाल दिये हैं। जो पापी ब्राह्मण को भी न मारे तो उससे अधर्म की वृद्धि अवश्य होगी, इससे ये दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। इस प्रकार सप्तमाध्याय में दो और अष्टमाध्याय में दश श्लोक प्रक्षिप्त हैं।