संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

प्रश्न : संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

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