“दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”
सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा पुस्तक के इस अध्याय में आक्षेपकर्ता, महर्षि दयानंद पर पुनः एक कुतर्क सहित आरोप लगाने की झूठी कोशिश करते हैं की सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद क़ुरान की शिक्षा जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता की समर्थक है, ऐसी आयतो पर सत्यार्थ प्रकाश में काफिरो को हिन्दुओ से जोड़कर दर्शाया गया है, जिससे कुरान की आयते हिन्दू समाज के प्रति आक्रामक और अपमानजनक सिद्ध होती हैं ऐसा बताया गया है। इसके लिए आक्षेपकर्ता ने पुस्तक में इतिहास से जुड़े कुछ स्वघोषित उल्लेख भी प्रस्तुत किये हैं, ताकि इस्लाम और इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा का प्रस्तुतिकरण किया जा सके।
मगर खेद की आक्षेपकर्ता, इस अध्याय में भी पूरा सच नहीं बता पाये, क्योंकि जो पूरा सच बता देवे तो क़ुरान का शांति और भाईचारे का सिद्धांत ही खंडित हो जाएगा, क्योंकि इस्लाम की जो नींव रखी गयी, वो नींव स्वयं में दूसरे धर्मो, जातियों और सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओ, और मान्यताओ को कुचलकर, दबाकर, खून करकर, बलात्कार करते हुए रखी गयी, ऐसा हम नहीं स्वयं इतिहास बताता है, आइये एक एक कर सभी बातो पर विचार रखते हैं, देखते हैं आक्षेपकर्ता की सच्चाई और इस्लाम तथा मुहम्मद साहब की शांतिपूर्ण शिक्षा का वास्तविक आधार क्या है ?
सबसे पहले काफ़िर शब्द और इसका अर्थ समझते हैं जो आक्षेपकर्ता अपनी पुस्तक में चाहते हुए भी न समझा पाये या कहे की इस अर्थ को गोल गोल घुमा गए, देखिये काफ़िर का अर्थ :
काफ़िर एक संज्ञा है, इसका बहुवचन कुफ्र है, सरल शब्दों में इसका अर्थ नास्तिक है, लेकिन यदि विस्तार से समझा जाए तो इसका अर्थ है इंकार करने वाला, श्रद्धा न रखने वाला, विश्वास न करने वाला आदि, लेकिन यहाँ किसका इंकार, अश्रद्धा और विश्वास नहीं किया जा रहा वो समझना नितांत ही आवश्यक है। काफ़िर एक ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो एक अल्लाह नामी खुदा को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उस अल्लाह का आखरी रसूल, पैगम्बर न माने, वो काफ़िर है।
यहाँ कुछ समझने की बात है, वो ये है की ईश्वर है, उसको पूरी दुनिया में अनेको नामो से पुकारा जाता है, क्योंकि ईश्वर के अनेको नाम हैं, अनेक सभ्यताएँ, संकृतिया उस ईश्वर को अनेको नामो से पुकारती हैं, यानी वो सभी सभ्यताए ईश्वर को मानती हैं, लेकिन आपको आश्चर्य होगा की ये सभी संस्कृतिया और सभ्यताए इस्लामिक दृष्टिकोण से नास्तिक हैं, जाहिल हैं, मुर्ख हैं, पाखंडी हैं, अपवित्र हैं, क्योंकि वो अल्लाह को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उसका आखरी पैगम्बर नहीं मानती।
आइये आपको प्रमाण दिखाते हैं :
और तू अल्लाह के सिवा किसी को भी न पुकार जो तुझे न तो कोई लाभ पंहुचा सकता है और न ही कोई हानि ही। यदि तू ने ऐसा किया (अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा) तो फिर निश्चय ही तेरी गणना अत्याचारियो में होगी।
(क़ुरान १०:१०७)
पूरी दुनिया के सभी मनुष्य, जब भी विपदा में हो, परेशान हो, निराश हो अथवा हताश हो, तो उस ईश्वर को से ही सहायता मांगते हैं, भले ही हम किसी भी नाम से ईश्वर को पुकारे मगर यहाँ क़ुरान में खुद अल्लाह मियां ने ही साफ़ साफ़ बता दिया है, की जो भी अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा तो वो अत्याचारियो में होगा, क्योंकि अल्लाह के सिवा कोई नहीं जो सहायता कर सके। क्या ये अल्लाह के कथन किसी ईश्वरीय ग्रन्थ में उल्लेखित हो सकते हैं ? आगे देखिये :
और जब एक ही अल्लाह का वर्णन किया जाता है तो जिन लोगो का क़यामत पर ईमान नहीं होता उन के दिल (ऐसे उपदेश से) घृणा करने लग जाते हैं तथा जब उन (मूर्तियों) का वर्णन किया जाता है जो अल्लाह के मुकाबिले में बिलकुल तुच्छ हैं, तो वे अचानक प्रसन्न होने लगते हैं।
(क़ुरान ३९:४६)
अनेको सभ्यताओ में मूर्तियों द्वारा ईश्वर को पाने की सीढ़ी लगायी जाती है, ये प्रत्येक सभ्यता संस्कृति की अपनी सोच है, लेकिन किसी की आस्था (मूर्ति) को तुच्छ कहना, किसी की आस्था का मजाक बनाना, क्या ये क़ुरान में अल्लाह का कलाम हो सकता है ? क्या ये सभ्य शैली है ?
क्योंकि उन्होंने अल्लाह की उतारी हुई वाणी को पसंद नहीं किया है। अतः अल्लाह ने भी उनके कर्मो को अकारथ कर दिया।
(क़ुरान ४७:१०)
अब देखिये, यदि आप अल्लाह की वाणी यानी क़ुरान के अनुसार, मूर्ति पूजा करते हैं, तो आपके सारे कर्म अकारथ कर दिए हैं, क्योंकि आप क़ुरान की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे, क्या ये कहीं से भी ईश्वरीय आज्ञा लगती है ? ये तो किसी दुराग्रही के वचन लगते हैं की यदि क़ुरान की आज्ञा न मानी तो तेरे सारे कर्म निष्क्रिय होंगे, क्या अल्लाह मियां ऐसा करके ही मुस्लिम और हिन्दू समाज में विद्रोह उतपन्न करना चाहेंगे ? मुझे तो किसी शातिर व्यक्ति की चाल लगती है जो अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर क़ुरान में ये आयत जोड़ी गयी।
उपरोक्त आयतो को आपने ध्यान से पढ़ा होगा तो समझे होंगे की क़ुरान में स्वयं अल्लाह मियां ही काफ़िर और मोमिन (मुस्लिम) में भेद प्रकट करता है, अब हम आपको दिखाते हैं, की मोमिन कौन है, यहाँ इस बात को समझाना नितांत आवश्यक है, क्योंकि बिना मुस्लिम का अर्थ समझे आप काफ़िर को नहीं समझ सकते है, देखिये :
जो कुछ भी इस रसूल पर उसके रब की और से उतारा गया है उस पर वह स्वयं भी और दूसरे मोमिन भी ईमान रखते हैं। ये सब के सब अल्लाह और उसके फरिश्तो, एवं उसकी किताबो तथा उसके रसूलो पर ईमान रखते हैं (और कहते हैं की) हम उस के रसूलो में से किसी में भी कोई अंतर नहीं करते तथा यह भी कहते हैं की हम ने (अल्लाह का आदेश) सुन लिया है और हम (दिल से) उसके आज्ञाकारी बन चुके हैं। (ये लोग प्रार्थना करते हैं की) हे हमारे रब ! हम तुझ से क्षमा मांगते हैं और हमे तेरी ओर ही लौटना है।
(क़ुरान २:२८६)
अब यहाँ ध्यान से समझिए की मुस्लमान आखिर कौन हैं :
1. जो केवल एक अल्लाह पर विश्वास करता हो।
2. जो मुहम्मद साहब को आखरी पैगम्बर मानता हो।
3. जो क़ुरान को अंतिम ईश्वरीय वाणी मानता हो।
4. जो अनेको फरिश्तो (जिब्रील, मिखाइल आदि) पर ईमान रखता हो।
5. जो आख़िरत (क़यामत) के दिन दुबारा जिन्दा होना मानता हो।
6. जो जन्नत और जहन्नम पर विश्वास रखता हो।
7. जो मूर्ति भंजक (मूर्ति तोड़ने वाला) हो नाकि मूर्ति पूजक।
यहाँ यदि ध्यान से समझा जाए तो आप पाएंगे, मुस्लमान होने के लिए ये आवश्यक शर्ते (नियम) मानने यानी उपरोक्त पर विश्वास करना नितांत आवश्यक है, तभी आप मुस्लमान हैं, अब आप स्वयं सोचिये, जो भी व्यक्ति मुस्लमान नहीं यानी जो उपरोक्त पर विश्वास नहीं करता वो क्या है ?
हम आपको समझाने का प्रयास करते हैं, इस्लाम, क़ुरान और मुहम्मद साहब द्वारा इंसानो में जो बंटवारा किया गया है, वो देखिये :
क़ुरान में ईसाई समाज को नसारा और यहूदियों को यहूद कहा गया है, यहाँ तक की अल्लाह इनसे इतनी घृणा करता है की इन्हे अत्याचारी कहता है और मुसलमानो को इनसे सहायता न लेने तक का स्पष्ट वर्णन क़ुरान में अंकित करता है, देखिये :
हे ईमान लाने वालो ! यहूदियों और ईसाइयो को अपना सहायक न बनाओ (क्योंकि) उनमे से कुछ लोग कुछ दुसरो के सहायक हैं और तुम में से जो भी उन्हें अपना सहायक बनाएगा निस्संदेह वह उन्ही में से होगा। अल्लाह अत्याचारियो को कदापि (सफलता का) मार्ग नहीं दिखाता।
(क़ुरान ५:८२)
अब देखिये, यहाँ क़ुरान में स्वयं अल्लाह मिया कितनी शांति और भाईचारे की बात सिखा रहे हैं, क्या ये अल्लाह का कलाम है ? जब अल्लाह मियां स्वयं मनुष्यो में ही घृणा और पक्षपात करते हैं तब उनके ईमान वाले ऐसी बातो का इंकार कैसे करे ? क्या ऐसी शिक्षा से भाईचारा जागता है ? अब यहाँ विचारणीय बात ये भी है की ईसाई और यहूदियों के लिए “काफ़िर” शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि ईसाई और यहूदी भी “अहले अल किताब” की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि अल्लाह ने इस समाज को भी पवित्र किताब प्रदान की थी, इसलिए ये काफ़िर तो नहीं, मगर फिर भी अल्लाह की नजर में इनसे दोस्ती करना मुस्लमान और उसके ईमान के लिए सजा बराबर है।
अब दिखाते हैं, मुशरिक किसे कहते हैं, देखिये :
मुशरिक शब्द क़ुरान की ४५ आयतो में ५४ बार आया है (मोहसिन खान भाष्य अनुसार), मुशरिक की परिभाषा :
एक ऐसा व्यक्ति, जो अनेको देवी देवताओ पर विश्वास रखता है, भले ही वो एक सर्वोच्च ईश्वर को भी मानता हो, या न मानता हो, लेकिन अनेको देवी देवताओ की पूजा करता हो, उसे अरबी भाषा में मुशरिक कहते हैं, और ऐसे लोगो के प्रति अल्लाह मियां क़ुरान में क्या बयां करते हैं वो देखिये :
हे मोमिनो (मुसलमानो) ! वास्तव में मुशरिक गंदे (और अपवित्र) हैं। (क़ुरान ९:२८)
क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा करना अपवित्र कार्य है ? क्या कोई व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार पूजा उपासना नहीं कर सकता ? क्या यही इस्लामी स्वतंत्रता है ? क्या केवल अपनी संस्कृति अनुसार देवी देवताओ की पूजा करने से मनुष्य गन्दा, नापाक और अपवित्र हो सकता है ? क्या ये आयत हिन्दुओ की सभ्यता और संस्कृति पर प्रतिघात नहीं करती ? क्या ऐसी आयतो से वैमनस्य नहीं फैलता ? क्या हिन्दू समाज देवी देवताओ की पूजा उपासना नहीं करता ? क्या ये आयत मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दुओ को अपवित्र और नापाक नहीं कहलवाती ?
अब आपको बताते हैं, शिर्क करने वाले काफ़िर के बारे में, देखिये :
मूर्ति पूजा करना, या देवी देवताओ की पूजा करना, अथवा अल्लाह के साथ कोई अन्य उपास्य बनाना, या अल्लाह के अतिरिक्त किसी और नाम से ईश्वर को पुकारना शिर्क है, शिर्क के अनेको प्रकार हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे भयंकर और जिसको माफ़ नहीं किया जा सकता वो शिर्क है, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और ईश्वर को पुकारना अथवा अल्लाह के साथ अन्य किसी देवी देवता को पूजना, ये सबसे बड़ा शिर्क है, और इसे कभी माफ़ नहीं किया जाएगा, देखिये :
निसंदेह अल्लाह (यह बात) कदापि क्षमा नहीं करेगा की किसी को उसका साझी बनाया जाए, परन्तु जो पाप इससे से छोटा होगा उसे जिस के लिए चाहेगा क्षमा कर देगा और जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया तो समझो की उसने बहुत बड़ी बुराई की बात बनाई
(क़ुरान ४:४९)
अब देखिये, खुदा की खुदाई, की यदि अल्लाह को नहीं माना, या अल्लाह के साथ किसी और को साझी बनाया तो ये सबसे बड़ा गुनाह है, यानी अल्लाह मियां को गुस्सा, घृणा, द्वेष आदि गुण भी हैं, और क्रोध भी आता है, क्या ये अल्लाह मियां का लिखा हो सकता है ? जो अल्लाह मियां परम दयालु अपने आप को क़ुरान में बताते वो ऐसी आयत क्यों देंगे ? निश्चय ही किसी का शरारत है, और ये आयत क्या अल्लाह मियां की हिन्दुओ से घृणा और द्वेष को सिद्ध नहीं करती ? क्योंकि हिन्दू समाज ईश्वर के साथ साथ अनेको देवे देवताओ की पूजा उपासना करता है, तो क्या मुस्लिम समाज ऐसी आयतो को पढ़कर हिन्दुओ से प्यार करेगा ?
क्या चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, हिंसा और हत्या आदि अनेको पापकर्म, छोटे हैं जिन्हे माफ़ कर दिया जाएगा ? और केवल एक अल्लाह को नहीं मानना ऐसा बुरा कर्म की वो माफ़ नहीं किया जाएगा ? क्या ये आयत अल्लाह की हो सकती है ?
इस्लाम के अनुसार मूर्तियों का तोडना जायज़ है, और यही सच्चाई है, दीन है, और यही अल्लाह की नजर में धर्म है, देखिये :
मक्का में पैगम्बर दाखिल हुए। काबा में तीन सौ साठ मुर्तिया मौजूद थी। उन्होंने (पैगम्बर) ने उन मूर्तियों पर अपने हाथ में मौजूद डंडे से जोरदार प्रहार करते हुए कहा “सत्य आ गया है तथा असत्य भाग गया है और असत्य तो है ही भाग जाने वाला”
(सही मुस्लिम, किताब १९, हदीस ४३९७)
और काबा के पास उन की नमाज केवल सीटियां और तालियां बजाने के सिवा कुछ कुछ नहीं। सो हे अधर्मियों ! अपने इंकार के कारण अज़ाब का स्वाद चखो
(क़ुरान ८:३६)
कदापि नहीं, यदि वह बाज़ न आया तो हम छोटी पकड़कर घसीटेंगे (१५)
झूठी ख़ताकार चोटी (१६)
(क़ुरान सूरह ९६)
काबा में हिन्दू विधि विधान से ही कभी मूर्ति पूजा आदि होती थी, लेकिन मुहम्मद साहब ने काबा में मौजूद ३६० मूर्तियों को तोड़ डाला, और वहां (काबा) को मंदिर से मस्जिद में तब्दील कर डाला, उपरोक्त क़ुरानी आयतो को पढ़कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है की कभी किसी समय पर अरब के पगनो द्वारा आज के ही हिन्दुओ सामान मंदिरो में मूर्ति पूजा तथा पूजा पद्धति होती थी, और वहां पंडितो पुजारियों का चोटी रखना भी सिद्ध करता है, अतः क़ुरान की इस आयत से निष्कर्ष निकलता है की :
और हमने यह भी निर्णय किया था की मस्जिदे सदैव अल्लाह ही का स्वामित्व ठहराई जाए। अतः हे लोगो ! तुम उनमे उसके सिवा किसी को मत पुकारो।
(क़ुरान ७२:१९)
हिन्दुओ को मंदिरो से अथवा अन्य इबादतगाहों से केवल अल्लाह को ही पुकारना चाहिए, और यही इस्लामी नजरिये से जायज़ है, नहीं तो हिन्दू समाज काफ़िर, मुशरिक तो है ही।
उपरोक्त वर्णित क़ुरानी आयतो तथा इस्लामी हदीसो से स्पष्ट ज्ञात होता है की जो अल्लाह को नहीं मानता, या जो अल्लाह के साथ अनेको देवी देवताओ को भी पूजता है, अथवा जो मूर्ति पूजा करता है, वे सभी लोग पापी हैं, अपवित्र हैं, नापाक हैं, और वो धर्म पर नहीं हैं क्योंकि मूर्तिपूजक शैतान की पूजा करते हैं।
अतः ये सिद्ध है की क़ुरानी आयतो में ये वर्णन इतिहास सूचक नहीं है, बल्कि जब तक इस दुनिया में इस्लाम के मुताबिक कुफ्र है, शिर्क है, नापाक और अपवित्र मूर्तिपूजक हैं तब तक इस्लाम का जिहाद चलते रहना चाहिए। यही बात क़ुरान में अल्लाह मियां भी फरमाते हैं :
“उन्हें मार डालो जहाँ पाओ और उन्हें निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हे निकाला |”
(क़ुरान २:१९१)
“कुछ मुसलमान मित्र यहाँ कहेंगे की अल्लाह ने उन लोगो को मारने को कहा है जिन्होंने खुद लड़ाई की और ईमान वालो को घर से निकाला | लेकिन अगली आयत से सत्य का पता चलता है कि उन्हें मारने का उद्देश्य क्या है |
तुम उन से लड़ो की कुफ्र न रहे और दीन अल्लाह का हो जाए अगर वह बाज आ जाए तो उस पर जयादती न करो |”
(क़ुरान २:१९३)
आज भी इस्लामिक नजरिये से कुफ्र और शिर्क दुनिया में फैला हुआ है, इसीलिए दारुल हर्ब (काफिरो द्वारा अधिकृत देश) को दारुल इस्लाम (इस्लामी शरिया द्वारा अधिकृत देश) में बदलने की पुरजोर कोशिश जिहाद द्वारा की जा रही है, इसी कोशिश में आईएसआईएस, अल-कायदा, लश्कर आदि संगठन पुरे विश्व में आतंक फैलाये जा रहे हैं, कुछ मुस्लिम इस बात का खंडन करते हैं की ये इस्लामी विचारधारा नहीं है, लेकिन यदि क़ुरान की शिक्षा शांतिपूर्ण ही हैं तो इन कट्टरपंथियों की सोच का जिम्मेदार कौन है ? क्या ये कट्टरपंथी कोई और क़ुरान पढ़ रहे हैं, यदि हाँ, तो क्या ये मुस्लिम समुदाय की ही जिम्मेदारी नहीं की उन्हें क़ुरान और इस्लाम की सच्ची शिक्षा से अवगत करवाये ?
अब कुछ अन्य इस्लामी और क़ुरानी शिक्षा जो शांति, सौहार्द और भाईचारे की प्रेरणा देती है क्योंकि अल्लाह की नजरो में धर्म केवल और केवल इस्लाम है। इसलिए वे लोग जो गंगा जमुनी तहजीब की वकालत करते हैं, उन्हें क़ुरान की इन आयतो पर भी अपने विचार रखने चाहिए :
और जो मनुष्य इस्लाम के सिवा किसी दूसरे धर्म को अपनाना चाहे तो (वह याद रखे कि) वह धर्म उससे कदापि स्वीकार न किया जाएगा और वह परलोक में हानि उठाने वालो में से होगा।
(क़ुरान ३:८६)
वे अल्लाह को छोड़कर निर्जीव चीज़ो के सिवा किसी को नहीं पुकारते बल्कि वे उद्दंडी शैतान के सिवा और किसी को नहीं पुकारते
(क़ुरान ४:११८)
अब कुछ लोग सवाल करेंगे की आर्य समाज भी तो मूर्ति पूजा विरोधी है, तो इस्लाम की द्वारा जो किया गया वो सही है, यहाँ उन्हें ध्यान रखना चाहिए और सोचना चाहिए की आर्य समाज ने कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार की मूर्ति को तोडना, फोड़ना जायज़ नहीं बताया, न ही मंदिरो को तोड़कर उन पर मस्जिद बनाने का समर्थन ही किया, उलटे महर्षि दयानंद ने कहा था, की वो मूर्तियों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन लोगो की जो जड़ बुद्धि है, उसको तोड़कर चेतन सोच करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो केवल वेद ज्ञान द्वारा संभव है। लेकिन मुहम्मद साहब की क़ुरानी शिक्षाओ के कारण, जो मूर्तियां तोड़ी गयी, और जो मुहम्मद साहब ने पैगम्बर अब्राहिम का अनुसार करते हुए मूर्तियों को तोडा, वो ही चित्रण कुछ महीनो पहले सीरिया में आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा, सीरिया में देखा गया, जहाँ अनेको प्राचीन संस्कृति के बुतो को अकारण ही तोड़ दिया गया। क्या अब भी मुस्लिम समाज यही कहेगा की आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा किये गए कार्य इस्लामी शिक्षा से प्रेरित नहीं ?
ये केवल कुछ ही बताया है, अब पाठकगण स्वयं विचार करे की महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क्या गलत लिखा ? क़ुरान के अनुसार ही जो काफ़िर और मुस्लिम, तथा हिन्दू समाज की स्थति क़ुरान के नजरिये से ही महर्षि दयानंद ने प्रकट की थी, फिर भी आक्षेपकर्ता सच्चाई की जगह दुराग्रह व पूर्वाग्रह से ग्रसित हो नकारते चले गए। अब अगले लेख में नास्तिक और आस्तिक के बारे में विचार करेंगे।
आओ लौटो वेदो की और