सांई बाबा मत
– सत्येन्द्र सिंह आर्य
वर्ष 1875 ईसवी में आर्य समाज की स्थापना के समय भारत में लगभग एक सहस्र मत-मतान्तर विद्यमान थे। उनमें से कुछ की समीक्षा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में की है। आर्य समाज जैसे सुधारवादी आन्दोलन के आरभ होने के बाद भी नये-नये मतों का उद्भव होता रहा है। सांई बाबा मत भी उन्हीं में से एक है। 20 वीं शतादी के आरभ में इस मत का उदय महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में हुआ।
मध्य-युग (भक्ति काल) में सांई शबद ‘स्वामी’ के अर्थ में, ‘ईश्वर’ के लिए, किसी को आदरपूर्वक सबोधित करने के लिए प्रयोग में होता रहा है। जैसे किसी कवि ने लिखा-
सांई इतना दीजिए जा में कुटम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, पथिक न भूखा जाय।।
परन्तु इस शबद से किसी मत-पंथ का बोध नहीं होता था। उन्नीसवीं शताबदी के अन्त और बीसवीं शताबदी के आरमभ में शिरडी (महाराष्ट्र) की एक मस्जिद के मुस्लिम फकीर की प्रसिद्धि सांई-बाबा के नाम से हो गयी और उसके नाम से एक नया पंथ चल पड़ा। सांई-बाबा के नाम से मन्दिर बन गये और वही मुस्लिम फकीर हिन्दुओं की अन्ध भक्ति के कारण अवतार, भगवान और न जाने क्या-क्या बन गया।
स्वार्थ की पराकाष्ठा के कारण व्यक्ति कम परिश्रम से कम समय में माला-माल होना चाहता है। मत-पंथों का धन्धा इस हेतु सर्वाधिक अनुकूल सिद्ध होता है। आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में चित्रवती नदी के किनारे पुट्टुपर्ती ग्राम में वर्ष 1926 में जन्में ‘सत्यनारायण राजू’ नाम के बालक ने भी युवा होते-होते यही धन्धा अपनाया और ये ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’ नाम से विखयात हो गये। ‘सांई बाबा’ और ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’-ये दोनों नाम एक जैसे ही हैं। अगर ये सत्य नारायण राजू (पुट्टुपर्ती वाले सांई बाबा) अपने को किसी अन्य नाम से पुजवाते तो कुछ कठिनाई भी आती और प्रसिद्धि प्राप्त करने में कुछ समय भी लगता। वह पुराना ‘सांई बाबा’ चला-चलाया नाम था, इन्होंने कह दिया मैं ही आठ वर्ष पहले ‘सांई बाबा’ था, उसी का अवतार मैं हूँ।
(शिरडी वाले सांई बाबा की सन् 1918 में मृत्यु हो गयी थी।) अब ये अवतार बन गये और पुजने लगे। वेद-विद्या के प्रचार-प्रसार के अभाव में देश में भेड़-चाल है। लोग सत्य, सदाचार, न्याय की तुलना में चमत्कार की ओर को खिंचे चले जाते हैं। इन्होंने भी हाथ की सफाई दिखाई, अपने झबरे बालों में से भभूत, हाथ-घड़ी निकालने का चमत्कार दिखाया, कुछ गप्पें अपने बारे में प्रचारित करायीं और सिद्ध बन गये।
शिरडी वाले तो सिर्फ सांई-बाबा ही थे और उनका अवतार होने का सिक्का चल गया था। पहले वाले सांई बाबा के भक्तों ने उन्हें (नये बाबा को) मान्यता नहीं दी, तो इनके भक्तों ने क्या किया, कि सांई बाबा नाम तो उस तथा कथित अवतार का ले लिया तथा ‘‘सत्य’’ शबद जो ‘‘सत्यनारायण राजू’’ नाम बचपन का था, उससे ले लिया। ‘‘श्री ’’ अपनी ओर से समान की दृष्टि से लगाया और बन गए पूरे ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’। यह इसलिए भी किया कि पहले वाले सांई बाबा को असत्य सिद्ध करने की आवश्यकता ही न रही। भक्तों ने स्वयं ही कहना आरमभ कर दिया कि सत्य तो ये ही हैं। ऊपर से चमत्कारों का प्रोपैगेण्डा आरभ कर दिया जैसे कि इनके चित्र से शहद का टपकना, राख का झड़ना, लाईलाज बीमारियों का ठीक होना। ठगी करने के लिए ये ढोंग आवश्यक हैं ही। पुट्टुपर्थी वाले बाबा (अभी साल दो साल पूर्व ही इनकी मृत्यु हुई है) माडर्न महात्मा अपने को प्रदर्शित करते थे और स्वयं को बाल ब्रह्मचारी बताते थे, परन्तु विवाहित थे और इनकी पत्नी हैदराबाद के एक अस्पताल में नर्स थी। यही अवतारी बाबा पहले औरगांबाद (मराठवाड़ा) में पागलों की भाँति आवारागर्दी करते फिरते थे। यह सब विवरण सार्वदेशिक पत्रिका के 16 सितबर सन् 1973 के अंक में प्रकाशित हुआ है। बड़ी राशि के लेन-देन के सिलसिले में इसी बाबा के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा भी चलाया गया था, जिसमें कुछ रकम तो बाबा को वापस करनी पड़ी थी, परन्तु अर्काट जिले के दो भाइयों श्री टी.एम. रामकृष्ण तथा मुथुकृष्ण के लगभग एक लाा रुपये डकारने में ये अवतारी पुरुष? सफल हो गये थे।
लगभग एक डेढ़ शताबदी के अन्दर काफी सीमा तक एक जैसे ही नाम वाले इन दो सांई बाबाओं के नाम पर सांई-बाबा मत चल निकला और ऐसा चला कि अपनी पन्थाई दुकानदारी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता देखकर एक जगत् गुरु शंकराचार्य तक भी व्यथित हो गए।
सांई बाबा मत का कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ दृष्टि में नहीं आया, जिसमें इस पंथ के ईश्वर, धर्म, सृष्टि-निर्माण, आत्मा-परमात्मा विषयक आध्यात्मिक विवेचन, स्वर्ग, नरक, मुक्ति जैसे विषयों की चर्चा, सुसन्तान के निर्माण, सुाी गृहस्थी बनने के बुद्धि-गय सुझाव दिये गये हों। जो पुस्तकें उपलध हैं, वे इस प्रकार की हैं, जैसे-‘‘अवतार गाथा,’’ ‘सांई बाबा का चमत्कारी व्यक्तित्व’, A Man of Miracles
‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ (श्री सांई बाबा की अद्भुत जीवनी और उनके अमूल्य उपदेश) आदि। पूर्व-उल्लिखित ‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ पुस्तक मूल रूप से मराठी में है और इसके लेखक हैं, कै. गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर (हेमाडपन्त)। पुस्तक के हिन्दी संस्करण के अनुवादक श्री शिवराम ठाकुर हैं। इस पुस्तक का जो संस्करण मुझे प्राप्त हो सका, वह सन् 2007 में प्रकाशित हुआ 18 वां संस्करण है, जिसकी 1 लाख प्रतियाँ मुद्रित हुई हैं, ऐसा उल्लेख है और उससे पहले संस्करण (17 वाँ) की प्रतियाँ ढाई लाख बतायी गयी हैं। यदि वास्तव में पुस्तक की इतनी बड़ी संखया में प्रतियाँ छपी हैं, तो यह विस्मयकारी है। पुस्तक में 51 अध्याय हैं।
पुस्तक में सांई बाबा के जीवन की चमत्कारों से परिपूर्ण झाँकिया आदि से अन्त तक भरी पड़ी हैं। मत-पंथ कोई भी हो बिना चमत्कारों के टिक नहीं सकता। ईसाइयत, इस्लाम, जैन, बौद्ध, चारवाक, ब्रह्माकुमारी, राधास्वामी आदि सभी मत अपने-अपने संस्थापकों के जीवन में काल्पनिक चमत्कारों की गाथाएँ जोड़कर ही खड़े रह सके हैं। महाराज मनु प्रोक्त धर्म के 10 लक्षणों से उनका कुछ लेना-देना नहीं होता। सांई बाबा मताी उसी प्रकार चमत्कारों एवं आडबरों का गोरख धन्धा है। सांई को भगवान, भगवान का अवतार, अद्भुत चामत्कारिक शक्तियों से समपन्न अलौकिक दिव्यआत्मा सिद्ध करने के लिए आकाश-पाताल एक किये गये हैं। ‘श्री सांई सच्चरित्र’ पुस्तक के आरा में प्रथम अध्याय में वन्दना करने का उपक्रम करते हुए लेखक सांई का पूरा अवतारीकरण करने का प्रयत्न करता है। उन्हीं के शबदों में-
‘‘पुरातन पद्धति के अनुसार प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विघ्न समाप्त कर उसको यशस्वी बनाते हैं और कहते हैं, कि श्री सांई ही गणपति है।’’
….‘‘श्री सांई भगवती सरस्वती से भिन्न नहीं है, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जो क्रमशः उत्पत्ति, स्थिति और संहारकर्त्ता हैं और कहते हैं कि सांई और वे अभिन्न हैं। वे स्वयं ही गुरु बनकर भवसागर से पार उतार देंगे।’’
सांई बाबा को अन्तर्यामी (सर्वज्ञ) सिद्ध करने के लिए लेखक ने एक घटना का उल्लेख किया है। लेखक शिरडी पहुँचे और वहाँ साठेवाड़ा नाम के स्थान पर अपने एक शुभचिन्तक श्री काक साहेब दीक्षित (जो सांई बाबा के बड़े भक्त और नजदीकी थे) के साथ इस आशय की बात कर रहे थे कि गुरु धारण करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर काका साहेब ने उन्हें कहा ‘‘भाई साहब, यह निरी विद्वत्ता छोड़ दो। यह अहंकार तुहारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा।’’ इस प्रकार दोनों पक्षों के खण्डन-मण्डन में एक घण्टा व्यतीत हो गया और बात अनिर्णीत ही रही। लेखक महोदय आगे कहते हैं-‘‘जब अन्य लोगों के साथ मैं मस्जिद गया तब बाबा ने काका साहेब को समबोधित कर प्रश्न किया कि साठेवाड़ा में क्या चल रहा था? किस विषय में विवाद था? फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन ‘हेमाडपन्त’ ने क्या कहा। ये शबद सुनकर मुझे अधिक अचमभा हुआ। साठेवाड़ा और मस्जिद में पर्याप्त अन्तर था। सर्वज्ञ या अन्तर्यामी हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था?’’
बाबा की इस सर्वज्ञता? या अन्तर्यामीपन की पोल एक पौराणिक सद्गृहस्थ-सन्त भक्त रामशरण दास (पिलखुआ) ने इस प्रकार खोली है-
‘‘सांई साहब मुसलमान हैं। वह भी अपने को अतवार तथा और भी न जाने क्या-क्या बतलाया करते थे। बहुत से मनुष्य इनके चंगुल में फँस गये थे, परन्तु कुछ दिन हुए एक लुहारिन ने इनके अवतारपने की सब पोल खोल दी। सांई जी को जब सब लोग बड़ी श्रद्धा के साथ घेरे हुए थे, तो उस समय एक लुहार भी बड़ी श्रद्धा के साथ आपको अपने मकान पर लिवा लाया। लुहार की स्त्री लुहारिन भी वहीं पर उनके पास बैठ गई। कुछ देर में सांई साहब ने एकाएक बहुत क्रोध में आकर बुरा-बुरा मुँह बनाकर अपना डंडा उठाकर धड़ाम से एक किवाड़ में दे मारा और कहा कि ‘जा साले!’ सबने हाथ जोड़कर पूछा कि सांई साहब क्या बात है? सांई साहब ने अपने को त्रिकाल दर्शी कहते हुए कहा कि अरब में इस समय एक कुत्ता काबे को नापाक कर रहा था। मुझे वह दिख रहा था। मैंने उसे यहीं पर बैठे हुए दे मारा है। यह सुनकर सब लोग हाथ जोड़कर और भी ज्यादा श्रद्धा करने लगे।’’
‘‘लुहारिन होशियार थी, उसने कहा कि सांई साहब मैं आपके लिए चावल बनाकर लाती हूँ, आप बैठे रहना। वह अन्दर गई और चावल बनाये, जब चावल बन चुके, तो उसने एकबर्तन में पहले बूरा (चीनी) रखा और फिर बूरा के ऊपर चावल इस तरह से रखे कि जिससे वह बूरा बिल्कुल ही न दिखे। फिर उस बर्तन को लाकर उसने सांई साहब के सामने रख दिया। लुहारिन चावल रखकर एकदम अन्दर मकान में चली गई। सांई साहब ने समझा कि वह मेरे लिए बूरा लेने गयी है। जब बहुत हो गयी तो उन्होंने उसे बुलाया और कहा कि बूरा क्यों नहीं लाई? उसने कहा कि बूरा तो घर में है ही नहीं। साँई साहब ने क्रोध में भरकर कहा कि हम बिना बूरा के चावल नहीं खाते। इतना कहते ही लुहारिन उठी और सांई साहब की दाढ़ी पकड़कर दे मारा और उनका सब सामान उठाकर बाहर फेंक दिया। पूछने पर उसने कहा कि भला इसे हजारों कोस का कुत्ता तो दिखता है, पर बिल्कुल सामने रखा चावलों से ढका बूरा नहीं दिखता। सब यह देखकर चकित हो गये और सबने उसके ढोंग को समझ लिया।’’
सद्गृहस्थ-सन्त, भक्त रामशरणदास-पृष्ठ 385-86
साधु, फकीर, सन्त, संन्यासी तो जमीन पर पैर रखकर सामान्य जन कीााँति चलते फिरते हैं, परन्तु उनके भक्त और अनुयायीगण उनको समुद्र की सतह पर चला देते हैं, आकाश में पक्षियों की भाँति उड़ता हुआ दिखा देते हैं। सांई बाबा के साथाी लेखक ने ऐसा ही किया। ‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ पुस्तक के पृष्ठ 16 पर श्री सांई ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया-
‘‘तुम चाहो कहीं भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परन्तु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु हूँ और घट-घट में व्याप्त हूँ।’’
‘‘मेरे ही उदर में सब जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए हैं। मैं ही समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रणकर्त्ता व संचालक हूँ। मैं ही उत्पत्ति स्थिति और संहारकर्त्ता हूँ। मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।’’
‘‘बाबा की विशुद्ध कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे। अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है। सत्य युग में शम तथा दम, त्रेता में त्याग, द्वापर में पूजन और कलियुग में भगवत कीर्तन ही मोक्ष का साधन है।’’
शेष भाग अगले अंक में….
दयानंद सरस्वती की तरह ही धंधा साईं ने भी किया । हाँ सही है सभी ऐसा ही करते हैं क्योंकि श्रीकृष्ण ने जो किया वह धंधा तो ठीक नहीं , वैदिक ऋषियों ने जो किया वह धंधा भी ठीक नहीं , तभी तो इतने ग्रंथों के धन्धा के बावजूद भी सत्यार्थ प्रकाश नाम का धंधा चला और न जाने कितने?
ॐ
आशीष जी
सबसे पहली बात यह की दयानंद जी ने कोई धंधा नहीं चलाया | सबसे पहले यह समझो की दयानंद जी ने कोई मत नहीं चलाया जैसे साईं ने चलाया या फिर कबीर ने चलाया या फिर मुहमद पैह्म्बर ने चलाया या फिर ईसा मसीह या गौतम बुध ने चलाया या फिर महावीर जैन ने चलाया अपनी मुर्ख जैसी सोच को बदलो | ना की आंबेडकर की तरह अम्बेडकरवादी मत चलाया | दयानंद जी ने बोला था की मैं कोई मत की स्थापना नहीं कर रहा | पहले दयानंद जी की जीवनी पढ़ो | मुर्ख जैसी बात मत करो | श्रीकृष्ण ने भी कोई मत नहीं चलाया | लोगो ने कृष्ण से नया मत बना लिया तो इसमें कृष्ण का क्या दोष ? कोई आपके नाम से कोई मत चला ले तो उसमे मुर्खता आपकी और उनलोगों की होगी जिन्होंने आपकी मत को अपनाया ऐसे लोग ही मुर्ख होते हैं |वैदिक ऋषियों ने भी कोई मत नहीं चलाया | कहाँ से मुर्ख जैसी सवाल कर देते हो यह बात समझ से परे है | पहले धर्म क्या होता है ? मत मजहब क्या होता है ? इन सबकी जानकारी लो | फिर चर्चा करना | मुर्ख जैसे अपना सवाल यहाँ ना करो |
महर्षि दयानंद जी ने जब पाखंड खंडण किया तो अशीष जैसै बेचारे लोगों के काल्पनिक ब्रह्मा विष्णु महेश तथा साथ ही अशांत ब्रह्मांड जैसै अनेक काल्पनिक बातों को फैलाने वालों के गोरख धंधे मंदे हो गये । तबसे जो लोग आपे में है वह लोग ना सत्य जानते है ना जानना चाहते है इसी कारण जो सगमा पोहचा है इन्ह लोगों को वह ठीक होने वाला नहीं । बेहतर होगा आशीष जी यदी खुदके बेस कि जानकारी रखे । अशांत सृष्टि कि तो हम कुछ समझ सके कि इनको चींख चींख कर कहना क्या है ?
नागराज ज़ी आप 100%सही हओ मै आपसे सहमत हूँ||||| वै दि क ध र्म की जय………