ऋषि-जीवन विचारः-
परोपकारी में पहले भी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज का यह उपदेश सन्देश दिया था कि ऋषि का जीवन चरित्र एक यति, योगी, योगेश्वर, बाल ब्रह्मचारी ऋषि और महर्षि का जीवन है। आर्यो! इसका पाठ किया करो। इसे पुस्तक समझ कर मत पढ़ा करो।
२६ अक्टूबर १८८३ को कर्नल प्रतापसिंह ने आबू पहुँच कर भक्तों से ऋषि का पता पूछा। इस पर यह कहानी गढ़ ली गई कि उसने ऋषि से पूछा यदि उन्हें डॉ. अली मर्दान पर विष देने का सन्देह है तो वह कहें, ताकि उस पर अभियोग चलाया जावे। आश्चर्य यह है कि मूल स्रोत का प्रमाण सामने लाने पर भी इस हदीस की जब यह पोल खुल गई, तब भी एक आध बन्धु ने ऋषि जीवन का पाठ करने तथा उस पर विचार करने का व्रत लेकर अपनी सोच न बदली। किसी के मन में यह न आया कि विष दिये जाने पर राज परिवार का कोई व्यक्ति (प्रतापसिंह भी) जोधपुर में ऋषि के पास नहीं आया। पं. भगवद्दत्त जी, आचार्य विरजानन्द जी इन दोनों माननीय विद्वानों का मत है कि ऋषि तब इतने निर्बल थे कि बोल ही नहीं सकते थे। मूल स्रोत परोपकारिणी सभा को सौंप दिया गया है। वहाँ प्रतापसिंह के आबू पहुँचने का तो उल्लेख है, परन्तु ऋषि जी से भेंट करने का संकेत तक नहीं। एक गप्पी ने नई गप्प गढ़ ली है कि जसवन्तसिंह भागा-भागा ऋषि जी का पता करने पहुँचा। न जाने यह नई हदीस कब गढ़ ली गई? हमें तो अभी इन्हीं दिनों पता चला है। ऋषि के कृत्रिम पत्र गढ़ लिये गये, परन्तु शोध-शोध का शोर मचाने वालों ने इस पर भी चुप्पी साध ली। नई पीढ़ी के युवक जिन्हें ऋषि मिशन प्यारा है, वे जागरूक होकर ऋषि-जीवन की रक्षा करें।