ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

मुक्ति एक सापेक्ष शबद है। मुक्ति, जिसका अर्थ है-छूटना। छूटना बन्धन के बिना समभव नहीं। जो बन्धन में है, वही छूटना चाहता है, छूटता है। बन्धन और मुक्ति दोनों शबद अनुभव से समबन्ध रखते हैं। इसलिए मुक्ति की चर्चा चेतन से ही समबद्ध हो सकती है, अचेतन से नहीं। संसार में दुःख और बन्धन अनुभव करने वाले को जीव कहते हैं। दुःख का अनुभव जीवात्मा शरीर से ही कर सकता है। शरीर का प्रारमभ जन्म से होता है, इसलिए शास्त्र में जन्म को ही दुःख का कारण माना गया है-

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।।    – सांखय

शरीर का जन्म न होना अर्थात् आत्मा का बन्धन से मुक्त होना।

शरीर के बिना आनन्द का अनुभव कैसे हो सकता है? इस विषय में ऋषि दयानन्द शास्त्र के विचार से सहमत हैं कि जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुण और सामर्थ्य से मुक्ति के आनन्द का उपभोग करता है।

‘‘शृण्वन् श्रोत्रम्…….।       -छा. 8/12/4-5

मुक्ति में जीव के साथ अन्तःकरण, आनन्द, प्राण, इन्द्रियों का शुद्ध भाव बना रहता है।’’ -सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

ऋषि दयानन्द सूक्ष्म-शरीर के दो भेद स्वीकार करते हैं। एक सूक्ष्म-शरीर भौतिक है, जिससे जीव संसार के अन्दर जन्म-जन्मान्तर की यात्रा करता है। दूसरा सूक्ष्म-शरीर अभौतिक है, जो मुक्ति में आनन्द का अनुभव कराता है-

‘‘दूसरा- पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच सूक्ष्मभूत और मन तथा बुद्धि, इन सतरह तत्त्वों का समुदाय सूक्ष्म-शरीर कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म-मरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इसके दो भेद हैं- एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म-भूतों के अंश से बना है। दूसरा स्वाभाविक, जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है।’’ – सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

एक तीसरी समस्या है- मुक्ति से लौटना। सामान्य जो लोग जीव को परमेश्वर का अंश मानते हैं, वे जीव का मुक्ति में परमेश्वर में ही लय हो जाना स्वीकार करते हैं। जो लोग जीव को परमेश्वर से भिन्न स्वीकार करते हैं, वे भी जीव का मुक्ति से लौटना स्वीकार नहीं करते। ‘‘मुक्ति में ईश्वर के साथ- सालोक्य- ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य- छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, सारूप्य- जैसे उपासनीय देव की आकृति है, वैसा बन जाना, सामीप्य- सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना, सायुज्य- ईश्वर के साथ संयुक्त हो जाना- ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं।’’

ऋषि दयानन्द कहते हैं कि ये मुक्ति तो कीट-पतंग, गधे-घोड़े आदि सबको प्राप्त है-

‘‘ये जितने लोक हैं, वे सब ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिए सालोक्य मुक्ति अनायास प्राप्त है। सामीप्यईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप है, इसलिए सामीप्य मुक्ति स्वतः सिद्ध है। जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है। इससे सानुज्य मुक्ति भी बिना प्रयत्न के सिद्ध है और सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्य होने से संयुक्त हैं। इससे सायुज्य मुक्ति भी स्वतः सिद्ध है और जो अन्य साधारण नास्तिक लोग करने से तत्त्वों में तत्व मिलकर मुक्ति मानते हैं, वह तो कुत्ते, गधे आदि को भी प्राप्त है।’’

– सत्यार्थप्रकाश 290

‘‘बन्ध– सनिमित्तक अर्थात्- अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पापकर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि, ये सब दुःख फल करने वाले हैं। इसीलिए यह बन्ध है कि जिसकी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

मुक्ति अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उसकी सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।’’

– स्वमन्तव्या.

‘‘मुक्ति- अर्थात् जिससे सब बुरे कामों और जन्ममरणादि दुःखसागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है।’’

– आर्य्योद्देश्यरत्नमाला

जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उन्हें मुक्ति को भी स्वीकार करना पड़ता है। ईश्वर और मुक्ति का समबन्ध कैसा है, इसी में सिद्धान्त का भेद हो जाता है।

प्रथम, जो जीवात्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं, उनकी दृष्टि में ईश्वर में जीव का लय हो जाना मुक्ति है। इस मत में ईश्वर से जीवात्मा का होना और जीवात्मा का ईश्वर में लय हो जाना, इसकी तार्किकता शास्त्रों में बहुत है, परन्तु उसकी स्वीकार्यता कठिन है। ब्रह्म में माया, अविद्या या अज्ञान की उपस्थिति जीवात्मा के बनने का कारण है, किन्तु कितने ब्रह्म का भाग जीवात्मा बन जाता है, जीवात्मा अपने अन्दर व्याप्त माया का अनुभव करके उससे मुक्त होकर पुनः ब्रह्मरूप हो जाता है, यह मुक्ति है, परन्तु यह मुक्ति कितने समय के लिये है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि माया का पुनः ब्रह्म से मेल कब और कहाँ होगा, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

जो लोग ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं, उनमें भी दो सिद्धान्त प्रचलित हैं। प्रथम वे लोग जो मुक्ति के बाद जीव का भी ब्रह्म में ही लय स्वीकार करते हैं। ऋषि दयानन्द उनमें से हैं, जो जीवात्मा की मुक्ति तो मानते हैं, परन्तु उसमें लय न मानकर ब्रह्म के साथ-साथ पृथक् सत्ता के साथ विचरना स्वीकार करते हैं। इस परिस्थिति में दो समस्याएँ, विचारक के सममुख आती हैं- एक जीवात्मा मुक्त दशा में शरीर के बिना रहता हुआ मुक्ति या ब्रह्मानन्द के सुख का अनुभव कैसे करता है? तथा दूसरी समस्या है- यदि जीवात्मा पृथक् सत्ता है तो उसकी मुक्ति की दशा कब तक रहती है एवं उसका आधार क्या है?

ऋषि दयानन्द मुक्ति से लौटने के जो तार्किक आधार देते हैं, वे निन हैं-

  1. यदि मुक्ति में गये जीव लौटकर न आयें तो संसार का उच्छेद हो जाये, क्योंकि कभी न कभी तो संसार के जीव समाप्त हो जायेंगे। कितना भी बड़ा कोष क्यों न हो, जिसमें आगम न हो और निर्गम सतत् बना रहे तो वह कोष अवश्य समाप्त हो जायेगा।
  2. मुक्ति के सुख का महत्त्व तभी है, जब संसार के दुःख का अनुभव हो। दुःख के बिना मुक्ति के सुख का कोई मूल्य नहीं। धर्म-अधर्म, हानि-लाभ, निन्दा-स्तुति, सत्य-असत्य में एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ नहीं होता, वैसे ही दुःख के बिना सुख का कोई महत्त्व नहीं होता। इस प्रकार दुःख-सुख के बारी-बारी से अनुभव में ही सुख का उत्कर्ष और मुक्ति का महत्त्व है।
  3. सान्त कर्मों का फल अनन्त नहीं हो सकता। मनुष्य कितने भी कर्म करे, सभी की सीमा है। ऐसे सीमित कर्मों का फल अधिक तो हो सकता है, परन्तु असीम या अनन्त नहीं हो सकता।
  4. केवल मुक्ति में पहुँचकर न लौट पाना, यह भी एक प्रकार का बन्ध ही है। जहाँ एकरसता या एक ही प्रकार का जीवन है, वहाँ नीरसता का अनुभव होगा। इस प्रकार मुक्ति का प्रयोजन ही समाप्त हो जाता है।

मुक्ति से लौटने में वेद का प्रमाण-

कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च।।

अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च।।

-ऋ. 1/24/1-2

प्रश्न हम लोग किसका पवित्र नाम जानें? कौन नाश रहित पदार्थों के मध्य में वर्तमान देव सदा प्रकाशस्वरूप है, हमको मुक्ति का सुख भुगाकर पुनः इस संसार में जन्म देता और माता तथा पिता का दर्शन कराता है।।1।।

उत्तर हम इस प्रकाशस्वरूप, अनादि, सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें, जो हमको मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के समबन्ध में जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है। वही परमात्मा इस प्रकार मुक्ति की व्यवस्था करता और सबका स्वामी है।

इस लौटने की अवधि क्या होगी? इस समस्या का समाधान ऋषि दयानन्द उपनिषद् के एक वाक्य ‘परान्त काल’ से करते हैं-

प्रश्न जो मुक्ति से भी जीव फिर आता है तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है?

उत्तर – ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले, परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे। – मुण्डक 3/2/6

वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति-सुख को छोड़ के संसार में आते हैं। इसकी संखया यह है कि- तेंतालीस लाख, बीस सहस्र वर्षों की एक ‘चतुर्युगी’, दो सहस्र चतुर्युगियों का एक ‘अहोरात्र’, ऐसे तीस अहोरात्रों का एक ‘महीना’, ऐसे बारह महीनों का ‘एक वर्ष’, ऐसे शत वर्षों का ‘परान्त काल’ होता है। इसको गणित की रीति से यथावत् समझ लीजिये। इतना समय मुक्ति में सुख भोगने का है। -सत्यार्थ प्रकाश, नवम समु.

ऋषि दयानन्द जीव के मुक्ति में रहने के वेद से प्रमाण देते हुए लिखते हैं-

ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सयममृतत्वमानश।

तेयो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृणीत मानवं सुमेधसः।।                   -ऋ. 8/2/1/1

(ये यज्ञेन) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञान, रूप, यज्ञ और आत्मादि द्रव्यों की परमेश्वर को दक्षिणा देने से वे मुक्त लोग मोक्ष सुख में प्रसन्न रहते हैं। (इन्द्रस्य) जो परमेश्वर के सखय अर्थात् मित्रता से मोक्ष भाव को प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं के लिये भद्र नाम सब सुख नियत किये गये हैं (अङ्गिरसः) अर्थात् उनके जो प्राण हैं वे (सुमेधसः) उनकी बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाले होते हैं और उस मोक्ष प्राप्त मनुष्य को पूर्व मुक्त लोग अपने समीप आनन्द में रख लेते हैं और फिर वे परस्पर अपने ज्ञान से एक दूसरे को प्रीतिपूर्वक देखते और मिलते हैं।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।

– यजु. 32/10

(स नो बन्धुः) सब मनुष्यों को यह जानना चाहिए कि वही परमेश्वर हमारा बन्धु अर्थात् दुःख का नाश करने वाला, (जनिता) सब सुखों को उत्पन्न और पालन करने वाला है तथा वही सब कामों को पूर्ण करता और सब लोकों को जानने वाला है कि देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्व से सहित हो के सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं।

– धर्मवीर

 

2 thoughts on “ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति”

  1. NAMASTE MAINE KAHIN PADA KI SWAMI JI KO HINDI NAHIN AATI THI KYA YE SACH HAI ?? AUR SATYARTH PRAKSH UNHONE NAHI BALKI CHELON NAHIN LIKHI ?? ISME KITNA SACH HAI BATYENGE JARA ??

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